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एक शहर जो मेरे भीतर रहता है

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हमें फॉलो करें निदा फाजली
निदा फाजली
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ग्वालियर का नाम लेने पर अब पहले जैसी यादें नहीं घुमड़ती। पर जिन दिनों मैं मुंबई पहुँचा था उन दिनों ग्वालियर की गलियाँ मुझे सुबह-शाम याद आती थीं। मुझे लगता कि मेरा शहर मुझे पीछे खींच रहा है। वक्त के साथ इस शहर की गलियों ने मुझे बुलाना बंद कर दिया। यह सभी के साथ होता है, कि कोई बस्ती, नगर या शहर जब आपसे छूट जाता है, तो कुछ दिन तो वो आपका इंतजार करता है फिर उठकर कहीं और चला जाता है।

आपके साथ रहने वाले, मिलने-जुलने वाले बिखर जाते हैं। वक्त का हिसाब-किताब आँखों से गायब होकर कोने-खुदरों में, पेड़ के पीछे, किसी खिड़की के पीछे, कहीं छत के ऊपर पटक दिया जाता है। जब भी कभी आप उस जगह से गुजरते हैं तो यह छुपा वक्त ही कुछ यादों को ताजा कर पाता है।

ग्वालियर की याद अब मेरे लिए बस इतनी भर ही बाकी है कि कभी वहाँ की हवा में मेरे बचपन ने साँसें ली थी। वक्त के साथ फिर यह शहर भी तो अब पहले जैसा नहीं रहा। कितना कुछ बदल गया है! बदलना भी था। बदलना तो कुदरत का नसीब ठहरा। वक्त का पहिया लगातार घूमते हुए चीजों को बदलने का ही तो काम कर रहा है। बस, उनकी यादें हमारे साथ रहती है।

मैं ग्वालियर से मुंबई क्यों और कैसे पहुँचा यह सवाल मुझसे कई बार पूछा जा चुका है। इस बारे में जवाब भी एक ही है कि हवाएँ ही मुझे ग्वालियर से मुंबई ले गईं। वरना मैं कहाँ जाना चाहता था अपना शहर और उसकी गलियाँ छोड़कर! इसी बात को मैंने अपने एक शेर में भी कहा हैः

'अपनी मरजी से कहाँ अपने सफर के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं'

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ग्वालियर की गलियों को छोड़कर मेरा जाना मेरी जरूरत थी। जरूरत ना होती तो कौन जाना चाहता है मुहब्बत की गलियों को छोड़कर। उन गलियों को, जहाँ पहली मुहब्बत हुई हो, जहाँ कविता और किसी नज्म ने पहले-पहल छुआ हो और जहाँ की हवाओं की खुशबू से एक रिश्ता रहा हो। मुझे लगता है जो भी अपना शहर छोड़ते हैं, उनके मन में अपना शहर हमेशा धड़कता रहता है।

वैसे मैं अपने शहर से बहुत ज्यादा दूर तो नहीं हूँ पर अब बहुत चाहने पर भी ग्वालियर आना नहीं हो पाता है। यह ऐसे ही है कि :

'न जाने कौन से लम्हे की बद्दुआ है ये
करीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं।'

वैसे अब जब कभी इस शहर को जाता हूँ तो खुद को पुराने ग्वालियर के बजाए किसी और ही जगह पर पाता हूँ। जिस ग्वालियर को मैं छोड़कर गया था वह नहीं मिलता। मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि यादों के चेहरे नहीं होते, उनकी आहटें होती हैं। ग्वालियर अब ऐसी आहटों और आवाजों का नगर बन गया है मेरे लिए। किसी फुर्सत में सोचता हूँ तो याद आता है कि यही वह शहर है जिसने मुझे बनाया। इस शहर में बचपन के दिनों में देखे गए पक्षी, खाला और मौसी, कोई सड़क और कोई छत पता नहीं कब-कब भीतर दाखिल और दर्ज होती गई।

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मुझे ठीक याद है कि मेरा घर नई सड़क पर हुआ करता था। इससे कुछ ही दूर पर छाया टॉकीज था। मुझे याद है इस टॉकीज में कई फिल्में देखीं। अब वो टॉकीज भी अपनी जगह पर नहीं है, पर वहाँ से गुजरते हुए मुझे उस टॉकीज के साथ जुड़ी सारी बातें याद हो आती हैं। मेरा घर जहाँ था वहाँ दो पेड़ थे। एक घर के आगे और एक घर के पिछवाड़े। हम इन पेड़ों को 'दादा' और 'मामा' कहते थे। दिन में ये घर का पहरा करते थे और रात में कुत्ते। कुत्तों की आवाजों के बीच भी नींद आ जाती थी।

चीजें चली जाती हैं। बस, उनके लिए हमारे अंदर कुछ अहसास छोड़ जाती हैं। ये अहसास ही बाकी रह जाते हैं। हम चाहकर भी उन चीजों को दुबारा नहीं देख सकते हैं। इसलिए जिंदगी जब है, जहाँ है और जैसी है उसे उसी हाल में शिद्दत से जिओ। मैं पीछे पलटकर देखने पर यही पाता हूँ। यही जिंदगी का फलसफा है।

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