मैं कन्हैयालाल तिवारी उर्फ कन्हैयालाल नंदन वल्द यदुनंदन, साकिन मौजा परसदेपुर, परगना बिंदकी, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) आज की तारीख में बड़ी मुहिम पर निकलने की कोशिश कर रहा हूँ और मुहिम यह कि अपने जीवन को, व्यक्तियों, घटनाओं और खुशियों और गमों के बीच से गुजरकर याद करते हुए, देख सकूँ कि आखिर क्या खोया-क्या पाया।
बहुत बार सोचा कि आपने बारे में लिखने के लोगों के आग्रह की रक्षा करूँ और कुछ लिखूँ। और उस इरादे से कई बार कोशिश भी की। मगर हमेशा असमंजस यह रहा कि कहाँ से शुरू करूँ और क्यों? बार-बार बच्चन जी का उद्धृत किया हुआ फ्रांसीसी लेखक मोंतेन का यह वाक्य अपने लिए याद कर लेता कि ‘मैंने जो टिप्पणियाँ, संस्मरण, कविताएँ, यात्रा-कथाएँ, अंतर्वार्ताएँ, यहाँ तक की निबंध भी, यानी जो कुछ लिखा वह सब ‘आत्मकथा’ ही तो था, उन सब में मेरा ही जीवन तो पिरोया हुआ था। तब फिर कुछ अतिरिक्त लिखने की जरूरत क्या है?’
एक दिन मेरा यह असमंजस कमलेश्वर जी के सामने जा हाज़िर हुआ वे अपनी आत्मकथात्मक तीन पुस्तकें हिन्दी को दे चुके थे। कमलेश्वर जी ने कहा कि 'नन्दन, तुम्हारे सच को तो सामने आना ही चाहिए। रचनाओं में पिरोया हुआ सच कई बार इतना गूढ़ और रहस्यमय होता है कि वह लोगों की पकड़ में नहीं आता, इसलिए तुम्हें अपने संस्मरण जरूर लिखने चाहिए।'
उनके इस कथन में उनका देखा-समझा मेरे जीवन का वह अंश भी लक्ष्य में था जिसको उन्होंने मेरे मुम्बई प्रवास में मुझे ‘धर्मयुग’ में काम करते हुए अनुभव किया था।
कमलेश्वरजी का मेरे जीवन में एक अहम मुकाम है। उनकी कही बात पर मैं लगातार गौर करता रहा और एक दिन यह तय कर लिया कि अब मैं संस्मरण लिखूँगा। मुझे याद है जब मैं मुम्बई से दिल्ली आया था, तब वाराणसी के किसी सज्जन ने डॉ. धर्मवीर भारती पर एक पुस्तक निकालने की योजना पर मुझसे चर्चा की थी। उनका सही वाक्य तो याद नहीं रहा, लेकिन उनका आशय यह था कि ‘यदि इस पुस्तक में आपका लेख नहीं होगा, तो यह पुस्तक अधूरी रहेगी, इसलिए आप अपने भारती जी संबंधी संस्मरण लिखने की प्रार्थना जरूर स्वीकार कीजिए। आपके लिखे बिना पुस्तक अधूरी रहेगी।'
मेरा उनसे कहना था कि 'आपको जिसने भी यह राय दी है कि मेरे संस्मरण के बिना भारतीजी पर लिखी हुई पुस्तक अधूरी रहेगी, यह बात तो पूरी तरह सच है, लेकिन मैं शायद अभी ही भारतीजी के अधीनत्व से बरी हुआ हूँ अभी उसमें अतीत की कुछ तल्ख यादें उनके निथरे हुए सच को ढँक सकती हैं, इसलिए उन्हें अभी थोड़ा विराम देना चाहिए।'
कुछ इसी ऊहापोह में था एक दिन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मेरे कमरे में आए और बोले कि ‘नंदन, तुमको भारतीजी पर जमकर संस्मरण लिखना चाहिए।’ बनारस वाले इन सज्जन की यह योजना बहुत मज़बूत योजना है, इसमें तुम्हें जरूर लिखना चाहिए।' मुझे सर्वेश्वर जी के कहने पर एक ध्वनि यह भी मिली की जैसे ये भारतीजी जी के सारे पुराने दोस्त मेरे माध्यम से भारतीजी की फजीहत देखने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं और मैं उनमें उनका ‘टूल’ बन सकता हूँ।
बस, इस भावना ने मेरे अंदर यह विचार पैदा कर दिया कि 'मैं किसी के कहने पर भारतीजी पर कोई संस्मरण नहीं लिखूँगा।’ मैंने सर्वेश्वरजी से सिद्धांत बघारते हुए कहा कि 'लिखूँगा जरूर कभी न कभी, अपना जीवन संस्मरणों में उतारने की कोशिश करूँगा, अपने अंदर झाँकूँगा, लेकिन सर्वेश्वरजी, किसी के उकसाने में आकर कभी कुछ नहीं लिखना चाहिए।'
सिद्धांत तो बघार दिया, यह भूल गया कि सर्वेश्वरजी पर इसका क्या असर होगा। सर्वेश्वरजी आदमी अक्खड़ थे। उन्हें यह बात नागवार गुज़री। ख़ैर नागवार तो उनको मेरी बहुत-सी बातें गुजरी थीं, जिनके लिए कहीं से भी मैं कभी जिम्मेदार ही नहीं था। जैसे कि मेरा संपादक बनाया जाना और उनका मेरे मातहत काम करने को विवश होना। इसके उपलक्ष्य में वे मेरा अपमान करने का अवसर ढूँढ़ते रहते थे।
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मेरे इस कथन को सुनकर उस समय वे अपना-सा घूँट पीकर भले चले गए, लेकिन मेरे मन में यह संकल्प जरूर छोड़ गए कि 'मैं किसी के उकसावे में आकर कुछ नहीं लिखूँगा।' लेकिन इसके बावजूद कमलेश्वर जी का आत्मीयता से भरा यह वाक्य कि ‘नंदन, तुम्हारे सच को सामने जरूर आना चाहिए।' मुझे पिछले दिनों बारबार याद आता रहा और बड़े दिन की इस पूर्व-संध्या पर यह संकल्प बन कर बैठ गया कि मैं अपने संस्मरणों को तरतीब दूँ और उसका शीर्षक रखूँ-‘गुस्ताखी माफ’।
‘गुस्ताख़ी माफ’ शीर्षक की एक छोटी-सी कहानी है। मेरे अत्यन्त प्रिय, अनुजवत् मित्र राजकुमार गौतम ने भी एक दिन मुझसे संस्मरण लिखने का आग्रह किया और आग्रह के साथ ही उसका ‘शीर्षक चुनाव’ अभियान शुरू कर दिया। राजकुमार गौतम ‘किताबघर’ के लिए अल्पकालिक काम करते थे और ‘परंपरा’ के लिए सम्पादित मेरी किताब ‘लहरों के शिलालेख’ में मेरी सहायता करनेवालों में भी रहे हैं।
उन्होंने ‘गुस्ताख़ियाँ' शीर्षक पर अपना ध्यान केंद्रित किया जो कि उन्हें बहुत प्रिय लगा। ‘गुस्ताख़ियाँ’ शीर्षक में हल्की-सी छेड़छाड़ का भाव है जो राजकुमार को स्वभावतः बड़ा रुचिकर और प्रिय लगता है। उन्हें मुझमें भी कहीं छेड़छाड़ करने की हुनरमंदी रुचिकर और प्रिय लगती है, इसलिए उन्होंने ‘गुस्ताख़ियाँ’ या इससे मिलता-जुलता कोई शीर्षक मेरे संस्मरणों के लिए उचित माना। मैंने राजकुमार से कहा कि 'राजकुमार, ‘गुस्ताखियाँ’ तो मैंने भी बहुतों से की होंगी और बहुतों ने मेरे साथ बहुतों ने बड़ी-बड़ी गुस्ताख़ियाँ क्या ज्यादतियाँ तक की हैं, मगर अब संस्मरणों में उसकी कसक उतारूँ, छेड़छाड़ करूँ, यह ठीक नहीं है। मन अगर है तो गुस्ताखियाँ माफ करने का है। इसलिए अच्छा हो कि मैंने जिन-जिनके साथ गुस्ताखियाँ कीं उनसे माफी माँगूँ और जिन्होंने मेरे साथ गुस्ताखियाँ की, उन्हें माफ करूँ। मेरे खयाल से अब समय का यही तकाजा है।
एक शेर याद आ रहा है - वक़्त की बरहममिज़ाजी का गिला क्या कीजिए ये ही क्या कम है कि सर पे आसमाँ रहने दिया।
'तो प्यारे भाई, अभी आसमान बाकी है और आसमान है, पंख भी हैं तो फिर उड़ान भी बाकी है। इसलिए यादों की उड़ान लेकर उन मुकामों पर थोड़ी-थोड़ी देर बैठूँगा जिनमें मेरे जीवन की बहुत सारी यादें पिरोई हुई हैं। राजकुमार के जाने के बाद मैं शीर्षकों में उलझा रहा और ‘गुस्ताख़ी माफ’ पर अटक गया।
इसके बाद मैंने इस शीर्षक का जिक्र अपने बुजुर्ग हितैषी और प्रकाशक, जिन्हें मैं हिन्दी प्रकाशन-क्षेत्र में ‘भीष्म पितामह’ का दर्जा देता हूँ, श्री विश्वनाथजी से किया. विश्वनाथजी का प्रकाशकीय अनुभव शीर्षक सुनते ही उत्फुल्ल हो उठा। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में हम दोनों बैठे चाय पी रहे थे। विश्वनाथ जी बोले, 'इस शीर्षक के लिए बहुत-बहुत बधाई। बहुत ही प्यारा शीर्षक है, इसे पूरा कर डालिए और यह किताब मैं ही छापूँगा'।
इस तरह मैं बगैर लिखे, बगैर उस पर काम किए, ‘गुस्ताखी माफ’ शीर्षक का कॉपीराइट होल्डर बन गया। मुझे आज तक यह नहीं मालूम कि यह शीर्षक कहीं कभी पहले इस्तेमाल हुआ या नहीं। मैंने तय कर लिया कि अगर नहीं हुआ तो मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, यदि हो गया है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, लेकिन अब मैं इस शीर्षक से हट नहीं सकता, जिसे लोकभाषा में कहते हैं, ‘अब तो नप गई। ’
किस्सा ‘नप गई’ का भी है जिसे आपने सुना भी होगा न याद हो तो एक बार फिर सुन लीजिए कि एक गपोड़ी सज्जन बहुत लंबी-लंबी डींगें हाँका करते थे और इन डींगों के कारण उनकी बड़ी किरकिरी हो जाया करती थी। यह बात उनकी पत्नी को पसंद नहीं आती थी और इसको लेकर उन दोनों में आपस में खींचतान भी हो जाया करती थी। अंततः एक समझौता हुआ और गपोड़ी साहब ने ही एक तरकीब सुझाई कि जब कभी लगे की मैं बहुत ऊँची उड़ान भर रहा हूँ तो तुम मेरे पैर को दबाते हुए इशारा दे दिया करना, तो मैं उसमें संशोधन कर दिया करूँगा।
पत्नी को यह तरकीब मुनासिब लगी। अगले ही दिन गपोड़ी सज्जन बड़ी-बड़ी बातों में शुरू हो गए कि 'आज मैंने एक बंदर देखा जिसकी पूछ कम से कम अस्सी-नब्बे गज़ की थी' पत्नी ने पैर दबाया। गपोड़ी को समझ में आया और अपने वाक्य में वो सुधार करके बोले, ‘अस्सी-नब्बे नहीं तो साठ-सत्तर गज जरूर थी।' पत्नी ने फिर पैर दबाया, लेकिन इस बार जरा ज़्यादा जोर से दबाया तो गपोडी महोदय ने कहा कि ‘अगर साठ-सत्तर न भी हो तो भी तीस-चालीस गज़ तो जरूर थी।’ पत्नी को यह बात मंजूर नहीं थी। उसने फिर पैर दबाया तो गपोड़ी महोदय की त्योंरियाँ चढ़ीं, लेकिन समझौते के मुताबिक उन्होंने थोड़ा उतर कर आना फिर मुनासिब माना और बोले, ‘पच्चीस गज तो जरूर रही होगी पूँछ.’
पत्नी ने इस बार जोर से चिकोटी काटी तो गपोड़ी महोदय झुँझलाकर बोले, ‘अब तो चाहे काटो, चाहे दबाओ, अब तो नप गई.’