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पंडित नेहरू और पंडित व्यास : एक संस्मरण

हमें फॉलो करें पंडित नेहरू और पंडित व्यास : एक संस्मरण
राजशेखर व्यास  
 
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू व पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यासजी के निकट संबंधों और आपसी नोंक-झोंक के जरिए हम 14 नवंबर के अवसर पर पंडित नेहरू को याद कर रहे हैं। 


 

 
मेरे पिता पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यासजी और पंडित जवाहरलाल नेहरूजी में असीम आत्मीयता थी। आजादी की लड़ाई में मेरे पिता ने अहिंसक-हिंसक दोनों तरह के सेनानियों का भरपूर साथ दिया । वर्ष 1918 से वे राष्ट्रीय कांग्रेस के नियमित सदस्य रहे। वे देशरत्न राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, बापू, पट्टाभिसीतारमैया, बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन, बाबू संपूर्णानंद, शरत्‌चंद्र बोस, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, आचार्य नरेंद्र देव तथा बाबू जगजीवन राम तक के अंतरंग स्नेही, सहयोगी और मार्गदर्शक भी रहे। इन सभी के असंख्य पत्र मेरे पास आज तक सुरक्षित हैं। इतिहास की धरोहर बन चुके इन पत्रों और कुछ संस्मरणों का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से मेरे संपादन में 'यादें' नामक ग्रंथ के रूप में आया है। 
 
वर्ष 1938 में व्यासजी ने देश के प्रायः सभी प्रतिष्ठित अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में एक बेहद दिलचस्प लेख और भविष्यवाणी प्रकाशित करवाई थी, 'नेहरू बीकेम लेनिन एंड डी. वेलेरा ऑफ इंडिया' - भारत वर्ष का भावी लेनिन और डी. वेलेरा हैं पंडित नेहरू। यह लेख आज दुर्लभ है - वर्ष 1938 में जब बापू सहित तमाम वरिष्ठ राजनेता मौजूद थे, तब क्या कोई यह कल्पना कर सकता था कि ठीक नौ वर्ष उपरांत नेहरू जी भारत के प्रधानमंत्री होंगे? इतना ही नहीं, इस लेख में यहां तक इंगित कर दिया गया था कि कब उनकी पत्नी का देहावसान होगा, कब उनकी बिटिया का विवाह होगा, कब वे साहित्य सृजन करेंगे ! और यह सारी बातें प्रत्यक्ष प्रमाणरूप में घटीं। आज वह लेख इतिहास का दस्तावेज बन चुका है । 
 
वर्ष 1928 में पंडित व्यासजी ने उज्जैनी में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अखिल भारतीय कालिदास समारोह की स्थापना की। वर्ष 1956 एवं 1959 में, पंडित जवाहरलाल नेहरू इस समारोह में आए थे, तब उन्होंने स्वयं भी उक्त लेख की चर्चा की थी और लेख देखकर नेहरूजी मुग्ध हुए । 
 
यह जग विख्यात है कि पंडित सूर्यनारायण व्यास द्वारा स्थापित 'महाकालविजय पंचांग' एवं 'नारायणविजय पंचांग' भारत के प्राचीन और विख्यात पंचांगों में एक है। स्वयं लोकमान्य तिलक एवं मदन मोहन मालवीय जी महाराज इस पंचांग के परम प्रशंसक रहे हैं। आजादी के बाद अनेक बार भारतीय संसद में इस पंचांग की प्रतियां अपनी सत्य भविष्यवाणियों के लिए लहराई गईं। इस पंचांग में व्यासजी द्वारा की गई अनेक भविष्यवाणियां, जो सत्य सिद्ध हुआ करतीं, प्रकाशित हुआ करती थीं। जिनमें भूकंप, विश्वयुद्ध, भारत की स्वतंत्रता, बापू की हत्या, भारत का प्रथम प्रधानमंत्री व प्रथम राष्ट्रपति कौन होगा, कश्मीर के दुर्भाग्य की कथा, चीन द्वारा भारत पर आक्रमण जैसी भविष्यवाणियां दर्ज रहतीं और पंचांग चर्चा में बना रहता। 
 
बहरहाल, कालिदास समारोह के उद्घाटन के बाद चलते समय पंडित नेहरू ने व्यास जी से कहा, 'आजकल मुझे आपका पंचांग नहीं मिल रहा है ?' पंडित व्यास ने मुस्कराते हुए विस्मय से पूछा, 'अरे ! आप भी क्या मेरा पंचांग पढ़ते हैं ?' नेहरूजी ने प्रत्युत्पन्न मति से कहा, 'क्यों पंडित जी क्या आप मुझे पंडित नहीं मानते ?' और एक ठहाका लगाया। 
 
व्यास जी लिखित 'जवाहरलाल जी की धार्मिक धारणाएं' और 'नेहरू के अंतर्मन के विस्मय' जैसे अनेक लेख आज के 'छद्म समाजवादी बुद्धिजीवियों' के बहुत से जाले साफ करने के लिए पर्याप्त हैं।  
 
वर्ष 1942 से उन्होंने उज्जैन से 'विक्रम' पत्र का पुनः प्रकाशन आरंभ किया था । आरंभ में पांच अंकों का संपादन 'पाण्डेय वेचन शर्मा उग्र' ने किया और बाद के सोलह बरस तक 'विक्रम' के संचालक और संपादक पंडित सूर्यनारायण व्यास रहे। दिलचस्प है कि निराला, पंत, बच्चन, दिनकर ही नहीं पंडित नेहरू से लेकर असंख्य राजनेता भी 'विक्रम' के नियमित लेखक थे। नेहरू के दो बेहद चर्चित विवादस्पद लेख जो उन्होंने 'चाणक्य' के छद्म नाम से लिखे थे, भी पहले-पहल मासिक 'विक्रम' में ही प्रकाशित हुए - पहला लेख, 'सावधान यह आदमी कभी भी तानाशाह बन सकता है' तो दूसरा लेख है, 'ये नुमाइशी मिनिस्टर लोग' दोनों लेख आज भी बेहद ज्वलंत, जाग्रत, सामयिक और प्रासंगिक हैं। 
 
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विश्व साहित्य का, राजनीतिक इतिहास का बेहद गहरा अध्ययन किया था। हां, यह अवश्य है कि भारतीय दर्शन, वाङ्मय इतिहास, पुराण, आगम-निगम का उनका अध्ययन वैसा नहीं था जैसा कि पंडित व्यास का। वर्ष 1959 का एक प्रसंग मजेदार है - पंडित व्यास द्वारा स्थापित कालिदास समारोह में जब पंडित नेहरू पधारे तो उनके अंदर का इतिहासकार जागा। उनसे एक बरस पहले ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने तीन दिन तक इस समारोह में हिस्सा लिया था और पंडित व्यास का वह भाषण भी मशहूर हुआ था, जिसमें उन्होंने शासन और सत्ता को लगभग लताड़ते हुए यह कहा था कि 'विश्व कवि कालिदास' पर अब तक भारत में डाक टिकट तक जारी नहीं हुआ है।

तब तक व्यासजी ने अपने निजी प्रयासों से 'सोवियत संघ' में कालिदास पर डाकटिकट जारी करवा दिया था। भारत में ही भारतभूषण और निरूपाराय को लेकर एक बड़ी फीचर फिल्म 'कवि कालिदास' का निर्माण कर चुके थे। पंडित जी ने भारतीय इतिहास पढ़ा तो था पर विदेशी दृष्टि से, इसलिए जब वे भाषण देने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने यह कहा कि अभी तो यह तय होना बाकी है कि कालिदास कब हुए? कहां हुए? कितने कालिदास हुए? उनकी जन्मभूमि और काल पर भी अभी तक विवाद है, इत्यादि-इत्यादि।

इस पर पंडित व्यास ने अपने आभार प्रदर्शन में कहा - 'हमने यहां भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को समारोह के उद्घाटन के लिए बुलाया था, लगता है, गलती से 'इतिहासकार जवाहरलालजी' आ गए हैं। कालिदास कब हुए, कहां हुए ? उनकी जन्मभूमि और काल निर्धारण का काम पंडित जी हम लोगों पर छोड़ दें तो ही श्रेष्ठ होगा, यहां संपूर्णानंद, हजारी प्रसाद जी, सुनीति बाबू बैठे हैं, हम सब मिल बैठकर तय कर लेंगे, अभी तो अगर पंडित जी यह जानते हैं कि कालिदास हुए हैं, या नहीं? तो पर्याप्त है। अगर वे जानते हैं कि कालिदास हुए हैं तो समारोह का उद्घाटन करें और हमें उपकृत करें।' नेहरू जैसे लोकप्रिय और प्रभावशाली प्रधानमंत्री से ऐसी विनोदपूर्ण शैली में आभार प्रकट करना भी व्यासजी के ही बस की बात थी। पर उन दोनों के संबंध घनिष्ठ थे, नेहरूजी जो बड़े तुनकमिजाज भी थे, ने भी बुरा नहीं माना। 
 
इससे पूर्व भी जब वे उज्जैन आए थे तब उनकी अध्यक्षता में व्यासजी ने कुमार गंधर्व का पहला गायन रखवाया था, तब भी बड़े चुहल भरे अंदाज में व्यासजी ने कहा था - 'आओ राजनीति के जवाहरलाल। मैं तुम्हें संगीत के जवाहरलाल से मिलवाता हूं।' उन दोनों में गहरी मित्रता भी थी और मतभेद भी होते थे पर मनभेद कभी नहीं हुए। समाजवाद के प्रभाव में नेहरूजी प्रायः भारतीय दर्शन, इतिहास, पुराण, वेद, मीमांसा, ज्योतिष आदि का उपहास कर देते थे। पंडित जी की ऐसी बातों पर व्यासजी विभिन्न पत्रों के माध्यम से तर्कपूर्ण उत्तर देते थे। एक भेंट में पंडित जी ने कहा भी कि आपके उत्तर बहुत तर्कपूर्ण होते हैं, मुझे देखकर खुशी होती है। 
 
पंडित जी ने 'नेहरू की नक्षत्रों से नाराजगी,' 'पंडित का पंडितों पर प्रकोप', पंडित जी का पीला चश्मा, 'पंडित जी के प्रवचन,' 'पंडित जी और पत्रकार', जैसे अनेक लेखों को बड़े चाव से पढ़ा। आज जब स्वस्थ आलोचना का दौर समाप्त हो गया, तब यह भी बेहद महत्वपूर्ण और दृष्टव्य है कि पंडित जी और व्यासजी के व्यक्तिगत संबंधों में कभी कोई अंतराल नहीं आया। व्यासजी उन्हें भारतीय जनता के 'कृष्ण कन्हैया' कहते तो नेहरूजी भी चुहल करने में, विनोद करने में और व्यंग्य बाण छोड़ने में पीछे नहीं रहते थे। 

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हमारे मालवा के एक राजनेता थे प्रकाशचंद्र सेठी। जब मैं उनसे पहली बार मिला था, वर्ष 1976 में तो उन्होंने मुझसे कहा था - 'हम तो बस दो ही पंडित जी को जानते थे, एक पंडित नेहरू और दूसरे पंडित, पंडित व्यास। अब ऐसे महान लोग ही कहां रहे?'
(किताबघर प्रकाशन से लेखक की 
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'नेहरू नजर' का अंश)

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