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धरोहरों की रक्षा, हमारा कर्त्तव्‍य

वर्ल्‍ड हेरि‍टेज डे पर वि‍शेष

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बात चाहे शहर की ऐतिहासिक धरोहरों की हो या प्रदेश और देश की। इनके संरक्षण में किसी एक की भूमिका नहीं होती पर जिन विशेषज्ञों की देखरेख में इनका अस्तित्व आज भी कायम है उन्हीं में से कुछ को हम आपसे रूबरू करा रहे हैं। वर्ल्ड हेरिटेज डे पर जानते हैं कि किन तकनीकों का साथ लेकर और किन परेशानियों से दो-चार होकर ये स्मारकों को मुस्कराने का मौका देते हैं।

कारण कुछ भी हो सकता है
हर इमारत को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हमारी ही होती है और विडंबना तो यह है कि हम ही इसे नुकसान पहुँचाते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि स्मारक का प्राकृतिक रूप से क्षरण होना तो प्रकृति का नियम है, लेकिन मानव द्वारा भी उसे नुकसान पहुँचाया जाता है।

कुछ लोग इन इमारतों पर नाम आदि कुरेदकर खराब करते हैं तो कुछ प्रतिमा आदि ध्वस्त कर इनका सौंदर्य बिगा़ड़ते हैं, परंतु वे यह
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भूल जाते हैं कि जिसके निर्माण में वर्षों लगे और जो आज हमारी शान बनी हुई है, उसके साथ यह खिलवाड़ क्यों? सुधार प्रक्रिया में पहले स्थान की स्थिति देख यह तय किय जाता है कि मरम्मत की आवश्यकता है या रसायनों के प्रयोग से उसे सुधारा जा सकता है। ऐसे में ध्यान रखकर इन धरोहरों को बचाने के पूरे प्रयास किए जाते हैं।


हर जगह अलग चुनौती
एसआर वर्मा (उपयंत्री, पुरात्तव विभाग) ने बुरहनापुर के मोती महल, जेनाबाद की सराय, परवेज साहब का मकबरा, राव रतन का महल, बेगम मुमताज की कब्र, बारहदरी आदि का अनुरक्षण किया है। वे अपने जीवन का अभी तक का सबसे चुनौतीपूर्ण और बेहतरीन कार्य नरसिंहग़ढ़ जिले में शाकाजी की छत्री के लिए किए प्रयास को बताते हैं। यहाँ इन्होंने करीब 6-7 माह की मेहनत के बाद दो मंदिरों के बीच की दूरी खत्म कर उसे पहले की ही भाँति स्वरूप प्रदान किया और गिरी हुई छत को उसी स्वरूप में बनवाया।

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श्री वर्मा कहते हैं कि किसी भी ऐतिहासिक इमारत को सुधारने के पहले उसकी नींव को मजबूत किया जाता है। बाद में दरारें, गुंबज, गलियारे को दुरूस्त करते हैं। वर्तमान में निर्माण संबंधी सुधार में मोटे पत्थर की कमी से परेशानी आती है, पर यह बात भी है कि जो़ड़ने के लिए बहुत सी सुविधाएँ आज मुहैया हैं। हमारे लिए हर स्थान पर अलग चुनौती होती है और ऐसे में अनुभव ही काम आता है।

परेशानी तो आती है
एके रिजबुड बताते हैं कि जब वे होशंगाबाद और बिलासपुर में संग्रहालय स्थापित करना चाहते थे, तब सबसे ज्यादा परेशानी प्राचीन प्रतिमाओं को एकत्रित करने में आई। कई बार सुदूरवन में जाना प़ड़ा तो पहा़ड़ों की च़ढ़ाई भी करनी प़ड़ी। बिलासपुर में तो एक गाँव से खासी संख्या में ऐतिहासिक धरोहरें मिलीं, लेकिन सरपंच और ग्रामीण उसे देने को तैयार नहीं थे, ऐसे में न केवल हमें कलेक्टर की मदद लेनी प़ड़ी वरन्‌ कलेक्टर को भी ग्रामीणों को समझाने में खासे प्रयास करने प़ड़े।

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नियमों से बँधे होने के कारण संभव नहीं
प्रवीण श्रीवास्तव (केमिस्ट, पुरात्व विभाग) का मानना है कि केमिकल के साथ कार्य करना इसलिए अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि हरेक जगह की प्रकृति अलग होती है। मैंने अभी तक जिन भी स्मारकों पर कार्य किया है संतोष ही प्राप्त हुआ, क्योंकि उन स्मारकों पर मुझसे पहले किसी ने सुधार कार्य नहीं किया था।

जूनी इंदौर स्थित गणेश मंदिर व हरसिद्धि मंदिर के लिए किए गए कार्य से आत्मिक शांति मिली। जिस प्रकार बाबियान की ध्वस्त मस्जिद को आर सेनगुप्ता ने दुरूस्त किया, उसी प्रकार का कार्य करने की मेरी भी इच्छा है, लेकिन नियमों से बँधे होने की वजह से यह संभव नहीं हो पाता।

केवल अनुभव के आधार पर
निर्माण या सुधार दोनों का आधार रेखांकन ही है। यह कहना है मानचित्रकार राजेन्द्र कुमार भावसार का। इंदौर, भोपाल, ओरछा और ग्वालियर के जहाँगीर महल के लिए कार्य कर चुके श्री भावसार कहते हैं कि वे अभी केवल अनुभव के आधार पर कार्य करते आए हैं। वर्तमान में न तो मार्गदर्शन के लिए सीनियर हैं और न ही कोई उत्साहवर्द्घन करने वाला। यही नहीं तकनीकी सुविधाओं का अभाव भी है और अधिनस्थ भी कोई नहीं, जिससे खासी परेशानी होती है।

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