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'मिनी लंदन' बना झारखंड का मैकलुस्कीगंज

पर्यटन स्थलों में अहम है मैकलुस्कीगंज

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- विष्णु राजगढ़िया, अमित झा
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झारखंड की राजधानी रांची से उत्तर-पश्चिम में करीब 60-65 किलोमीटर पर 1933 में कोलोनाइजेशन सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा बसाया गया मैकलुस्कीगंज देखते ही देखते 'मिनी लंदन' के रूप मे विख्यात हो गया लेकिन आज भारत के एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए बुना यह खूबसूरत घोंसला तिनके-तिनके बिखर रहा है। समय के साथ तालमेल नहीं बिठा पाने के संकेत यहां के रिहाइश, राह और राहगीर सब पर नजर आते हैं।

तभी तो आठ साल की उम्र से ही किटी मेमसाब के तौर पर ख्यात कैथरीन टेक्जैरा उम्र के छठे दशक में पहुंच गई हैं और जीवनयापन के लिए मैकलुस्कीगंज स्टेशन के बाहर फल बेचती हैं। वह आज भी अपने समुदाय के लोगों के खाली पड़े सुनसान बंगलों के बीच अपने बंगले में रहती हैं।

अपने समुदाय के चुनिंदा ऐसे लोगों में कैथरीन भी शामिल हैं जिन्हें इस शहर को लेकर थोड़ी भी आशा नहीं बची है लेकिन वह प्राकृतिक वरदान प्राप्त इस इलाके के आकर्षण से खुद को अलग ही नहीं कर पातीं। इनके लिए तो यह गंज आज भी स्वर्ग से कम नहीं ! भले ही आज यह रमणीक ठिकाना उतना सुहाना न रहा हो और कुल मिलाकर एक सामान्य से गंवई कस्बे का रूप ले चुका हो, जहां कमोबेश झारखंड के कई गांवों की तरह ही नक्सलियों का बसेरा है।

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जहां सूरज ढलने के बाद घर से बाहर निकलना बिलकुल सुरक्षित नहीं है। लेकिन आशा की नई किरण फूटी जरूर है। गंज से पलायन कर चुके एंग्लो-इंडियन परिवारों के खाली बंगलों पर नक्सलियों और अपराधियों के कब्जों के मद्देनजर सरकार ने यहां पुलिस बल तैनात किया है और झारखंड के कई उपेक्षित पर्यटन स्थलों की तरह इसे भी पर्यटन के मानचित्र पर लाने की तैयारी चल रही है। यदि सबकुछ ठीक रहा तो आने वाले दिनों में मैकलुस्कीगंज हरे-भरे जंगलों, खूबसूरत पठारों, धूल-धूसरित कच्चे-पक्के रास्तों और स्वच्छ हवा के लिए पर्यटकों की मंजिल जरूर बनेगा।

राज्य की पर्यटन मंत्री विमला प्रधान बताती हैं, 'दुनिया के इकलौते एंग्लो-इंडियन गांव मैकलुस्कीगंज को पर्यटन के मानचित्र पर लाने की पहल हुई है। प्राकृतिक खूबसूरती के कारण पर्यटन क्षेत्र और डॉन बॉस्को जैसे स्कूल की उपस्थिति के कारण इसे शिक्षा हब के रूप में विकसित करने पर सरकार का ध्यान इधर गया है। मैकलुस्कीगंज हमारे लिए अहम पर्यटन स्थलों में से है। हम विशेषज्ञों से भी राय ले रहे हैं। हम मैकलुस्कीगंज की विरासत सहेजने के अलावा वहां आधारभूत संरचनाओं को भी मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं

विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि मैकलुस्कीगंज सहित झारखंड के अन्य उपेक्षित पर्यटन स्थलों को चिह्नित कर उनके विकास की योजनाएं तय की जाएं। हमारे पास फंड की कमी नहीं है। हम विशेषज्ञों से भी राय ले रहे हैं। हम मैकलुस्कीगंज की विरासत सहेजने के अलावा वहां आधारभूत संरचनाओं को भी मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।'

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बहरहाल, कभी इलाके में कहीं भी न दिखने वाली खाकी वर्दी अब दिखने लगी है और कानून इलाके में अपनी पकड़ कायम करने में जुटा है। अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की की पहल पर 1930 के दशक में रातू महाराज से लीज पर ली गई 10,000 एकड़ जमीन पर बसा मैकलुस्की गंज शहर फिर से बेहतरी की राह पर चल पड़ा है। चामा, रामदागादो, केदल, दुली, कोनका, मायापुर, महुलिया, हेसाल और लपरा जैसे गांवों वाला यह इलाका 365 बंगलों के साथ पहचान पाता है जिसमें कभी एंग्लो-इंडियन लोग आबाद थे। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों की उपस्थिति इसे लंदन का सा रूप देती तो इसे लोग मिनी लंदन कहने लगे।

मैकलुस्कीगंज टिमोथी का सपना था। कोलकाता में प्रॉपर्टी डीलिंग के पेशे से जुड़ा टिमोथी जब इस इलाके में आया तो यहां की आबोहवा ने उसे मोहित कर लिया। यहां के गांवों में आम, जामुन, करंज, सेमल, कदंब, महुआ, भेलवा, सखुआ और परास के मंजर, फूल या फलों से सदाबहार पेड़ उसे कुछ इस कदर भाए कि उसने भारत के एंग्लो-इंडियन परिवारों के लिए एक अपना ही चमन विकसित करने की ठान ली।

दरअसल, मैकलुस्की के पिता आइरिश थे और रेल की नौकरी में रहे थे नौकरी के दौरान बनारस के एक ब्राह्मण परिवार की लड़की से उन्हें प्यार हो गया। समाज के विरोध के बावजूद दोनों ने शादी की। ऐसे में मैकलुस्की बचपन से ही एंग्लो-इंडियन समुदाय की छटपटाहट देखते आए थे। अपने समुदाय के लिए कुछ कर गुजरने का सपना शुरू से उनके मन में था। वे बंगाल विधान परिषद के मेंबर बने और कोलकाता में रीयल एस्टेट का कारोबार भी खूब ढंग से चलाया।

वर्ष 1930 के दशक में साइमन कमीशन की रिपोर्ट में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रति अंग्रेज सरकार की किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी से मुंह मोड़ लेने के बाद मैकलुस्की ने पाया कि यह तो पूरे एंग्लो-इंडियन समुदाय के सामने ही खड़ा हो गया अस्तित्व का संकट है। मैकलुस्की ने तय किया कि वह एंग्लो-इंडियन समुदाय के वास्ते एक गांव इसी भारत में बनाएंगे। कालांतर में कोलकाता और अन्य दूसरे महानगरों में रहने वाले कई धनी एंग्लो-इंडियन परिवार ने मैकलुस्कीगंज में डेरा जमाया, जमीनें खरीदीं और आकर्षक बंगले बनवाए और मैकलुस्कीगंज में रहने लगे।

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मूलतः ब्रिटिश होने के बावजूद इन लोगों ने खुद को सच्चा हिंदुस्तानी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैकलुस्कीगंज के घने और बीहड़ जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के बीच शिक्षा और समाजसेवा को लेकर इस समुदाय ने अथक श्रम किया। पिछले कुछ दशकों में यहां के हालात लगातार खराब हुए पर फिर भी आशा की झिलमिलाती किरणें छिटपुट दिखती रहीं। जीर्ण-शीर्ण घरों, डॉक्टर विहीन चिकित्सा केंद्र, बिजली विहीन बिजली के तारों और निष्क्रिय पानी की टंकी जैसे निराशावादी संकेतों के बीच 1997 में खुले डॉन बॉस्को स्कूल के अहाते में बाहर निकले बच्चों के शोर से इलाका गुलजार लगने लगता है।

बिहार विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय से मनोनीत विधायक व शिक्षाविद् अल्फ्रेड जॉर्ज डी रोमारियो ने डॉन बॉस्को स्कूल की एक शाखा मैकलुस्कीगंज में खुलवाने के लिए बहुत श्रम किया। इससे इस इलाके के शिक्षा के हब के रूप में विकसित किए जाने के आसार पैदा हुए हैं। डॉन बास्को हाईस्कूल की तुलना नेतरहाट के समकक्ष होती रही है। इस महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र की उपस्थिति के कारण यहां 28 निजी हॉस्टल भी खड़े हो गए हैं।

इस विद्यालय में आज भी बिहार और झारखंड सहित अन्य क्षेत्रों के विद्यार्थी पढ़ने आ रहे हैं और अरण्यवासी प्राचीन गुरुकुलों का एहसास महसूस करते हैं। झारखंड विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय से मनोनीत विधायक जे.पी. गालस्टीन ने इस स्कूल को अभिनव स्वरूप देने में योगदान दिया है। बहरहाल, यहां अब भी रह रहे एंग्लो-इंडियन परिवारों की वर्तमान पीढ़ी की स्थिति बेहतर करने के ठोस प्रयास की जरूरत है, जिनके पास जीविका के लिए न तो कोई काम है और न ही हुनर।

वस्तुतः जिस दौर में मैकलुस्कीगंज बसा, हालात कुछ और थे। अंग्रेजों का राज था और एंग्लो-इंडियन समुदाय ने दूरगामी भविष्य का आकलन करने में गलती कर दी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद खत्म होते ही कठोर यथार्थ इनकी नई पीढ़ी के सामने था। मैकलुस्कीगंज में जो एंग्लो-इंडियन रहने आए थे उनके पास उनकी जमापूंजी खर्च करने को थी पर नई पीढ़ी को भविष्य की तैयारी करनी चाहिए थी। उन्हें यहां की जमीन से जुड़ना चाहिए था। यहां रहने और जीने के लिए जरूरी था कि वे कृषि कर्म से जुड़ते पर ऐसा नहीं हुआ। उनके सामने दो ही विकल्प थे किसी भी स्थिति में मैकलुस्कीगंज में जीवनयापन या पलायन।

वरिष्ठ समाजशास्त्री अयोध्यानाथ मिश्र मानते हैं कि सबसे बड़ी चूक खुद एंग्लो-इंडियन परिवारों की रही है। वे यहां की माटी से शत-प्रतिशत जुड़े ही नहीं, बदलते परिवेश में खुद को ढालने या कर्मठता दिखाने की चेष्टा नहीं की। जबकि उनके पास कोयले के खान जैसे संसाधन थे जहां रोजगार के कितने ही विकल्प थे। इस समुदाय के तकरीबन 25 परिवार अब भी इस गांव की माटी से जुड़े हैं।

अयोध्यानाथ मिश्र कहते हैं कि राज्य सरकार की इस समुदाय के प्रति दिखाई जाने वाली निरंतर संवेदनशीलता को ठोस रूप-रेखा प्रदान करनी होगी। सरकार को मैकलुस्कीगंज की पारिस्थितिकी के अनुरूप उसे एक एजुकेशनल हब के तौर पर विकसित करना चाहिए। यहां आजीविका के साधन विकसित करने चाहिए। टूरिस्ट प्लेस के तौर पर विकसित होते इस मैकलुस्कीगंज में एंग्लो-इंडियन परिवारों द्वारा खाली किए जा रहे शानदार बंगलों को ऐतिहासिक विरासत के तौर पर बचाना होगा।

इधर उपायुक्त के.के. सोन मानते हैं कि मैकलुस्कीगंज को नक्सलियों और अपराधियों की नजर लग गई है पर प्रशासन ने पहल की है। एक कंपनी फोर्स की वहां तैनाती हो चुकी है। जरूरत और मांग के अनुरूप सुरक्षा-व्यवस्था और मजबूत की जाएगी। सरकार ने यहां यथासाध्य सरकारी योजनाएं पहुंचाने की चेष्टा की है। उन्होंने कहा, 'हम अपने स्तर पर मैकलुस्कीगंज का दौरा कर वस्तुस्थिति की समीक्षा करते हैं। एंग्लो-इंडियन समुदाय हमारे समाज और संस्कृति की विरासत हैं। इस समुदाय का यह सारी दुनिया में इकलौता गांव है।

जाहिर है, हम इसे यूं ही नहीं छोड़ देंगे। उनकी समृद्ध संस्कृति और विरासत को बचाने के लिए सरकार निरंतर प्रयास कर रही है। टूरिस्ट प्लेस के तौर पर इसे विकसित करने की कई योजनाएं हैं और उनमें से कुछ पर काम भी शुरू हो चुका है।

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