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स्वतंत्रता दिवस : विकास के रंग-गीत-फूल और मिठास...

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स्मृति आदित्य

विगत वर्ष में देश में विकास की नई इबारतें रची गई, नए प्रतिमान गढ़े गए और नए सपनों को पंख मिले हैं लेकिन अविकास से छुटकारा नहीं मिल सका है। कुछ प्रमुख कारण ऐसे उभरे हैं जिन पर आवश्यक रूप से चिंतन किया जाना जरूरी है। 

स्वतंत्रता दिवस, 1947 से आज 2015 तक हमने 68 वर्षों का सफर तय कर लिया है। किसी भी देश के संपूर्ण विकास के लिए पर्याप्त समय हो सकता है। अगर सचमुच विकास की हार्दिक मंशा हो, आगे बढ़ने की ललक हो और सबसे अहम ईमानदार प्रयास हों। भारत के संबंध में हम थोड़ी दया-दृष्टि इसलिए रखते हैं क्योंकि आजादी के वक्त हमें देश जर्जर अवस्था में मिला, अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हालात में मिली और फिर सबसे अहम कि हमें विभाजन का दंश भी मिला। ऐसे हालातों में देश को नैतिक व सांस्कृतिक रूप से समेट सकने वाले प्रखर नेता स्वयं हताश और परेशान नजर आए। 
 
विकास की गाथा तब भी अबाध गति से लिखी जा सकती थी बशर्ते पुरानी समस्याओं से छुटकारा पाने के प्रयास किए होते चाहे धीमे-धीमे होते और कोशिश की जाती कि नई मुसीबतों को जन्म ना लेने दिया जाए। लेकिन हुआ यह कि जिन मोर्चों पर हमें मजबूत होना था वहां हम निरंतर कमजोर होते गए और जिन मोर्चों को पनपने ही नहीं देना था वहां हमने लापरवाही से उनके फैलने के लिए भरपूर 'स्पेस' दिया। देश के भीतर ही भीतर कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें हमें उखाड़ फेंकना चाहिए- 
 
क्या है अविकास का सबसे बड़ा कारण, जाने अगले पन्ने पर... 

1. भ्रष्टाचार ने बदरंग किया है विकास का रंग 
 
भ्रष्ट और आचरण इन दो शब्दों के मिलन ने जिस भ्रष्टाचार शब्द को जन्म दिया आज उसका विकराल रूप देखकर दहशत होने लगी है। देश के नेताओं और कुछ नौकरशाहों ने देश को खाली कर अपना घर भरने की जो मुहिम चालू की है उसने देश को बर्बाद कर के रख दिया है। 

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नेताओं तथा नौकरशाहों की संपत्ति और बैंक बैलेंस के आंकड़ों में लगे शून्य आप गिनते हुए थक सकते हैं लेकिन उनकी दौलत की पिपासा तृप्त कभी नहीं होती। कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल पिछले वर्ष बना वह अगर देश के पतन के गर्त में गिरते समय किसी नेता ने बना दिया होता, उस वक्त अगर जागरूकता आ गई होती तो शायद इस समय देश की फिज़ां कुछ और होती। 
 
हालांकि देर से आए इस दुरुस्त कदम ने भी आशा की नई डोर हमें थमाई थी लेकिन अन्ना आंदोलन का यूं बैठ जाना, और 'आप' का बनना, अरविंद केजरीवाल की असलियत सामने आना, अंतत: सबका राजनीति की शरण में जाना फिर इस तथ्य को पुष्ट करता है कि इस देश में ताकत आम आदमी के हाथ में नहीं बल्कि नेताओं के ही हाथों में निहित है। लोकतंत्र का इससे बड़ा परिहास क्या हो सकता है कि नेता का नेता के लिए नेता द्वारा शासन ही अब उसकी परिभाषा बन गया है। 
 
ना सिर्फ राजनीति बल्कि देश में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जहां दो नंबर का पैसा, ऊपरी कमाई जैसे शब्द प्रचलन में ना हो। नेता और बड़े अधिकारी से लेकर निम्न से निम्न पद पर कार्यरत चपरासी, पटवारी, तहसीलदार या क्लर्क के घर से भी करोड़ों-अरबों की संपत्ति का मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पानी बिना 'बांध' के सिर के ऊपर से गुजरने लगा है। दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के व्यापमं कांड ने ऐसे सुलगते सवाल पेश किए हैं जिनके जवाब ढूंढे नहीं मिल रहे हैं अलबत्ता उनकी एवज में अनचाही मौत जरूर सिर पर मंडराने लगी है। जब तक यह बेईमानी नेता से लेकर जनता तक विकराल रूप से पसरी हुई है विकास के सपनों में रंग नहीं भरा जा सकता। 
 
अगला कारण अविकास का..... 

2. विकास की मिठास में अशिक्षा की कड़वाहट
 
 अशिक्षा : पढ़ने के लिए जाना है पर तब जब पेट भरा हो, रास्ते मजबूत हो...  
 
शिक्षा जगत ने कागजों पर चाहे जितनी उन्नति दर्ज कर ली हो, विज्ञापनों में चाहे जितने लुभावने दावे और वादे सजा कर परोस दिए गए हो मगर जमीनी हकीक‍त चौंका देने वाली है। आज भी लाखों परिवार शिक्षा के उजियारे से वंचित हैं। 

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आज भी ड्रॉप आऊट्स (बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले) की संख्या में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं है। आज भी पूर्णत: 'साक्षर' घोषित किए गए गांवों से 'मतपत्रों पर अंगूठा लगाने की सूचनाएं' इसी देश से आ रही है। आज भी दूरस्थ क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएं नहीं है। लोग खेतों से बाहर आकर साक्षरता केन्द्रों तक जाने को तैयार नहीं है। 
 
अशिक्षा से उपजी दूसरी समस्याएं देश के लिए खतरनाक सिद्ध हो रही है और शिक्षा मंत्रालय को संचालित करते हमारे कर्णधार संसद में शोर मचाने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। अशिक्षा ही जिम्मेदार है भीतर ही भीतर पनपती अराजकता के लिए...  पड़ोसी मुल्क से आते आतंकवाद की गलत और राष्ट्रद्रोही शिक्षा के लिए और अशिक्षा ही जिम्मेदार है धर्म के नाम पर हो रही विकृतियों के लिए।

आज भी अशिक्षा ही सबसे बड़ी बाधा है देश के विकास में। परिवर्तन की बयार तो चली है पर वह उन नागरिकों तक अब भी नहीं पंहुची है जो दूरस्थ बियाबान अंचलों में पानी, सड़क और भोजन के अभाव में जी रहे हैं। उनके लिए शिक्षा के मायने तब ही सार्थक हैं जब रोज की मूलभूत समस्याएं मुंह बाएं ना खड़ी हो...विकास की मिठास में अशिक्षा की यह कड़वाहट खलने वाली है।  
 
 
पढ़ें अगला पन्ना...

3.विकास के गीत नहीं गुनगुनाए जा सकते हैं बेटी के बिना 
'सेल्फी विद बेटी' अच्छी है लेकिन दाग तो अच्छे नहीं 
 
बात महिला, औरत या स्त्री की नहीं पहले बेटी की करनी होगी। जी हां वह भी स्त्री ही है लेकिन तब जब उसे इस समाज में जीने दिया जाए, आगे बढ़ने दिया जाए। प्रधानमंत्री की 'सेल्फी विद डॉटर' ने निश्चित रूप से एक सुंदर संदेश दिया है। बेटियों को प्यार भरी नजर से देखने की कोशिशें भी शुरु हुई है। लेकिन साथ ही आती रही नकारात्मक दिल दहलाने वाली खबरें और बार-बार रूलाती रही ....झाडियों में आज भी अवांछित नवजात बच्चियां फेंकी जा रही है। आज भी चारों तरफ पनपती विकृत मानसिकता ने नन्ही बच्चियों की सुरक्षा को छलनी किया है। 

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इस विषय पर चिंतन सदियों से सारे समाज की प्राथमिकता नहीं बन सके हैं। यह वही देश है जहां 68 साल बाद भी देश की बेटियां सरेबाजार पीडित, अपमानित-प्रताडित होती है और लोग अपने भीतर इतना साहस नहीं जुटा पाते कि उनके विरूद्ध अपराधों को रोक सके। 
 
क्या हम ऐसा देश चाहते हैं, ऐसा विकास चाहते हैं, जहां कोख से लेकर कचहरी तक महिलाओं के प्रति अत्याचार के नित-नए बेशर्म उदाहरण रचे जाएं? 
 
 68 साल का आकलन करना कितना दुष्कर है अंदाज लगाया जा सकता है। महिला के प्रति अपराध में किसी भी स्तर पर कमी नहीं देखी गई क्योंकि दोषियों को समुचित सजा नहीं मिलती। सजा देने का जो नैतिक साहस देश के सत्तासीनों से अपेक्षित है, वह चमकदार तरीके से नजर नहीं आ रहा है। 
 
देश को नाम के आधार पर पुकारा जाए तो 'इंडिया' की 'डॉटर्स' ने 68 साल में प्रगति के परचम लहराए हैं जबकि 'भारत' के ग्राम्य अंचलों में मुस्कुराने वाली बेटियां आज भी विकास की धारा से दूर है। पोलिथीन बिनती, खेतों में मिर्चियां तोड़ती, पेड़ों पर फंदे में झूलती बेटियां भी इसी देश और समाज का हिस्सा हैं (और थीं..) इन्हें साथ लिए बिना विकास के गीत नहीं गुनगुनाए जा सकते हैं।  

सफाई के बिना विकास की राहों पर फूल कैसे खिल सकते हैं?    
स्वच्छता अभियान ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर हो तो कोई बात बने  
 
प्रधानमंत्री ने देश की रिसती हुई रग पर हाथ रखा जब बात सफाई की चली। चारों तरफ एक खूबसूरत माहौल बना कि ह में खुद साफ रहना है, हमें देश को साफ रखना है। ब हुत कुछ हो भी रहा है लेकिन अबाध गति से विकास के लिए ज्यादा जरूरी यह है कि कोई बात ऊपर से नीचे की तरफ आए, उससे ज्यादा नीचे से ऊपर संदेश बनकर जाए। यह तभी संभव है जब मानसिक और व्यावहारिक स्तर पर देश की जनता सफाई का महत्व समझे। स्थिति इतनी बदतर है कि मानसून के आते ही नदियां बेकल होकर उफनने लगी है। प्लास्टिक और गंदगी की उबकाती सड़ांध को अपने में समेटे हर जल स्त्रोत सि‍सकता नजर आया। ऐसे में विकास के रास्ते कैसे खुल सकते हैं। उन राहों पर फूल कैसे खिल सकते हैं?    
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सोचिए अवकाश के बहाने : 
 
68 साल, एक पड़ाव है भागते-भागते भी थोड़ा ठहर कर सोचने का, सोचकर एक सही दिशा में सार्थक संकल्प का और संकल्प को साकार करने का। इतने सालों में हम इतने उलझे रहे फिर क्या आने वाले सालों में सुलझ पाएंगे? स्वतंत्रता दिवस पर सोचिएगा क्योंकि इस दिन 'राष्ट्रीय अवकाश' भी तो होता है। 

विकास के खिलते रंग, मधुर गीत, रंगबिरंगे फूल और महकती मिठास के बीच.... स्वतंत्रता दिवस दिल से महसूस हो इसका प्रयास हमें ही तो करना है... 

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