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श्रीलाल शुक्ल : नई उद्भावनाओं के प्रवर्तक

हमें फॉलो करें श्रीलाल शुक्ल : नई उद्भावनाओं के प्रवर्तक
- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

जन्म : 31-12-1925
मृत्यु : 28-10-2011

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बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के हिन्दी कथाकारों में मूर्धन्य माने जाने वाले श्रीलाल शुक्ल का शुक्रवार सुबह ग्यारह बजे 86 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे पिछले हफ्ते गंभीर रूप से बीमार हो गए थे और लखनऊ के सहारा हॉस्पिटल में भर्ती थे। पार्किंसन और फूड पाइप में गड़बड़ी के प्रारंभिक लक्षणों के बाद उत्तरोत्तर उनकी हालत बदतर होती गई।

यद्यपि उनका देहांत हो गया है, पर हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद के बाद अमृतलाल नागर, यशपाल और फणीश्वरनाथ रेणु के समान ही उत्कृष्ट साहित्य सृजन के कारण वे अविस्मरणीय बने रहेंगे।

अपनी विशिष्ट कथनभंगी, यथार्थ को उद्घाटित करने वाली वक्रोक्तिपूर्ण कथावस्तु और देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन की विसंगतियों की पहचान की वजह से 'राग दरबारी' की विशिष्टता हमेशा के लिए रेखांकित होती रहेगी। इस महान कथाकृति के संदर्भ में यथार्थग्राही रचनाधर्मिता की दृष्टि से वे नई उद्भावनाओं के प्रवर्त्तक माने जाएंगे।

उनका पहला उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) उनकी कथायात्रा का प्रारंभिक प्रयास होने के बावजूद स्वाधीन भारत की खेतिहर आबादी के उत्पीड़न की मिसाल के रूप में एक भूमिहीन मजदूर के बेटे रामदास के संघर्ष की यातनाप्रद कहानी प्रस्तुत करता है।

रामदास छठी कक्षा का छात्र है। इसी बीच गांव के सामंत ठाकुर साहब के हुक्म की तामील करते-करते उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। अनाथ रामदास ठाकुर की कृपा पर निर्भर है। बाप की बलि ले लेने के बावजूद ठाकुर रामदास के बारे में कहते हैं : 'यह टुकड़खोर फीस के पैसे मांगता है। क्या इसके बाप ने कमाकर दिया था?'

ठाकुर की नसीहत है स्कूल से नाम कटा ले, भैंस चराए, भीख मांगे या फिर अपनी औकात के अनुसार कुत्ते जैसा पड़ा रहे।

1957 के आसपास हिन्दी में शहरी मध्यवर्ग के अंतर्विरोध और स्त्री-पुरुष संबंध ही कथा के केंद्र में थे। ऐसे जमाने में भूस्वामित्व के उन्मूलन और देहाती जीवन के लोकतांत्रिक रूपांतरण का आख्यान प्रस्तुत करना कथा सृजन की नई कार्यसूची पेश करने जैसा था। यानी प्रारंभ से ही श्रीलाल शुक्ल हिन्दी कथालेखन की कार्यसूची पर नए कार्यभार की ओर इंगित कर रहे थे।

1968 में प्रकाशित 'राग दरबारी' के पहले 'अज्ञात वास' आ चुका था, किंतु आजाद हिन्दुस्तान की तीखी सचाइयों के आख्यान के लिए जैसी कथाशैली श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में आविष्कृत की थी, उसके परिणामस्वरूप यह उपन्यास हिन्दी तथा हिन्दी से इतर भाषाओं के पाठकों के लिए मानो हकीकत को समझाने वाली गीता बन गया। इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ और इस उपन्यास पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी श्रीलाल जी को मिला।

झूठ, फरेब और मक्कारी को उघाड़ कर सचाई अपने नंगे रूप में 'राग दरबारी' के माध्यम से सामने आ गई थी। बाद में आदमी का जहर (1972), सीमाएं टूटती हैं (1973), मकान (1976), पहला पड़ाव (1987) जैसे उपन्यासों की रचना के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते रहे। पर 1998 में प्रकाशित 'बिश्रामपुर का संत' और 2001 में प्रकाशित 'राग-विराग' इन दोनों उपन्यासों की कथावस्तुओं और पात्रों के चयन के माध्यम से फिर उन्होंने नए प्रस्थानबिंदु बनाए। पहले में सामंतवाद की अकड़न-जकड़न और जुगुत्सापूर्ण यौन आकांक्षाओं के माध्यम से भूदान आंदोलन का आलोचनात्मक भाव्य प्रस्तुत किया गया है। और दूसरे उपन्यास में सवर्ण समाज की ऐंठन तथा दलितों के बीच पनपते विचारधारात्मक दृष्टिकोण के द्वंद्व की कथा एक ट्रेजेडी का सृजन करती है यानी सुकन्या और शंकर के प्रेम की ट्रेजेडी।

दूसरी तरफ अंग्रेजी तथा योरप की अन्य भाषाओं के अद्यतन साहित्य का उन्हें व्यापक रूप में ज्ञान था- चाहे शेक्सपियर हों, चेखव हों, हेमिंग्वे हों, गुंटरग्रास हों या सार्थ और काफ्का की क्यों न हों।

10 अक्टूबर 1992 के दिन लेखक संघ के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन (जयपुर) में उद्घाटन भाषण के एक अंश को उद्धृत कर आज के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं : 'इस समाज में जूझने की, प्रतिकार करने की अकूत शक्ति है। पर सारे प्रचार माध्यम उसे बहलाकर समझौता करने की ओर और अपनी असहायता की दुरंत स्थिति के सामने मजबूर बने रहने की ओर ढकेलते हैं।

ऐसे समाज का लेखक अगर उसकी नियति से, उसके संघर्षों से कटकर सिर्फ कला की स्वायत्तता की बात करे या संपन्न पश्चिमी देशों की वायवीय कला प्रवृत्तियों की नकल में ऐसे लोकोत्तर या यथार्थेतर साहित्य की रचना में प्रवृत्त हो जिसका आज के जनजीवन से कोई लेना-देना न हो, तो वह अपने को एक महान दिक्कालातीत लेखक भले ही मान ले, उसकी हमारे लिए कोई सार्थकता नहीं है।'

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