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इन्दु बहुगुणा
आज अपने घर से इतनी दूर घर की पुरानी यादों ने घेर लिया है। मैं गोवा में हूँ। याद का कारण यह है कि आज सोमवार 6 अगस्त 2007 का नवहिन्द टाइम्स मेरे सामने है। इसमें धरती जोतते हुए एक आदमी की तस्वीर है। इसमें बैल नहीं घोड़े हल खींच रहे हैं। यह चित्र किसी दूसरे देश का है पर मुझे साठ वर्ष पीछे अपने मायके के गाँव में ले जाता है। इस याद को जिसे हमारी भाषा में 'खुद लगी' या 'नरै लागिरै' कहते हैं। मैं कागज पर बड़े कष्टपूर्वक लिख कर मन हल्का करने का प्रयत्न कर रही हूँ।
सन् 1945 की बात है। मैं तब कक्षा 8 की परीक्षा दे चुकी थी। उस गर्मी की छुट्टी में हम अपने गाँव गए थे। गाँव में हमें मेहमान जैसा आदर मिलता था। छुट्टी पिकनिक जैसी कट जाती थी। संयुक्त परिवार का लाभ हमें अब भूल गया है, जहाँ सुख कितना बढ़ जाता है और दु:ख कितना घट जाता था।
हम सब बहनें मिलकर छह हो गई थीं। एक दिन अकेले में प्राकृतिक सुंदरता के बीच रह रही छोटी चाची के यहाँ जाने का कार्यक्रम बना। उन्होंने कहा था, दो-चार दिन के लिए आना। पर ऐसी आज्ञा नहीं मिली। सुबह जाना और संध्या बेला में लौट आना, ताऊजी ने जोर से कहा था।
चाचाजी प्राय: काम से बाहर रहते थे। चाची बच्चों व एक सहायिका के साथ अकेले रहती थीं। मकान सुंदर जगह पर था। दोनों तरफ दो जलधाराएँ (गधेरे) थीं। खूब फलों के पेड़ थे। कहीं सब्जी तो कहीं फुलवारी भी चाची ने लगाई थी। चाची की उम्र अधिक न थी। लड़कियों के साथ वे भी लड़की बन जाती थीं। मृदुल स्वभाव था।
दो किलोमीटर चलकर हम पहुँचे तो बड़ी-सी केतली में चाय और कड़ाई भर हलुवा रखा था। कहा-निकालो, खाओ।
फिर चाची ने ढेर-सा सामान देकर दीदी लोगों को कहा, बनाओ और खाओ। केवल दिनभर ही हमें रहना है, सुनकर चाची को बुरा लगा था।
उदास हो गई थीं। उन्होंने अधिक दिन के लिए बुलाया था। तब चूल्हा जलता था। सब बहनें काम में लग गईं। खीर, पकौड़े, दाल, भात की तैयारी के साथ-साथ दही या मट्ठे में चावल या उसी तरह का कोई दूसरा अनाज डालकर जो छंछिया जौला बनाते हैं, उसको बनाना था। अब तो टी. वी. के संजीव कपूर की भाषा में उसे कर्ड राइस कहा जाएगा। उसी कर्ड राइस के लिए धनिया के पत्ते, भुना जीरा, खूब सारी हरी मिर्च और नमक सिल पर रखकर किसी ने इस नमक को पीसने की ड्यूटी मुझे दे दी।
मैं नमक पीसने लगी। तभी निकट गाँव की पाँच-छह औरतें आ गईं। 'हम घास के लिए जा रहे थे, तुम्हारे घर में रौनक देखी तो आ गए'। हम मैदानी शहरों के बच्चे तब उन्हें अजूबा लगते थे। 'इतनी बड़ी लड़कियों की अभी शादी नहीं हुई?' वे भी जीभ निकालकर कहतीं। इसी से दीदी लोग गाँव की औरतों से चिढ़ जाती थीं।
मैं किसी तरह नमक पीसने की कोशिश कर रही थी, तभी एक महिला ने कहा- 'अरे ईं नौनी तैं त लोण पीसण को सगोर भी नी च' और सभी मुझे देखकर हँसने लगीं।
(इस लड़की को तो नमक पीसने का भी सऊर नहीं है) चाची ने सोचा कि मुझे उनकी इस बात का बुरा लगेगा। इससे बोलीं- 'ऐसे ही घर जाएगी'। महिला बड़ी तेज थीं। बोलीं 'वख क्या घोड़ा हल जोतला?' (वहाँ क्या घोड़े हल जोतेंगे) उन्होंने व्यंग्य किया। चाची को उनका इस तरह टोकना बुरा लगा और वे इधर-उधर हो गईं।
मुझे याद नहीं पर निश्चय ही मुझे सिल से उठाकर किसी ने वह नमक पीसा होगा। मुझे काम करना नहीं आता था, अब मुझे थोड़ा पश्चाताप भी है और इसी से मैं आगे की पीढ़ी को कहती हूँ, काम सीखो। तुम्हें इतनी भी सहायिका नहीं मिलेगी। मेरी दो बड़ी दीदी थीं। मेरी माँ बहुत ही काम करती थीं। तब सहायक भी पिताजी को मिलते थे। अक्सर कोई विधवा मौसी या ताई या रिश्तेदार महिलाएँ हमारे यहाँ महीनों रहती थीं। इससे अधिक एक कारण यह भी था कि बड़े भाईजी के बाद दो दीदी और मैं तीन बहनें थीं।
मेरे बाद दो भाई हुए, इसलिए मुझे माँ का विशेष प्यार मिला। उस प्यार में उन्हें ध्यान न रहा कि गृहस्थी में काम करना ही होगा।
बात आई-गई हो गई। दिनभर प्रेम पूर्वक बना-खाकर और वापसी में दो किमी के रास्ते के लिए रखकर हम घर आ गए। मुझे उन महिलाओं की बात का जरा भी बुरा न लगा और न ही अपने निकम्मेपन का दु:ख हुआ पर उनकी 'वख क्या घोड़ा हल जोतला' वाली उक्ति मानो मैं भूली नहीं। 1948 में मेरी शादी हो गई। शादी के लगभग एक माह पश्चात मेरे पति का जन्मदिन था। उरद की दाल साफ धोकर मेरी फुफिया सास ने कहा, 'बहू, तू हाथ लगा, शुरू शगुन कर दे।' मेरी फुफिया सास विधवा थीं। उनके शुरू करने से शगुन न होता? यह कोढ़ अभी तक हम छोड़ नहीं पाए। सभ्य समाज में भी लोग विधवाओं को अलग-थलग कर देते हैं।
मुझे कहा गया, सो मैं दाल पीसने बैठ गई। यह अनुमान न था कि यह सब काम अभ्यास से होते हैं। लगता था सिलबट्टा दाल पीसता है, हमारा परिश्रम या अभ्यास नहीं।
मैं तो पीस ही रही थी पर फुफिया सासजी ने हँसकर कहा, 'कोई और पीसो दाल, उसने कभी काम नहीं किया, लगता है ऐसे तो कल तक भी न पिसेगी।' मैं उठ गई। मुझसे न पिसी, इसका बुरा भी लगा। उन महिला की बात बार-बार कानों में गूँज रही थी। क्या वहाँ घोड़े हल जोतेंगे? कितना सार्थक था उनका कहना। बिना किए क्या जीवन चलता है।
बार-बार चाची के घर की व पति के जन्मदिन की बात ध्यान आती रही। तभी मैंने दोनों घटनाएँ, महिला की कटु-उक्ति सहित लिखकर 'धर्मयुग' के स्तम्भ 'एक दिन की बात' में डाक से भेज दी। बहुत शीघ्र ही मेरा छोटा-सा आलेख शायद मई-जून 1948 में ही छप गया था। अच्छा लगा था। 10 रुपए पारिश्रमिक थापर शायद तब 'धर्मयुग' का एक वर्ष का मूल्य भी इतना ही होगा।
तब यह घटना 'एक दिन की बात' में भेजना उन महिला के लिए धन्यवाद करना था पर आज लगभग 60 वर्षों के बाद इतनी दूर गोवा के समाचार पत्र में छपा यह चित्र उन्हें दिखाने का मन है। मिलतीं तो मैं व्यंग्य से नहीं, हँसकर कहती, 'देखो घोड़े भी हल जोतते हैं' और सुना है कि अब लोग मनुष्यों से विशेषकर स्त्रियों से भी हल लगवाते हैं।
साभार : उत्तरा