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हँसाता था, रूलाता हुआ रूखसत हुआ!

ख्यात हास्य कवि ओम व्यास 'ओम' को श्रद्धांजलि

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रवींद्र व्यास

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उम्मीद थी कि जिंदगी में वे फिर लौट आएँगे। अपनी हास्य कविताओं से एक बार फिर सबको गुदगुदा जाएँगे। अपनी किसी चुटीली बात से जिंदगी का सहज मर्म और अर्थ बता जाएँगे। लेकिन वे लौट नहीं सके। ख्यात हास्य कवि पंडित ओम व्यास ओम का दिल्ली के अपोलो अस्पताल में सात जुलाई को निधन हो गया। कुछेक बरसों में उन्होंने अपनी अनूठी शैली और मालवी लोकरंग में रंगी कविताओं से श्रोताओं के दिल में जगह बनाई ही थी कि यह हादसा हो गया।

आठ जून को वे विदिशा में बेतवा महोत्सव में शिरकत कर लौट रहे थे और एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे। इस दुर्घटना में कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़सिंह गुर्जर की मृत्यु हो गई थे। ओम जी ‍दिल्ली के अपोलो अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्षरत थे।

खामोश हो गया एक ठहाक
मालवी कवि नरेंद्रसिंह तोमर यह खबर सुनकर स्तब्ध हैं। कहते हैं-कितना अच्छा कवि और प्यारा इन्सान था। बात कहने की उनकी आत्मीय और अनौपचारिक शैली बड़ी मजेदार थी। अपनी कविताओं के जरिए वे मालवी को लोकप्रिय कर रहे थे। उनकी हास्य कविताओं में गहराई थी।

जबकि मालवी कवि नरहरि पटेल मानते हैं कि मालवा की जमीन से उठकर इस कवि ने प्रदेश ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मालवी कविता की धाक जमाई। कुंजबिहारी पांडे और भावसार बा के बाद उन्होंने मालवी कविता का नाम रोशन किया।

मशहूर शायर-गीतकार राहत इंदौरी तो कहते हैं कि बहुत ही कम अरसे में उन्होंने कविता में तरक्की की । बहुत कम फनकार ऐसे होते हैं जिन्हें इतनी जल्दी कामयाबी हासिल होती है। उनकी कविताएँ हँसाती थी लेकिन वे बहुत ही गहरे और संजीदा इंसान थे। वे भारत-पाक सरहदों और हिदू-मुस्लिम मुद्दे पर साफ नजरिया रखते थे। हमेशा हँसाने की कोशिश करता यह कवि अब रूलाता हुआ ऱुखसत हो गया। यह सिर्फ मेरा निजी नुकसान ही नहीं, हास्य कविता का ही नहीं बल्कि साहित्य का नुकसान है।

संस्कृतिकर्मी संजय पटेल कहते हैं कि पं. ओम व्यास ’ओम’ मेरी नज़रों में उन प्रतिभासम्पन काव्य-शिल्पियों में शुमार किए जा सकते थे जिनमें मंच की गरिमा और श्रोता की पसंद का पूरा ख़याल रहता था। उनके जाने से मालवा में एक ठहाका ख़ामोश हो गया। चार-पाँच बरसों में देश के प्रतिष्ठित हिन्दी मंचों पर छा गए थे और नगर-नगर एक जाना पहचाना नाम बन रहे थे। इस बात का दर्द भी था कि अमूमन उन्हें मंचीय ज़रूरत के लिये चटपटी रचनाएँ सुनानी पड़तीं है जिन्हें वे चूरण कहा करते थे और उम्मीद करते थे कि स्थापित होने के बाद वे अपनी स्तरीय हिन्दी कविताओं को लेकर काम शुरू करना चाहेंगे। आयोजक उनकी उपस्थिति को लेकर हमेशा आश्वस्त रहता था कि कोई और कवि जमे न जमे ओम तो मजमा संभाल ही लेंगे।

अमिताभ बच्चन भी उनके दीवाने थे
हास्य कविता के शीर्ष कवि अशोक चक्रधर ने दिल्ली से कहा कि ओमजी में अपनी प्रतिभा क्षमता के बलबूते तेजी से उभर रहे थे। उनकी वाणी में मालवा का लोक रंग था और संप्रेषण की अद्भुत क्षमता थी। उनके अंदाज में, हलके-फुलके कथनों में जीवन की गहराई थी। समाज की विकृतियों पर उनकी पैनी नजर थी। मुझे अमिताभ बच्चन का एसएमएस मिला। अमिताभ उनकी कविता और अंदाज से प्रभावित थे। उनकी कविताएँ सुनकर अमिताभ खूब हँसे थे और मुझसे ओम जी के बारे में पूछते रहते थे कि उनकी तबियत अब कैसी है।

ओम जी की माँ कविता उन्हें खासतौर पर बहुत पसंद आई थी। उनकी मौत की खबर सुनकर दिल्ली में तमाम कवि-बिरादरी इकट्ठा हो गई है। जाहिर है उन्होंने कवियों के साथ ही श्रोताओं का अपना एक बड़ा कुनबा बना लिया था। दिल्ली के ही कवि अरूण जैमिनी का गला रूंधा हुआ था। बड़ी मुश्किल से वे कह पाए कि ओमजी में अपने परिवार के लिए जितना प्रेम था उतना मैंने किसी दूसरे कवि में नहीं देखा। वे जहाँ जाते छा जाते। उनका जाना बहुत तकलीफदेह है। उनसे कोई भी मिलता तो सारे तनाव दूर हो जाते थे।

जयपुर के हास्य कवि और टीवी कलाकार शैलेष लोढ़ा उनके सोलह-सत्रह बरसों से साथी रहे हैं। वे कहते हैं कि उनकी खिलखिलाहटें याद आ रही हैं। उनमें गजब का ऑब्जर्वेशन था। कविता में स्थानीयता की डिटेल्स लाजवाब थीं। वे मंच पर जितना हास्यमय थे उतना ही जिंदगी में भी। यह संभव ही नहीं था कि कोई उसके पास बैठे और उदास हो। हास्य उनकी जिंदगी ही था। हास्य ही उनकी जीवंतता थी। मुझे विश्वास था कि वह जी जाएँगे लेकिन ईश्वर को यही मंजूर नहीं था शायद।

कोई सुमड़ा तो नहीं बैठा है!
ओम भाई कविता पाठ शुरू करने के पहले दाद बटोरने के लिए एक नवेला रूपक गढ़ रहे थे। वे कहते थे मैं आपके शहर में काव्यपाठ से आने के पहले उज्जैन के विश्व्व प्रसिध्द महाकाल मंदिर गया था। वहाँ भगवान महाकाल से भेंट हो गई। तो महाकाल मुझे बोले- ओम, जो तेरे कविता पाठ में सुमड़ा जैसा बैठा रहे और दाद न दे तो उज्जैन आकर मुझे सिर्फ़ उसके शर्ट का रंग बता देना, बाक़ी मैं देख लूँगा। ऐसा कहते ही पं.ओम व्यास की बात पर तालियाँ और ठहाके गूँज उठते थे।

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