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मन्नू भंडारी : रजनीगंधा एक ख़ुशबू का नाम है, और ख़ुशबू कभी नहीं मरतीं..

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पंकज सुबीर

जब साहित्य जगत से नाता जुड़ा तो कुछ नाम ज़ेहन में ऐसे थे, जो सितारों की तरह चमकते थे। उन नामों से मिलने की इच्छा मन में किसी स्वप्न की तरह बसी रहती थी। उन नामों में से एक नाम मन्नू भंडारी जी का भी था।

'आपका बंटी', 'महाभोज' कई-कई बार पढ़े जा चुके थे। उनकी कहानी 'यही सच है' पर बनी फ़िल्म 'रजनीगंधा' के गीत, उस फ़िल्म में विद्या सिन्हा का अभिनय और एक बिलकुल अलग सी कहानी, इन सबके कारण वह फ़िल्म भी मन में बसी हुई थी। और ज़ेहन में थीं पाठ्यक्रम में पढ़ी गईं उनकी कहानियां।

इन सबके कारण मन्नू जी से मिलने की एक प्रबल इच्छा मन में बसी हुई थी। इस अवसर के लिए बहुत लम्बा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। दिसम्बर 2010 में भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मेरे उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' को मिला और इस प्रकार मेरा पहला उपन्यास सामने आया।

वर्ष 2011 में इसी उपन्यास को हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका 'पाखी' ने 'जे सी जोशी शब्द साधक सम्मान' प्रदान करने की घोषणा की। साथ ही 'हंस' के संपादक और सुप्रसिद्ध लेखक राजेन्द्र यादव जी को 'शब्द साधक शिखर सम्मान' भी देने की घोषणा की गई।

सम्मान समारोह दिल्ली के हिन्दी भवन में 27 अगस्त को आयोजित हुआ। राजेन्द्र जी के जन्मदिन से एक दिन पहले और इस अवसर पर राजेन्द्र जी पर 'पाखी' का विशेषांक भी प्रकाशित हुआ। मैं जब कार्यक्रम स्थल पर पहुंचा, तो मेरे लिए दिल्ली के साहित्य समाज से मिलने का वह पहला ही अवसर था।

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे एक छोटे से क़स्बे के मिट्टी के दीपक को तारों से जगमगाती आकाशगंगा में लाकर रख दिया गया हो। मैं थोड़ा नर्वस था, और बहुत सकुचा कर लोगों से मिल रहा था। मिलने-जुलने के दौरान ही मुझसे किसी ने कहा कि श्रोताओं में प्रथम पंक्ति में मन्नू भंडारी जी बैठी हैं और वो आपसे मिलना चाहती हैं, कई बार कह चुकी हैं कि पंकज सुबीर आए तो मुझसे मिलवा देना।
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मैं एक नया लेखक यह सुनकर ही घबरा गया, स्वप्न एकदम से सच होकर सामने आ जाए, तो कोई क्या भौंचक्का होने के अलावा कर ही क्या सकता है। मैं जिनसे मिलने का स्वप्न संजोए बैठा था, वो ही मुझसे मिलना चाहती हैं, जिन्हें मैं पढ़ता रहा, वो मुझसे मिलना चाहती हैं, कहीं यह सचमुच ही स्वप्न तो नहीं?  घबराया हुआ मैं अग्रिम पंक्ति में पहुंचा, राजेंद्र यादव जी, नामवर सिंह जी और मन्नू भंडारी जी तीनों वहां बैठे थे। मैं सीधा मन्नू जी के पास गया और उनके पैर छूकर कहा 'मैं पंकज सुबीर'।

मेरा नाम सुनते ही उनकी आंखों में चमक आ गई, उन्होंने बहुत स्नेह के साथ मुझे देखा और कहा "तुम्हारा उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' पढ़ा, पढ़ने के बाद से ही तुम्हारी पीठ थपथपाना चाह रही थी, शाबास! बहुत अच्छा उपन्यास लिखा है। तुम्हारा नम्बर नहीं था, इसलिए कॉल नहीं कर पाई।" मैं स्तब्ध सा खड़ा था, कुछ बोलने की स्थिति नहीं थी मेरी। इतनी भी नहीं कि उनको धन्यवाद दे दूं। अंदर से आंसू उमड़ रहे थे, मगर उनको भी रोकना था।

पहली बात तो यह कि मन्नू भंडारी जी ने मेरा उपन्यास पढ़ा, यही बात किसी नए लेखक के लिए बहुत बड़ी होती, मगर नहीं पढ़ा और उनको पसंद भी आया। फिर यह कि वो स्वयं लेखक को बधाई देने के लिए तलाश रही थीं। कुछ क्षण को मैं पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रहा, फिर उन्होंने ही कहा 'कार्यक्रम के बाद मिल कर जाना'। मैं किसी यंत्र मानव की तरह वहां से चल कर पीछे की पंक्ति में आकर बैठ गया। जिस सम्मान को प्राप्त करने आया था, उससे बड़ा सम्मान मेरे उपन्यास को मिल चुका था।

बाद में कार्यक्रम के बाद चलते-चलते उनसे बहुत बातें हुईं। बात करते-करते वे खिलखिला कर हंस देती थीं। कैसी अद्भुत हंसी थी उनकी। मृदुला गर्ग जी और मन्नू जी के साथ मैं कार्यक्रम स्थल के बाहर तक आया। बाहर आकर मन्नू जी ने कहा 'मेरा नंबर ले लो, बात करना। कुछ नया लिखो तो भेजना।'
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वहीं खड़े होकर उन्होंने मेरे मोबाइल में अपना नंबर फीड करवाया। मैं सच में उस दिन किसी यंत्र मानव की तरह ही काम कर रहा था। या ऐसा लग रहा था कि यह सब कुछ स्वप्न में हो रहा है। कोई सपना इस प्रकार भी पूरा होता है क्या, कि जो कुछ मांगा था, उसका दस-बीस गुना होकर स्वप्न साकार हो जाए।

बाद में अक्टूबर 2016 में 'झंकार' पत्रिका के लिए पत्रकार और लेखक स्मिता को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने 'आज के लेखकों के बारे में आपकी क्या राय है?'  प्रश्न के उत्तर में कहा 'ईमानदारी से बताऊं तो आज के लेखकों को मैंने बहुत पढ़ा नहीं है। कई लोग उनके बारे में पूछते थे। मैंने एक बार रवीन्द्र कालिया से कुछ नए कथाकारों की रचनाएं भेजने को कहा। उन्होंने आठ किताबें मेरे पास भेज दीं। अफसोस मुझे उन सभी में से केवल एक किताब पंकज सुबीर का उपन्यास ही अच्छा लगा।' मन्नू भंडारी जी द्वारा इस तरह से कहा जाना मेरे जैसे नए लेखक के लिए तो एक प्रमाण पत्र था, एक सनद थी, जिसको मैंने अभी तक अपनी स्मृति में सुरक्षित रखा हुआ है। और कहा भी किस प्रकार? कहीं व्यक्तिगत बातचीत में नहीं, बल्कि सार्वजनिक रूप से कहा, एक पत्रिका में प्रकाशित साक्षात्कार में कहा।

एक और वाक़या याद आ रहा है। सीहोर में शासकीय कॉलेज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डॉ. पुष्पा दुबे ने एक बार बताया था कि उनकी कोई परिचित महिला जिनका अपने पति से तलाक़ हो चुका था, तथा जो अपने किशोर बेटे के साथ अलग रहती थीं, दूसरी शादी करना चाह रही थीं। लेकिन वे ऊहापोह में थीं, किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थीं। उन्होंने पुष्पा जी से परामर्श लिया।

पुष्पा जी ने कुछ नहीं कहा, बस अपने पुस्तकालय से मन्नू भंडारी जी का उपन्यास 'आपका बंटी' निकाल कर उन्हें दिया और कहा कि इसे पढ़ लो फिर बात करते हैं। उन महिला ने उपन्यास पढ़ा और जब वे उपन्यास वापस करने पुष्पा जी के पास आईं, तो वे अपना निर्णय ले चुकी थीं, कुछ दिन प्रतीक्षा करने का। बेटे के ठीक-ठाक रूप से सब कुछ समझने लायक़ हो जाने का। यह पूरा प्रकरण मेरे संज्ञान में एकमात्र प्रकरण है, जहां किसी साहित्यिक पुस्तक ने किसी को अपने जीवन के सबसे जटिल और कठिन निर्णय को बहुत आसानी के साथ लेने का रास्ता सुझाया। इससे पहले ऐसा केवल धार्मिक तथा आध्यात्मिक पुस्तकों के बारे में ही सुना था कि उन्होंने इस प्रकार किसी का पथ प्रदर्शन किया।

मन्नू भंडारी जी से उसके बाद दूसरी मुलाक़ात तब हुई, जब मुझे हंस पत्रिका द्वारा "राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान" प्रदान किया गया था। वर्ष 2016 में मुझे 'हंस' में प्रकाशित मेरी कहानी 'चौपड़े की चुड़ैलें' के लिए 'राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान' दिए जाने की घोषणा की गई। यह आयोजन 28 अगस्त 2016 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सभागार में आयोजित हुआ। हंस के कार्यक्रम वैसे भी गरिमामय और समृद्ध होते हैं। वह सभागार दिल्ली के साहित्यकारों, पत्रकारों, रंगकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से खचाखच भरा हुआ था।

मन्नू भंडारी जी अस्वस्थ होने के बाद भी उस कार्यक्रम में आयी थीं। रचना यादव जी उनको लेकर आई थीं। वे केवल सम्मान प्रदान करने आई थीं। सभागार में मन्नू जी जी के हाथों वह सम्मान प्राप्त करना मेरे जीवन का एक बड़ा अवसर था। जो स्वप्न मैंने देखा था, यह उसका हज़ार गुना होकर मुझे मिल रहा था। "आपका बंटी", "महाभोज" की लेखक मन्नू भंडारी जी के हाथों से राजेंद्र यादव जी के नाम पर 'हंस' पत्रिका द्वारा स्थापित सम्मान प्राप्त करना किसी सपने जैसा था। मुझे अभी तक याद है उन्होंने मेरे कंधे पर शॉल रखते हुए धीरे से कहा था "अच्छा लिख रहे हो तुम, ऐसे ही लिखते रहना।" ये शब्द आज तक मेरे कानों में गूंज रहे हैं और आज जब मन्नू जी नहीं हैं, तब सोच रहा हूं कि इन शब्दों को फ़्रेम करवा कर अपने अध्ययन कक्ष में टांग लूं, ताकि लिखने की प्रेरणा इन शब्दों से मिलती रहा करे।
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मन्नू जी अब नहीं हैं, मगर लेखक तो कभी नहीं मरता, वह तो अपने किरदारों, अपनी किताबों, अपने विचारों और अपने शब्दों के माध्यम से हमेशा हमारे साथ ही रहता है। कुछ दिनों पूर्व विद्या सिन्हा की मृत्यु हुई और अब रजनीगंधा का वह अद्भुत किरदार रचने वाली मन्नू जी भी हमारा साथ छोड़ कर चली गईं। मगर 'दीपा कपूर' का किरदार सदैव हमारे साथ बना रहेगा। उस कहानी को पढ़ते समय रजनीगंधा के फूल मानों हमारे आसपास महकने लगते हैं। किस ख़ूबसूरती के साथ मन्नू जी ने स्त्रीमन और रजनीगंधा को एक साथ रचा है कहानी में। और दीपा कपूर के रूप में विद्या सिन्हा ने किस कमाल के साथ उस पात्र को जीवंत कर दिया।

बासु चटर्जी जैसे जीनियस निर्देशक का भी कमाल है इन सब में। रजनीगंधा एक ख़ुशबू का नाम है, और ख़ुश्बुएं कभी नहीं मरतीं, वह हमारी घ्राणेंद्री में नहीं बसतीं, वह तो वहां से होकर हमारी स्मृतियों में बस जाती हैं। मन्नू भंडारी जी ने जो कुछ लिखा, वह सब कुछ रजनीगंधा की ख़ुशबू की तरह हमारे साथ रहेगा, सदियां बीत जाएंगी मगर यह रजनीगंधा महकती रहेगी... महकती रहेगी... महकती रहेगी।
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