आज आजादी के 64 साल पूरे हो गए, यानी वह पीढ़ी जिसकी स्वतंत्रता की लड़ाई में सहभागिता थी, अपनी उम्र पूरी कर चुकी है। दूसरी पीढ़ी वह जो स्वतंत्रता से एक साल आगे-पीछे पैदा हुई, आज बूढ़ी हो चुकी है। 60 के दशक की आबादी व्यवस्थाओं को कोसते हुए अधेड़ हो गई।
अब समय है उस पीढ़ी का, जो 90 के दशक में पैदा हुई। जिसने बचपन से ही सूचना क्रांति की सरसराहट अपने कानों में महसूस की। महाभारत के अभिमन्यु की तरह आर्थिक आजादी की कहानी की भूमिका उसने गर्भ में ही सुन ली थी। आज वह युवा हो चुकी है।
अब वह अपने आसपास की दुनिया को देखकर भौचक नहीं है, बल्कि उससे कदमताल मिलाकर वह ग्लोबल गांव बन चुकी दुनिया में पूरब और पश्चिम का भेद खत्म कर देना चाहती है और कर भी रही है। आज उसके लिए आजादी का मतलब है आर्थिक आजादी यानी मुट्ठी भर पैसा। इस प्रयास में फिर भी वह अनमना-सा दिखता है।
युवा पीढ़ी आज अलग-अलग क्षेत्रों में अपने रोल मॉडल तलाश रही है। वॉरेन बफेट्स, आमिर खान, चेतन भगत, विक्रम सेठ जैसों से प्रेरणा लेकर वह इन क्षेत्रों में तो आगे बढ़ गए, परंतु राजनीति ऐसा क्षेत्र है, जहां युवा पीढ़ी अभी तक यह समझने का प्रयास कर रही है कि असल में उसके लिए आजादी क्या मायने रखती है।
सही मायनों में कहें तो यह आजादी का संक्रमण काल है, पीढ़ियों के हस्तांतरण का दौर। सीधे शब्दों में इसे दो पीढ़ियों के बीच कशमकश का दौर कहा जाना चाहिए। फिर वह बात किसी भी क्षेत्र की हो। बहुत पीछे न जाएं तो 70-80 के दशक की ही बात लें। एक युवा का सपना किसी तरह स्नातक की डिग्री व एक अदद सरकारी नौकरी के रूप में पूरा हो जाता था, परंतु आज का युवा किसी सीमा में नहीं बंधना चाहता।
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उसके लिए सारी दुनिया एक खुला आसमान है। जहां वह पंख लगाकर उड़ना चाहता है, लेकिन आप यह मानने की कतई भूल न करें कि वह वाचाल हो गया है। पीढ़ियों के अनुभवों से जो उसने सीखा है, उसी का परिणाम है कि अब 26/11 जैसे हमलों के बाद देश में उन्माद नहीं फैलता।
पाकिस्तान के खिलाफ क्रिकेट मैच हो तो वह मैदान के बाहर या अपने मोहल्ले में जज्बाती नहीं होता। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं कि उसकी संवेदना खत्म हो गई, बल्कि वह पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है। अब वह लेह में हुई प्राकृतिक आपदा को लेकर दिल्ली में भी उतना ही भावुक हो जाता है और उसमें सहभागी होना चाहता है, जितना वह झज्जर के अपने गांव में आई बाढ़ को लेकर दुखी है। वह धार्मिक मामलों में भी बराबर का साझीदार होना चाहता है। भ्रष्टाचार की बातें उसे भी अंदर तक कचोट जाती हैं। वह जानता है कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जितने रुपयों का भ्रष्टाचार हुआ है, वह कई देशों की जीडीपी के बराबर है। युवा इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, परंतु उन्हें लगता है कि वह अंधी सुरंग के एक मुहाने पर खड़े हैं, जहां उन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आता।
इस द्वंद्व का जो सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, वह है राजनीति में किसी करिश्माई युवा नेतृत्व का अभाव। अपने देश में खासतौर पर कहें तो राजनीति को लेकर जो परिकल्पनाएं या हकीकत हैं, वह इतनी विकृत हैं कि किसी भी युवा के मन में कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है और वह राजनीति को अछूत की तरह मानता है। यही कारण है कि राजनीति में युवाओं की संख्या लगभग नगण्य है।
जो है भी वह विशुद्ध रूप से विरासत में मिली जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं, इसलिए जरूरत है कि राजनीति में युवाओं को आगे लाया जाए और उन्हें चरणबद्ध ढंग से जिम्मेदारी सौंपी जाए। वह इसलिए क्योंकि आपको मिस्टर क्लीन यानी राजीव गांधी की याद होगी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिन स्थितियों में वह अनुभवहीन प्रधानमंत्री बने और अपने ही सहयोगियों के हाथों जिस प्रकार छले गए, वह किसी से छिपा नहीं है।
दूसरा उदाहरण है वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का। उनके अनुभवहीन नेतृत्व ने कश्मीर को दो दशक पीछे सन 90 की स्थिति में खड़ा कर दिया। यदि इन दोनों महानुभावों को अनुभव होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती, लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ यही लोग दोषी हैं, कतई नहीं हम भी उतने ही दोषी हैं। क्योंकि हम खुद सहयोग नहीं करते। पिछले संसदीय चुनाव में आईआईटीयन्स व कुछ अन्य तबके से प्रोफेशनल्स ने राजनीति में आने का प्रयास किया था, परंतु आपको शायद अंदाजा भी नहीं होगा हमने उन्हें इतने भी वोट नहीं दिए थे कि वह दोबारा हिम्मत कर सकें।
इसलिए आजादी के इस संक्रमण काल में हमें नदी किनारे बैठने वाला बगुला नहीं बनना चाहिए, जो शिकार के लिए मछलियों के पानी में उछलने का इंतजार करता है, बल्कि हमें तो पानी के अंदर घुसकर ही शिकार करना होगा और व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए व्यवस्था का हिस्सा बनना पड़ेगा, तभी युवाओं के हाथों में आई आजादी असल मायने में सुरक्षित रह पाएगी।