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महान देशभक्त थे अरविंद घोष

15 अगस्त की तिथि भारतीयों के लिए पवित्र

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15 अगस्त की तिथि हम भारतीयों के लिए बहुत पवित्र है। कारण सभी जानते हैं। इसी दिन सदियों की गुलामी के बाद देश ने स्वतंत्रता की सांस ली थी। किंतु यह तिथि एक और कारण से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि, इस दिन सन्‌ 1872 को बंगभूमि में एक ऐसे बालक ने जन्म लिया था, जिसका स्थान 20वीं सदी के भारतीय दार्शनिकों में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

ये हैं अरविंद घोष। किंतु वे कोरे दार्शनिक ही नहीं थे। वे एक महान साहित्यकार, श्रेष्ठ कवि, दूरदृष्टा उत्कृष्ट देशभक्त तथा महान मानव-प्रेमी थे। पिता कृष्णधन घोष डॉक्टर थे, जिन्होंने इंग्लैंड से ही डॉक्टरी पढ़ी थी। विदेशी प्रभाव में वे आकंठ डूबे थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भारतीय परंपरा अथवा भाषाओं से परिचित हो इसीलिए सात वर्ष की उम्र में ही उन्हें दो भाइयों के साथ इंग्लैंड में शिक्षा ग्रहण करने भेज दिया।

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यहां अरविंद ने प्राचीन ग्रीक तथा लेटिन के साथ-साथ अनेक यूरोपीय भाषाएं सीखते हुए निरंतर पाश्चात्य ज्ञान का अर्जन करना प्रारंभ किया। 12 वर्ष की उम्र में उन्हें लंदन के सेंट पाल स्कूल में भर्ती किया गया। यहां वे अपने अध्ययन में डूबे रहते थे। यूरोपीय दर्शन और साहित्य से परिचय गहरा होते गया। इस दौरान उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली, जिससे केम्ब्रिज में उनका प्रवेश सहज हो गया।

केम्ब्रिज में उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। जब वे भारतीय विद्यार्थी मंडल की इंडियन मजलिस के संपर्क में आए। यहीं से उनका भारत प्रेम और भारत परिचय प्रारंभ हुआ। फिर तो वे क्रांतिकारी भाषण देने लगे। इसके सेक्रेटरी भी बने। यहां उन्होंने एक गुप्त संस्था 'कमल और कटार' की सदस्यता भी ग्रहण की। फलस्वरूप संदिग्ध लोगों की सूची में उनका नाम शामिल हो गया।


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पिता की आज्ञा से उन्होंने इंडियन सिविल की परीक्षा दिलाई पर इसमें कोई रूचि नहीं थी। अतः जानबूझकर घुडसवारी की परीक्षा नहीं दी और फेल हो गए। इसी समय पिता की मृत्यु हो गई। आर्थिक तंगी तो थी ही सो उन्होंने स्वदेश लौटने का निश्चय किया और इस तरह 20 वर्ष की उम्र में वे भारत पहुंचे।

भारत लौट कर बड़ौदा राज्य की सेवा में उन्होंने भारत में अपने जीवन का प्रथम अध्याय प्रारंभ किया। यह श्री गणेश हुआ था, बड़ौदा कालेज में अध्यापन के द्वारा। इस बीच उन्होंने प्राचीन और तत्कालीन भारत को गहराई से समझा। विशेषकर प्राचीन भारतीय दर्शन तथा तात्कालीन भारत में स्वतंत्रता के लिए चल रही उथल-पुथल ने उनका ध्यान आकृष्ट किया। लगभग 13 साल वे यहां रहे..।

इस बीच कई बार कलकत्ते की यात्रा भी की और भारतीयों के मन में आजादी की प्यास जगाने अनेक क्रांतिकारी लेख भी लिखे। वे भारत की गुलामी के लिए अंग्रेजों से अधिक भारतीयों को ही दोषी मानते थे और फिर 1905 में जब देश के युवकों में बंग-भंग आंदोलन के कारण ज्वार आया हुआ था, नौकरी का त्याग कर वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े।


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पांच साल में ही उनकी गिनती गर्म दल के बड़े नेताओं में होने लगी। गर्मदल के नेता लोकमान्य तिलक, विपिनचंद पाल और लाला लजपतराय के वे सहयोगी थे।

1908 में ब्रिटिश शासन ने आपको राजनीतिक कारणों से बंदी बना लिया....। किन्तु अलीपुर जेल में एक नए अरविंद का जन्म हुआ। योगी अरविंद का। दरअसल जेल में ही अरविंद को अतिमानस का, भागवत चेतना का अनुभव हुआ और उनके जीवन की दिशा बदल गई। इसीलिए जेल से छुटकारे के बाद उन्होंने राजनीति को भी तिलांजलि दे दी और 1910 में पांडुचेरी चले गए। जहां आश्रम की स्थापना कर एक नया अभियान प्रारंभ किया। वह था विश्वशक्ति की खोज जिसकी सहायता से वे संपूर्ण मानव समाज का रूपातंरण करना चाहते थे। इस समय उनकी उम्र 38 वर्ष थी।

पृथ्वी पर भागवत चेतना के अवतरण के लिए वे निरंतर साधना करते रहे। उनका विश्वास था कि भारत को स्वतंत्र होने से कोई नहीं रोक सकता किंतु स्वतंत्रता के बाद भारतीयों को जिस दर्शन की, जिस जीवन पद्धति की आवश्यकता है, उस पर चिंतन आवश्यक है। भारतीयों को ही क्यों संपूर्ण मानव जाति को अरविंद के दर्शन एवं साधना की आवश्यकता थी। अपने लक्ष्य की वे निरंतर 40 वर्ष तक गतिशील रहे।

उन्होंने अपने विचारों के प्रतिपादन हेतु अनेकानेक लेख एवं किताबें लिखी। देश-विदेश में फैले अनेकानेक शिष्यों की शंका का समाधान वे निरंतर पत्र-लेखन द्वारा करते थे। 1950 में उनकी इहलीला समाप्त हुई। उनकी मृत्यु के 111 घंटे बाद उनका अंतिम संस्कार किया गया....और तब तक उनका शरीर अविकृत बना रहा।

- श्रीमती शोभा निग



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