‘चीनी सेना हमले पर हमले किए जा रही थी। इन हमलों में लगातार भारतीय सैनिक शहीद हो रहे थे। इस जंग में शामिल मेजर धनसिंह थापा फ्रंट पर लड़ रहे थे, लेकिन ऐनवक्त पर उनके पास गोलियां खत्म हो गई। मेजर थापा के पास कोई चारा नहीं था, वो बस चीनी दुश्मनों को हर हाल में मौत के घाट उतारना चाहते थे। जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तो वे संगीन लेकर चीनियों पर टूट पड़े। संगीन से ही कई दुश्मनों को उन्होंने मार गिराया था’
चीनियों को मारते- मारते चीन की सीमा में घुस गए थे मेजर थापा। कई दुश्मनों को उनकी सीमा में घुसकर मार दिया, जब वे नहीं लौटे तो सेना और देश को लगा कि वो शहीद हो गए होंगे, लेकिन मौत को मात देकर वो जिंदा लौट आए।
शिमला के मेजर धनसिंह थापा ने लद्दाख में मोर्चा संभालते हुए सैकड़ों चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। मेजर थापा अगस्त 1949 में भारतीय सेना के आठवीं गोरखा राइफल्स में कमीशन अधिकारी के रूप में शामिल हुए थे। थापा ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान लद्दाख में चीन की सेना का बहादुरी से सामना किया था। लद्दाख के उत्तरी सीमा पर पांगोंग झील के पास चुशूल हवाई पट्टी को चीनी सेना से बचाने के लिए सिरिजाप घाटी में गोरखा राइफल्स की कमान संभाली।
20 अक्टूबर, 1962 को चीनी सेना के करीब 600 सैनिकों ने तोपों और मोर्टारों की मदद से थापा की पोस्ट पर धावा बोल दिया। गोरखा दुश्मन के साथ पूरी ताकत से लड़े और बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराया। उन्होंने चीनी सैनिकों की मंसूबे को नाकाम कर दिया। दुश्मन गोरखा के जवाबी हमले को देखकर हैरान था। गुस्से में आकर उन्होंने थापा की पोस्ट की हमला कर उसे आग लगा दी।
इस हमले के बाद अब थापा सिर्फ अपने तीन साथियों के साथ बंकर से मिशन को अंजाम दे रहे थे। तभी एक बम उनके बंकर पर आकर गिरा। बम फटता इससे पहले वह बंकर से बाहर कूद गए और हाथ से ही दुश्मन को मारने लगे। कई दुश्मनों को वे चीन की सीमा में पहुंचकर मारने लगे। लेकिन चीन ने उन्हें बंदी बना लिया। इधर भारतीय सेना को ख़बर नहीं थी कि उन्हें बंदी बना लिया गया है।
देश, आर्मी और घरवालों ने उन्हें शहीद मानकर मेजर थापा का अंतिम संस्कार कर दिया। लेकिन बाद में जब चीन ने भारत के बंदी बनाए सैनिकों की सूची सौंपी तो उसमें धन सिंह थापा का भी नाम था। युद्ध खत्म होने के बाद जब वे भारत लौटे तो पूरे देश में जश्न था।
वीरता से लड़ने के कारण उन्हें सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र देकर सम्मानित किया गया। वे सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से रिटायर हुए। इसके बाद सहारा ग्रुप में आजीवन डायरेक्टर रहे। बाद में जब वे सेना से रिटायर हुए तो अपने परिवार के साथ लखनऊ में जा बसे थे। वहीं उन्होंने 5 सितंबर, 2005 को हमेशा के अपने देश को अलविदा कह दिया।