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अब मोदीजी से क्या उम्मीद रखें?

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संदीप तिवारी

पिछले वर्ष देश ने आजादी की 68 वीं सालगिरह मनाई थी और तब प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को 'प्रधान सेवक' बताते हुए अपने बिना लिखे भाषण में 'देशवासियों और दुनिया में हर किसी को बधाई देते हुए कहा था कि इस राष्ट्रीय पर्व पर वे देश करोड़ों-करोड़ों लोगों को नमन करते हैं। आजादी का हवाला देते हुए मोदीजी ने तनिक भावुक होते हुए यह देश की ही सामर्थ्य है कि एक छोटे शहर के गरीब परिवार के एक बालक को आज लाल किले की प्राचीर से भारत के तिरंगे झंडे के सामने सिर झुकाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।' एक वेदमंत्र को दोहराते हुए उनका कहना था कि 'मेरा क्या... मुझे क्या' की जगह 125 करोड़ देशवासियों ने देश को आगे बढ़ाया है। 
 
भाषण के शुरुआत में उन्होंने कहा कि उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 'एक सरकार के अंदर भी कई सरकारें चल रही हैं, सरकार में बिखराव है और एक विभाग दूसरे विभाग से टकरा रहा है।' लेकिन एक वर्ष बाद भी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे बदलाव को देखा जा सके, महसूस किया जा सके। उन्होंने अपने पिछले भाषण में 'मेरा क्या' और 'मुझे क्या' की बात कही थी लेकिन सरकार के अंदर और इसके बाहर एनडीए के नेताओं के आचरण को देखकर नहीं लगता है कि हमारे प्रतिनिधि अपने हित से ऊपर उठकर लोगों के हित के बारे में सोचने लगे हैं? 

 
मोदीजी ने रेप, जातिवाद और हिंसा, साम्प्रदायिकता के मुद्दे उठाए थे, सुशासन की बात कही थी लेकिन ऐसा नहीं लगता है कि उनकी सरकार के इस विषयों से जुड़े कदमों का कोई सार्थक बदलाव देखा गया है। करीब एक घंटे के भाषण में उन्होंने अपनी सरकार की प्राथमिकताओं का खाका खींचा था और उन्होंने टॉयलेट बनाने और सफाई अभियान से लेकर बलात्कार, सांप्रदायिक हिंसा और देश के विकास समेत कई मुद्दों पर बात की थी।
 
पर क्या उन्हें इस बात की जानकारी है कि राजधानी दिल्ली से लगे हरियाणा राज्य के हिसार जिले के भगाणा गांव के सौ से ज्यादा परिवारों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया क्योंकि पिछले दो वर्ष से वह जंतर मंतर पर धरना दे रहे थे लेकिन कोई भी सरकार, अधिकारी और दफ्तर उन्हें न्याय नहीं दिला सका। इन दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों की जमीनों पर कब्जा कर लिया गया, उनकी लड़कियों से बलात्कार किए गए लेकिन किसी ने कभी भी उनकी बात करने की जरूरत नहीं समझी। क्या ऐसे ही रेप, जातिवाद और साम्प्रदायिक हिंसा से  सामना किया जाएगा? वह भी तब जब ऐसे मामले सरकार की नाक के नीचे हो रहे हों?  
  
इस वर्ष लोगों को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में ऐसी बड़ी घोषणाओं का खुलासा कर सकते हैं या सरकार के ऐसे कदमों की जानकारी दे सकते हैं जिनसे लगे कि सरकार वास्तव में किसी तरह से यथा स्थिति वाद से छुटकारा पाना चाहती है और यह अंतरराष्ट्रीय निवेशकों और भारतीय मतदाताओं को सुखद आश्चर्य देना चाहेगी, जिन्होंने भाजपा और राजग को प्रभावशाली बहुमत दिया है लेकिन वे देश में हो रहे बदलावों की गति से संतुष्ट नहीं हैं। इस तरह की घोषणाओं को जल्दी होना चाहिए क्योंकि तकलीफों में जी रहे लोगों को पता नहीं है कि सरकार की इस धीमी गति के क्या कारण हैं? 
 
लोगों को वामपंथी-उदारवादी निजी मीडिया के सामने सरकार के बचाव की मुद्रा में होने को लेकर भी आश्चर्य है। जनसामान्य यह देखकर भी चकित है कि मोदी सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के बीच में गंभीर संचार संकट है। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी जितने आक्रामक और सीधी बात कहने के आदी लगते थे, लेकिन राहुल गांधी के हमलों ने उन्हें राहुल गांधी की बराबरी पर लाकर खड़ा कर दिया है। चुनाव से पहले और बाद के अंतर ने लोगों को जैसे अनाथ बना दिया है। सरकार के सामने यूपीए की निष्क्रियता और घोटालों के उदाहरण देने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि मोदी ने जिन आमूल चूल परिवर्तनों का वादा किया था, उनके स्थान पर सबकुछ सामान्य गति से चल रहा है।
 
स्तवंत्रता दिवस के भाषण में मोदी से बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। हालांकि लोग प्रशासन को सक्रिय बनाने के सरकार के प्रयासों को देख रहे हैं। लोगों का मानना है कि वे अब भी अंतरमंत्रालयीन व्यवस्था को देख रहे हैं जोकि गलतफहमियों को जन्म देती है और जिसे ऐसी नौकरशाही से मदद मिलती है जोकि कठिन परिश्रम को लेकर पूरी तरह से आदी नहीं है।
 
यह समयबद्ध कार्यक्रमों को भी चलाने में अक्षम है लेकिन जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो यह स्थिति तेजी से क्यों नहीं बदल रही है। हालांकि अभी तक सरकार के प्रयासों का सकारात्मक प्रभाव सामने आया है लेकिन इनमें पर्याप्त गति नहीं है।       
 
देश की जीडीपी ऊपर की ओर जा रहा है लेकिन बहुत धीरे-धीरे। सरकार के अन्य आर्थिक मानक सुधर रहे हैं। रेलवेज को पूरी तरह से कंगाल होने से बचा लिया गया है। पीएसयू बैंकों के कामकाज में बदलाव लाया जा रहा है हालांकि यूपीए के घोटालों की देनदारियां अभी भी बनी हुई हैं और विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमाओं को बढ़ाया जा रहा है, श्रम सुधारों को आधुनिक बनाया जा रहा है। लेकिन इन सब बातों के लगता है कि देश के लोग नरेन्द्र मोदी से इससे कहीं बहुत अधिक की उम्मीद करते हैं। 
 
घोषणाएं बड़ी संख्या में हो रही हैं लेकिन इनका तत्काल क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है। वे या तो अटकी पड़ी हैं या संसद में जाकर या कोर्ट कचहरियों में पहुंचकर ठंडी हो रही हैं। संसद में कांग्रेस के मात्र 44 सांसद हैं, लेकिन उन्होंने राज्यसभा में सरकार के विधायी एजेंडा को ठप कर रखा है। सदन में इसकी 102 सीटें हैं लेकिन यह क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सरकार के प्रत्येक कदम को बेदम बनाने में सफलतापूर्वक जुटी हुई है। अपने कानूनों को पास कराने के लिए सरकार संसद का संयुक्त सत्र कब बुलाने जा रही हैं? राजग सरकार क्यों एक नकारात्मक विपक्ष की तरह काम कर रही है जबकि इसे ऐसा नहीं करना चाहिए और विशेष रूप से तब जब लोग तेज बदलाव चाहते हैं। 
 
बड़े सुधारों की घोषणाओं और उपायों के सामने न आने से लोग अधीर और निराश हैं और इस सरकार को लेकर लोगों की सोच भी बदल रही है। आश्चर्य की बात है कि कई मामलों में भाजपा कांग्रेस के साथ मिलकर सर्वसम्मति बनाना चाहती है जोकि लगभग असंभव है। जबकि कांग्रेस को अगर बने रहना और पुनर्जीवन पाना है तो इसे सरकार के हर कदम का विरोध करना ही है। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ही कांग्रेस नेतृत्व पर ऐसा दबाव बनाती नहीं दिखती है जोकि इसकी तमाम गलतियों और घोटालों की सजा लगे। लेकिन ऐसा करके मोदी सरकार कांग्रेस के हौसलों को और बढ़ा रही है। प्रधानमंत्री भी डब्ल्यूटीओ में सरकार पर विदेशी दबावों को लेकर तो बात करते हैं लेकिन कोई भी नेता यह महसूस नहीं कर रहा है कि इस धीमी चाल से मोदी सरकार अपना कितना बड़ा नुकसान कर रही है। इसकी जानकारी इसे चुनावों के परिणामों में देखने को मिलेगी।  
क्या है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणाओं की हकीकत... पढ़ें अगले पेज पर....
 
 

इसके अलावा, प्रधानमंत्री के पिछले भाषण में की गई घोषणाओं का कितना सकारात्मक असर पड़ा है, वह भी विचारणीय है...
* मोदी जी ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों को समाप्त करने पर जोर दिया था और इसके लिए उन्होंने माता-पिता से अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करने का आग्रह किया था, लेकिन सरकार की तरफ से ऐसे विरोधाभासी संकेत मिलते हैं जिनसे लगता है कि सरकार की अपनी कोई नीति ही नहीं है। जैसे कि सरकार पहले पॉर्न साइट्‍स को प्रतिबंधित करती है लेकिन बाद में आलोचना से डरकर बैन उठा लेती है। क्या सरकार इसी तरह से सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करेगी? पॉर्न साइट्‍स पर बैन चीन में भी लगता है लेकिन इसे भारत की तरह से नहीं लगाया जाता है और सरकार अपनी आलोचना से भी नहीं डरती है।
 
* प्रधानमंत्री ने साम्प्रदायिकता और हिंसा की बात करते हुए इन्हें पूरी तरह समाप्त करने की अपील की। उनका कहना था कि 'खून से धरती लाल ही होगी, और कुछ नहीं मिलेगा। दस साल में हम विकसित समाज की ओर जाना चाहते हैं।' लेकिन सरकार में ही ऐसे मंत्री और पार्टी सांसद हैं जोकि साम्प्रदायिकता के बल पर ही चुनाव जीतते हैं, क्या मोदी सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है? 
 
* कन्या भ्रूण हत्या की समस्या पर मोदी का कहना था कि 'बेटों की आस में बेटियों की बलि मत चढ़ाइए। राष्ट्रमंडल खेलों में बेटियों ने भारत का गौरव बढ़ाया है।' लेकिन सामाजिक बुराइयां तभी पनपती हैं, जब उन्हें पनपने का मौका मिलता है। सरकार को अपने मंत्रियों, सांसदों और विधायकों से कहना चाहिए कि वे इनकी शुरुआत अपने ही घरों से करें।
 
* देश के विकास के लिए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल पर जोर दिया था। सरकार को पीपीपी मॉडल के अंतर्गत होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के भी उपाय करने चाहिए जोकि सरकारी संरक्षण में पनप रहा है।  
 
* मोदी ने कहा कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के माध्यम से गरीबों को बैंक अकाउंट से जोड़ा जाएगा और हर कार्ड धारक को डेबिट कार्ड और एक लाख की बीमा सुरक्षा मुहैया कराई जा रही है। सरकार ने लोगों के जो खाते खुलवाए हैं उनमें से 97 फीसदी खातों में कोई बैलेंस ही नहीं है। सरकार को यह प्रयास भी करना चाहिए कि समाज के निचले तबके के लोगों के पास कम से कम इतना पैसा तो हो कि वे अपने खातों में कुछ राशि डाल सकें। 
 
* मोदी ने कहा था कि दो अक्टूबर से देश में सफाई का अभियान शुरू किया जाएगा। (जो कि बाद में शुरू भी किया गया लेकिन प्रारंभिक उत्साह के बाद सफाई को लेकर पैदा हुई यह चेतना काफूर हो गई)। उनका कहना था कि प्रत्येक सांसद को सांसद निधि से एक साल तक स्कूलों में टॉयलेट बनाने पर खर्च करने करने का संकल्प लेना चाहिए। सरकार को यह भी देखना चाहिए कि टॉयलेट का भौतिक स‍त्यापन भी हो, इन्हें केवल फाइलों पर ही नहीं बनना चाहिए।   
 
* पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ने कहा था,  'सफाई करना मेरे लिए बहुत बड़ा काम है। क्या हमारा देश स्वच्छ नहीं हो सकता? अगर 125 करोड़ लोग यह तय कर लेंगे कि मैं गंदगी नहीं करूंगा तो गंदगी खत्म हो जाएगी। 2019 में गांधी जी की 150वीं जयंती आ रही है। महात्मा गांधी को सबसे ज्यादा सफाई प्यारी थी। हम यह संकल्प लेते हैं कि 2019 में गंदगी मुक्त भारत होगा। यह काम सरकार नहीं जनभागिता से होगा। गांव की मां-बहनें शौचालय का इंतजाम नहीं कर सकतीं। 
 
छोटी बातों का, घोषणाओं का महत्व होता है। आज मैं लालकिले से टॉयलेट की बात कर रहा हूं... लोग क्या कहेंगे। मैं नहीं जानता पर मैं मन से बोल रहा हूं। स्वच्छ भारत का अभियान 2 अक्टूबर से शुरू किया गया लेकिन इस कार्यक्रम की क्या हालत है?  
 
* पर इसके परिणामों पर गौर करें। सरकार ने देश के एक लाख से अधिक आबादी वाले 476 शहरों का सर्वेक्षण कराया और जाना कि इन शहरों में खुले में शौच, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट, पानी की गुणवत्ता और पेयजल से होने वाली मौतों के आंकड़ों का अध्ययन करवाया। सफाई के लिहाज से देश के शीर्ष दस शहरों में एक भी हिंदी भाषी राज्य नहीं है। सफाई के मामले में दक्षिण भारत, पूर्वी भारत और पश्चिमी भारत के शहर बेहतर थे। सफाई की दृष्टि से हिंदी भाषी राज्यों की राजधानियां भी गंदी पाई गईं। राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री की नाक के नीचे गंदगी का साम्राज्य है, ऐसे में अन्य राज्यों, शहरों से क्या उम्मीद की जा सकती है?  
 
* ई-गवर्नेंस, ईजी गवर्नेंस को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले से ई-गवर्नेंस के नारे में नए शब्द जोड़ते हुए कहा कि अब हमें ई-गवर्नेंस की तरह ईजी गवर्नेंस पर काम करना होगा। ई-गवर्नेंस के माध्यम से गुड गवर्नेंस हासिल की जा सकती है। हम टूरिज्म को बढ़ावा देना चाहते हैं। लेकिन ई गर्वर्नेंस को प्रभावी बनाने के लिए जिन बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है, वे बहुत थोड़ी मात्रा में देश के कुछ चुनिंदा शहरों तक ही सीमित हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो बिजली की उपलब्धता ही एक समस्या बनी हुई है। क्या ऐसे में ई-गवर्नेंस, ईजी गवर्नेंस देश के ग्रामीण इलाकों में जडें जमा सकेगी? संभव है कि प्रधानमंत्री इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में कोई नई बातें, जानकारी दें?    
 
* ठीक इसी तरह डिजिटल इंडिया का हाल है? ये मिशन कागजों पर या देश के कुछ महानगरों में रफ्तार पकड़ रहा हो लेकिन देश के दूर-दराज गांवों में भी डिस्टेंस एजुकेशन, टेलीमेडिसिन, मोबाइल से ज्यादातर काम करने की बातें, दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं हैं। हमें डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने के लिए देश में उन बुनियादी सुविधाओं, संरचनाओं का जाल बिछाना होगा जोकि इसका आधार मजबूत कर सकें। लेकिन क्या ऐसा धीरे-धीरे ही सही संभव होता दिखाई पड़ रहा है? संभवत: इसका उत्तर भी नकारात्मक होगा।
 
सरकार को मानना होगा कि यदि जमीनी हकीकत में बदलाव लाना है तो सरकारी आंकडों से ही काम नहीं चलेगा। देश के ज्यादातर लोग इन आंकड़ों की सच्चाई को जानते हैं क्योंकि सभी ने झूठ, सफेद झूठ और आंकडों के बारे में सुना है। संभव है कि प्रधानमंत्री अपने भाषण में इस अभियान से जुड़े आंकडों के बारे में बताएं लेकिन पिछले 68 साल में आंकड़ों ने देश की प्रगति की रफ्‍तार में शायद ही कोई सार्थक योगदान दिया हो? 
 
* 'मेक इन इंडिया' की बात करते हुए मोदी ने विश्व के बाकी देशों और देश के नौजवानों से विश्व के बेहतर निर्माण की तरफ आगे बढ़ने को कहा था। उन्होंने प्रत्येक  सेक्टर भारत में निर्माण करने और अपने प्रोडक्ट को कहीं और भी बेच सकने की बात कही थी। उनका कहना था कि जीरो डिफेक्ट और जीरो इफेक्ट के साथ देश को एक मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना है लेकिन क्या इस दिशा में हमारी तैयारी जमीनी तौर पर आगे बढ़ी है?
 
अगर आप सोचते हैं कि निजी कंपनियां देश के निर्माण में आगे बढ़कर भागीदारी करेंगी, लेकिन यह तभी तक संभव होगा जबकि उन्हें पर्याप्त लाभ हो? पूरी तरह से पूंजीवादी सोच देश का विकास भी करेगी तो एकांगी जबकि हमें सर्वांगीण विकास की जरूरत है। इसलिए सरकार को निर्णायक तौर पर सक्रिय होने की जरूरत है, केवल योजनाएं, कार्यक्रम बनाने की बजाय इनका प्रभावी क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करना होगा। उम्मीद की जा सकती है कि इस बार सरकार की ओर से इस मामले में हुई प्रगति की जानकारी दी जाएगी। 
 
* मोदी ने एक सांसद ग्राम योजना की घोषणा भी की। उनका कहना था कि इस योजना के तहत हर सांसद को अपने क्षेत्र में एक गांव को आदर्श ग्राम बनाया जाएगा और इसका विकास सुनिश्चित किया जाएगा। लेकिन यह भी तभी संभव है ‍जबकि सांसद अपनी जिम्मेदारी को महज आंकड़े न समझें।
सांसदों को तो यह तक पता नहीं होता है कि उन्होंने किस गांव का विकास किया है?
 
 
* मोदी ने योजना आयोग की जगह नई संस्था बनाने की घोषणा करते हुए कहा था कि 'कभी-कभी पुराने घर की मरम्मत पर ख़र्चा ज्यादा आता है और संतुष्टि नहीं होती।  फिर लगता है कि नया ही घर बना दिया जाए।' उनकी इस घोषणा के बाद नीति आयोग ने साकार रूप लिया था। संस्थाओं का नाम कुछ भी हो, उनका काम सुनिश्चित करवाया जाए। 
  
* उन्होंने कहा कि गरीबी को समाप्त करने का संकल्प लेना होगा। सभी दक्षिण एशियाई देश मिलकर ग़रीबी उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित करें। मात्र सरकारी योजनाओं और आंकड़ों से गरीबी उन्मूलन नहीं होता है। हमारे देश में गरीब और गरीबी को तय करने के मानक ही हास्यास्पद हैं जिन्हें सार्थक बनाने की जरूरत है। 
 
* विदेश नीति पर बोलते हुए उन्होंने सभी पड़ोसी देशों से रिश्ते बेहतर करने पर बल दिया था लेकिन व्यवहारिक तौर पर ऐसा करना संभव नहीं है। भारत के दो पड़ोसी देश, पाकिस्तान और चीन, ऐसे हैं जोकि रिश्तों को सामान्य बनाने की हर मुमकिन कोशिश को नाकाम करते हैं। विदेश नीति देश की हालत पर निर्भर करती है, दूसरे देशों पर नहीं। इसलिए भारत को दूसरे देशों की नीतियों को बदलने या ‍‍इनमें कोई परिवर्तन करना का विचार छोड़ देना चाहिए।     
 
* मोदी ने पर्यटन पर खास तौर से जोर दिया था लेकिन आज स्थिति यह है कि देश के सीमावर्ती राज्यों, जम्मू और कश्मीर और पंजाब, में आतंकवादी घटनाओं के चलते जनजीवन का सामान्य रहना भी मुश्किल है। ऐसे में कौन विदेशी अपनी जान को जोखिम में डालने के लिए इन राज्यों में पर्यटन के लिए आएगा? विदेशी तो किसी तरह जम्मू कश्मीर में आ जाते हैं लेकिन देश के अन्य राज्यों के लोग तो आतंकवादियों के इस स्वर्ग में जाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। 
 
* मोदी ने खुद को प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधान सेवक बताया था लेकिन उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें बहुत अधिक निरंकुश और हठधर्मी तक बताते हैं। इस तरह वे उन्हें सेवक नहीं मानते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे अन्य लोगों को लेकर उदार  नहीं हैं। ऐसी हालत में 'कृत्रिम विनम्रता' की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अगर आप प्रधानमंत्री हैं तो आप प्रधानमंत्री पद को किसी भी नाम से बुलाएं, इस पद और ओहदे को लेकर कोई अंतर नहीं पड़ता है। 
 
लेकिन फिलहाल महत्वपूर्ण बात है कि इस वर्ष प्रधानमंत्री मोदी क्या कहेंगे? क्या वे अपने कार्यक्रमों और योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर विभिन्न मंत्रालयों, विभागों के आंकडों को पेश करेंगे या फिर यह बताने का प्रयास करेंगे कि उनकी सरकार ने कौन- कौन सी उपलब्धियां हासिल की हैं। देश के लोगों को विश्वास दिलाने के लिए जमीनी तौर पर हो रहे परिवर्तन ही काफी होंगे, आंकडों या उपलब्धियों के दावों से कोई अधिक अंतर नहीं पड़ने वाला है।  

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