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आवारा मसीहा की अंतःयात्रा

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- डॉ. कैलाश नारद

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प्रामाणिक जीवनी विष्णु प्रभाकर के धैर्य और लेखकीय साहस का प्रतीक है। उनके रहस्यमय और उलझे हुए जीवन की गुत्थी सुलझाने के साथ ही लेखक ने शरतचंद्र के किरदारों के स्रोत और रचना प्रक्रिया को टटोलने की दुष्कर चुनौती को भी स्वीकारा और उसका प्रामाणिकता के साथ निर्वहन भी किया। इसके लिए उन्होंने बंगाल, बिहार और बर्मा के बीच फैली कथा... देश में न जाने कहाँ-कहाँ के बिखरे कथा सूत्रों को जोड़ने के लिए गहन यात्राएँ कीं।

किताबों व पत्रिकाओं को खंगालने के साथ ही इतिहास को टोहा और अनगिनत लोगों से मिलकर शरतचंद्र का जीवन, उनके रचनाकर्म औरचरित्रों को पहचानने का गंभीर उद्यम किया, तब जाकर 19 सालों के लंबे समय में उन्हें हासिल हुई 'आवारा मसीहा' की उपलब्धि। अपने इसी उपक्रम के सिलसिले में विष्णुजी ने जबलपुर को भी सम्मिलित किया। उन्हें मिली सूचना के अनुसार शरतचंद्र की मौसेरी बहन मल्लिका जबलपुर में आई थीं। बस आवारा मसीहा के एक और सूत्र को तलाशते जब तब उनकी जबलपुर यात्रा होती रहती थी। उन्हीं दिनों को याद करने के बहाने आवारा मसीहा की अंतःयात्रा।

हिन्दी के कवि पं. रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' से अपने आत्मीय संबंधों के कारण विष्णु प्रभाकर दो-तीन साल के अंतराल में एक बार जबलपुर जरूर आ जाते थे। तब अंचलजी हुकमचंद नारद रोड वाले मेरे पुराने मकान में भी उन्हें ले आते थे। तंग मोहरीवाला खादी का पाजामा, खादी की ही सदरी, कुर्ता और टोपी। लिबास में वे पक्के गाँधीवादी थे और आचरण में भी जैसे महात्मा गाँधी को उतारने की पूरी कोशिश उन्होंने कर रखी थी।

आते ही वे पूछते, 'सत्यसेबक दत्त की कोठी में अब कौन-कौन हैं?'

सत्यसेबक दत्त करीब डेढ़ सौ साल पहले हुगली से जबलपुर आए थे। वे इस शहर के प्रारंभिक बंगालियों में से थे। सैकड़ों एकड़ के भूपति। जबलपुर में दुर्गापूजा की परंपरा उन्हीं की बखरी से शुरू हुई थी। मैं पूछता, 'दत्त साहब की कोठी के बारे में आप इतने उत्सुक क्यों हैं?'

'मल्लिका ने बनारस से आकर सत्यसेबक दत्त की कोठी में ही मुकाम किया था' विष्णु प्रभाकर जवाब देते, 'वे शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की मौसेरी बहन थीं।'

लेकिन दत्त साहब की जर्जर हो रही हवेली में उन दिनों बचा ही कौन रह गया था, जो विष्णु प्रभाकर को मल्लिका के बारे में जानकारी देता। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन प्रसंगों पर शोध करने वाले विष्णु प्रभाकर ने भारतीय साहित्य के उस सबसे बड़े फक्कड़ पर लगातार उन्नीस बरसों तक काम करते-करते जब 'आवारा मसीहा' की रचना की थी, तब जबलपुर भी विष्णु प्रभाकर की यादों में एक सुदूर सितारे जैसा कौंधा करता था।

मोतीलाल चटर्जी, निरुपमा, राजबाला, महादेव साहू, निशानाथ बनर्जी, सत्यकाम गांगुली, गजाधरसिंह, प्यारी बंद्योपाध्याय और नीरदा जैसे चरित्रों को खोज कर विष्णु प्रभाकर ने उन्हें शरतचंद्र की जिंदगी के साथ पिरो दिया था, जब भी उन्हें अवकाश मिलता वे मल्लिका को खोजते-खोजते जबलपुर चले आते, वहाँ से आड़ी-तिरछी गलियों को पार करते हुए दत्त साहब की अब गिरी, तब गिरी उस हवेली जाते, लेकिन वहाँ उन्हें मिलता कुछ भी नहीं था, तब, विष्णुजी का हताश चेहरा देखकर मुझे न जाने कैसा तो लगने लगता।

हिन्दी के नामवर मठाधीशों और पतित तिकडमबाजों ने उन दिनों द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण' के साथ ही साथ विष्णु प्रभाकर को भी साहित्य से खारिज कर दिया था। 'निर्गुण' जी ने तो विलाप भी किया था लेकिन विष्णुजी खामोश रह गए थे। न तो कोई कैफियत न ही कोई प्रतिवाद। अपनी दुबली-पतली काया के भीतर एक फौलाद का संकल्प सँजो वे गली कुंडेवालान, अजमेरी गेट वाले अपने मकान से बाहर आ गए थे, राहुलजी की तरह यायावरी करने ताकि कालजयी शरत को समय की शिला पर हमेशा-हमेशा के लिए नक्श किया जा सके।

हिन्दी के नामवर मठाधीशों और पतित तिकडमबाजों ने उन दिनों द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण' के साथ ही साथ प्रभाकर को भी साहित्य से खारिज कर दिया था। 'निर्गुण' जी ने तो विलाप भी किया था लेकिन विष्णुजी खामोश रह गए थे। न तो कोई कैफियत न ही कोई प्रतिवाद।
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और यह आकस्मिक नहीं था कि 'देवदास' के प्रणेता के साथ ही साथ ' आवारा मसीहा' के रचनाकार भी अक्षर विश्व में सनातन बन गए। अमर बनना विष्णुजी की किंचित भी किसी अभिलाषा में शुमार नहीं था वे तो सिर्फ असली शरतचंद्र को उजागर करना चाहते थे, लेकिन पाठकों ने जब उनकी इस महान कृति को हाथों-हाथ लिया और भारत सरकार तथा साहित्य अकादमी ने भी जब उनको अपने सिर-माथे लिया तो वह उपक्रम निस्संदेह हिन्दी साहित्य की घटती और गिरती हुई पठनीयता के लिए मानो एक संजीवनी था।

विभाजन के बाद लिखी उनकी कहानी 'धरती अब भी घूम रही है', अकेली ही उनको गुलेरीजी की 'उसने कहा था' के समकक्ष रखने को पर्याप्त थी, जिसमें उन्होंने एक गरीब ठेलेवाले को म्युनिसिपैलटी के कारिंदों द्वारा गिरफ्तार होते हुए चित्रित किया था। मामले का फैसला करने वाले जज को बतौर रिश्वत, लड़कियाँ पसंद हैं, यह जानकर ठेलेवाले का ग्यारह साल का बेटा नौ साल की अपनी मासूम बहिन को लेकर भरी महफिल में पहुँच जाता है। चेतना को कहीं बहुत भीतर तक अवसन्न कर देने वाली इस कहानी में विष्णु प्रभाकर सवाल करते हैं, इस घटना के बाद हैरत है, धरती अब भी घूम रही है?

हिन्दी की हजारों कहानी पर भारी अकेली इस कहानी के बारे में विष्णु प्रभाकर से मैंने सवाल किया था, 'आपको अमर बनाने के लिए, धरती अब भी घूम रही है', ही पर्याप्त थी तब आपने 'आवारा मसीहा' क्यों लिखी?

'प्रेमचंद के बाद शरतचंद्र ही हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक हैं', उन्होंने जवाब दिया था, 'अमृतराय ने तो कलम का सिपाही लिखकर प्रेमचंद को सामने ला दिया, शरतचंद्र के साथ वैसा न्याय नहीं हो पाया। बांग्ला में भी शरतचंद्र की कोई प्रामाणिक जीवनी नहीं थी। वे मुझे चौबीसों घंटे बेचैन बनाए रखते थे। इसलिए मुझे लगा, यह काम मुझे करना चाहिए?'

'लेकिन मल्लिका के बगैर 'आवारा मसीहा' अपने कैसे पूरी की?'

'उनके बिना नहीं' विष्णुजी हँसने लगे थे, 'मल्लिका की जानकारी मुझे मिल गई थी। वे उड़ीसा के मयूरगंज में ब्याही गई थीं। उनकी चौथी पीढ़ी के रिश्तेदारों ने शरतचंद्र के वे पत्र संभालकर रखे थे जो कभी उन्होंने मल्लिका देवी को लिखे थे। तुम क्या समझते हो, उन्नीस बरस की वह यात्रा मैं यूँ ही आधी-अधूरी छोड़ देता?'

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