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स्वतंत्रता आंदोलन : संन्यासियों का विद्रोह

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध दो प्रकार के आंदोलन चले- 1. अहिंसक और क्रांतिकारी। भारत की आजादी के लिए 1757 से 1942 के बीच जितने भी आंदोलन, विद्रोह हुए वे सभी पूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बने।

सबसे ज्यादा आंदोलन और विद्रोह बंगाल में हुए। 1757 में प्लासी के विद्रोह से लेकर 1905 के बंग-भंग आंदोलन तक बंगाल ने बहुत कुछ सहा। देश में बंगाल में हुए आंदोलन की कड़ी में संन्यासियों के आंदोलन की चर्चा भी प्रमुखता से की जाती है।

 

किसलिए हुआ संन्यासी विद्रोह अगले पन्ने पर...


*बंगाल में सबसे ज्यादा अत्याचार हिंदुओं पर होता था। अंग्रेजों ने हिंदुओं को उनके तीर्थ स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जिसके चलते शांत रहने वाले संन्यासियों में असंतोष फैल गया।
*बंगाल में अंग्रेजों की नीति के चलते जमींदार, कृषक, शिल्पकार सभी की स्थिति बदतर हो गई थी।
*बंगाल में जब 1770 ईस्वी में भयानक अकाल आया तो अंग्रेज सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और जनता को उनके हाल पर ही छोड़ दिया।
*बंगाल में हिंदुओं का धर्मांतरण चरम पर था। गरीब जनता की कोई सुनने वाला नहीं था।

अगले पन्ने पर संन्यासी-फकीरों ने मिलकर कहा...'वंदे मातरम्...'


अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1763 से 1773 तक चला संन्यासी आंदोलन सबसे प्रबल आंदोलन था। आदिगुरु शंकराचार्य के दसनामी संप्रदाय ने एकजुट होकर भारतीय धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए शस्त्र युद्ध का बिगुल बजाया। इतिहास प्रसिद्ध इस विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंदमठ' में मिलती है।

शंकराचार्य के अनुयायियों को देखकर मुस्लिम फकीरों ने भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत की आजादी का आंदोलन लड़ा। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं- मोहन गिरि और भवानी पाठक जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है।

संन्यासी-फकीरों के इस विद्रोह में उन्होंने अंग्रेजों की कई कोठियों पर कब्जा कर अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। ये लोग 50-50 हजार सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना पर आक्रमण करते थे। इन फकीरों और संन्यासियों के साथ जमींदार, कृषक, शिल्पियों ने साथ दिया था।

अगले पन्ने पर किस तरह अंग्रेजों की चाल का शिकार हो गया यह आंदोलन...


अंग्रेजों की 'फुट डालो और राज करो' की नीति के चलते बंगाल में संन्यासियों और फकीरों ने साथ मिलकर लड़ने के बजाय अलग-अलग लड़ने का फैसला किया। इस बिखराव के चलते अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर विद्रोह- दोनों ही दबा दिए गए।

इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी थी। उन्होंने बेरहमी से संन्यासियों और हिन्दू जनता का कत्लेआम किया।

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