उसकी कोख में बीता मेरा पहला जीवन। यदि मैं याद कर सकता तो शायद जान जाता ताकत और नजाकत उस परवरिश की, जो लपटों की नोक पर भी फूल को मुर्झाने नहीं देती। न मेरी माँ अनोखी थी, न मैं उसका अनोखा बेटा। उसके लिए कुछ भी औपचारिक कहने की जगह कहाँ ममता के इलाके में! फिर माँ को याद करने का कोई अलग दिन कैसे हो सकता है?
"मेरे मस्तिष्क में तो रेंगता रहता है अमर चिऊंटियों का दस्ता। माँ वहाँ हर रोज चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती है।"
माँ लगभग 25 वर्ष पूर्व मरकर यादों में अमर हो गई। पर उससे कई बार, कई तरह से मुलाकात होती रहती है। बचपन में उसने कहा था-'दक्खिन की तरफ पाँव करके मत सोना, वह यमराज की दिशा है। मृत्यु के देवता को नाराज करना अच्छा नहीं।' आज जिधर भी पाँव करके सोओ, वहीं दक्षिण दिशा, सभी तरफ यमराज, केवल माँ नहीं। फिर इस क्षण माँ को याद करना मेरे लिए उस फड़फड़ाते, थके परिंदे की तरह है जो स्मृतियों के थपेड़ों में फॅंसे जहाज पर पँख समेटने की कोशिश कर रहा है।
'माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए, देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया।'
माँ गए साठ सालों में कई बार मेरी कविताओं में आई। दुनिया के बड़े कवियों की कविताओं से भी झाँकती दिखीं पर नहीं लगता कोई माँ पर मुकम्मल कविता लिख पाया हो। धरती और माँ की खुशियों, उम्मीदों, तकलीफों और सिसकियों के बीच रहना फिर-फिर जन्म लेने जैसा लगता है। आज भी मैथी-बथुआ-बेसन की सब्जी खाते खाना परोसती माँ, जैसे कहने लगती है-' तू वैसा ही चटोरा है अभी तक' ।
सिर्फ एक बार मेरे कविता पाठ में उपस्थित थीं अम्माजी। 1974 की शरद पूर्णिमा। वीर सार्वजनिक वाचनालय की छत पर था मेरा एक व्यक्तिय कविता पाठ। 'माँ जब खाना परोसती थी' कविता सुनाते हुए मैंने छत पर दीवार से सटी बैठी अपनी मॉं को देखा तो वह आँखें पोंछ रही थी। ये आँसू मेरी कविता में कभी सूख नहीं सकते।
एक छवि 1942 के दिनों की है, जिसमें अभाव, गुस्से और ममता की त्रिवेणी इन सूखे दिनों में भी आँखों से बहने लगती है। मेरी माँ ने जाड़े की भर दोपहर ओटले पर मेरे बड़े भाई को, जो उस वक्त मुझसे बड़ा बच्चा था, कसकर थप्पड़ मारा था। भाई देर तक फफक-फफककर रोया और वह जब चुप हो गया, एकदम शांत तो मैंने देखा, अब माँ रो रही थी बिन आवाज, जैसे महीन किसी चीज को कोई घट्टी में बड़ी जुगत से पीस रहा हो। मुझसे कहा गया- मैं अपने पिता से इस बारे में कुछ न कहूँ।
दूसरे दिन मैंने पैसे चुराने की तरकीब भाई को बताई। भाई ने माँ को बता दिया। माँ ने मेरी कुटाई की। मार खाता रहा मैं, नहीं रोया, घुन्ना बना रहा और माँ इस पर बहुत हँसी। तीसरे दिन माँ ने हमें दो पैसे के गोलगप्पे खिलाए। हमने खाए। अब याद नहीं हम खुश थे या खाते हुए भी गुस्से में चढ़े थे हमारे थोबड़े।
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पिता 1928 में बैतूल जिले के एक गाँव से गुड्स क्लर्क बन इंदौर आ बसे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में मेरी माँ, जिसे हम अम्माजी कहते थे, मेरे सबसे बड़े भाई के दोस्तों की भी अम्माजी हो गई थी, जो सब आजादी के लिए छात्र आंदोलन में सक्रिय थे। भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' की माँ से एकदम भिन्न थी मेरी माँ। पहले बड़े भैया के सभी साथी अम्माजी को ही पुकारते थे। वे ही सभी के चाय-नाश्ते की व्यवस्था खुशी-खुशी करती थीं। नंदकिशोर भट्ट, बाबा भवरास्कर, प्रभागचंद्र शर्मा जैसे कुछ नाम याद आ रहे हैं। फिर भाई आठ माह जेल में रहे तो कई बार माँ के साथ तीज-त्योहार खाने का टिफिन लेकर मैं भी सेंट्रल जेल गया। बेड़ियों की खनखनाहट, स्वतंत्रता की पुकार के बीच माँ के हाथ के बनाए खाने की तारीफ होती थी।
कविता पढ़कर माँ ने बचा लिया प्रसंग 1960 का है। मैं हिन्दी एमए प्रथम श्रेणी हो चुका था और आठ-दस महीनों से बेकार भटक रहा था। और भी वजहें थीं कि आत्महत्या की बात बार-बार मन में आती। इसी इरादे को अंजाम देने से पहले मैंने एक कविता लिखी ' मेरे मरने के बाद' । उसमें यह भी था कि ' रामू पान वाले के दो सौ रुपए चुका देना कैसे भी/बेचारे ने बिन पैसे माँगे बेकारी के ध्वस्त दिनों में/पान खिलाए हैं मुझको।'
कविता मेरे बड़े भाई के हाथ लग गई और उन्होंने माँ को सुना दी। माँ बहुत रोई-धोई और चुपचाप पान वाले का हिसाब चुकता करके आ गई। इस तरह संतप्त माँ को देखने के बाद कोई कैसे मर सकता था! तो कविता और माँ के कारण बचा और ऋण-मुक्त भी हुआ। माँ इंदौर में साठ बरस ऐसे रही जैसे गाँव में ही है। उसके ही कारण मुझमें देहात के होने का थरथराता अहसास आज भी जीवित है। और इस अहसास ने मुझे सफलता के भ्रम, बौद्घिक अहंकार और चाटुकारिता के त्रिदोषों से बचाया है।