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जनशक्ति ही नेहरू की ताकत थी...

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- अजसिं

पंडित नेहरू ने आजादी मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में जिस हौसले से अपनी सशक्त भूमिका का परिचय दिया वह उनकी अंतरात्मा की ऊर्जा के रूप में प्रकट होता था। इस महान देशभक्त ने गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत की मनोदशा को समझा। जिस बुलंद हौसले के साथ उन्होंने भारत के गौरव और आत्मसम्मान का संरक्षण करते हुए एक स्वस्थ लोकतंत्र की नींव रखी, वह विश्व के इतिहास की एक अद्भुत घटना है।

उनके व्यक्तित्व की ऊँचाइयों में उनके जीवन के त्याग, समर्पण और देशसेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में उच्च आदर्शों की झलक मिलती थी। जिस तरह की कुर्बानियों के बाद भारत को स्वतंत्रता हासिल हुई और महान सेनानियों के बलिदानों ने इतिहास रचा, वह हमारी सांस्कृतिक मजबूतियों और दृढ़ इच्छाशक्ति में प्रदर्शन का ही परिणाम है। सत्य, अहिंसा और व्रत-उपवासों के माध्यम से विदेशी हुकूमत से लोहा लेकर भारत ने अपनी जनशक्ति का सारी दुनिया को एहसास करा दिया था।

आजाद भारत में विकास और जनकल्याण की नींव रखने में पंडित नेहरू ने लोकतंत्र के चारों स्तंभों को शक्तिशाली स्वरूप प्रदान करने के लिए स्थितियाँ पैदा की हैं, वह लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद बनकर आज संपूर्ण विश्व के लिए मानव अधिकारों के संरक्षण की दिशा में एक उदाहरण बन गया है।

जन के देश में जन की सत्ता के प्रजातांत्रिक ढाँचे का नेहरू काल में जो संरक्षण हुआ वह संरक्षण आज के भारत के लिए एक चुनौती बनकर हमारे सामने है। सत्ता की व्यवस्था के संचालन के हर क्षेत्र में जन की भागीदारी की प्रमुखता हो, यह संकल्प हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का था, जिसे पंडित नेहरू ने विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच विस्तार देने की अनूठी व्यूहरचना की।

पंडित नेहरू का यह मानना था कि एक स्वस्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संचालन में सत्ता पक्ष की भूमिका तो निष्पक्ष, पारदर्शी और सकारात्मक होना ही चाहिए, किंतु वे संसदीय प्रणाली में एक सशक्त और स्वस्थ विचारधाराओं के विपक्ष के भी हिमायती थे।

वे सदैव इस बात को रेखांकित करते रहे कि अपने अधिकारों के दम पर अपने को मिली राजशक्ति के मद में कोई भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल या व्यक्ति अपने उसूलों के पथ से भटक न जाए और निहित स्वार्थवश लिए निर्णयों से कोई जनविरोधी काम न होने लग जाए इसलिए वे चाहते थे कि जहाँ कहीं सत्ता में भटकाव या संविधान विरोधी स्वर उठ रहे हों, वहाँ एक स्वस्थ विपक्ष को जनहित में स्वार्थगत राजनीति से ऊपर उठकर अंकुश का काम करना चाहिए।

पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत ने औद्योगिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक और शैक्षणिक क्षेत्र में अनेक उपलब्धियाँ हासिल की हैं। भारत जैसे कृषिप्रधान देश में किसानों, मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों की भूमिका को अधिक गतिशील बनाने तथा कृषि आधारित उद्योगों और ग्रामीण रोजगार के धंधों के स्वरूप को उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से नया रूप देकर लोगों में इन व्यवसायों के प्रति दिलचस्पी पैदा करने के प्रयास भी किए। भारत छोटे और भारी उद्योगों के माध्यम से विश्व के औद्योगिक पटल पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के निर्वहन में निरंतर अग्रसर है।

पंडित नेहरू ने विकास और जनकल्याण की जिन नीतियों को जमीनी स्वरूप प्रदान कर जन-जन को आज आत्मनिर्भर बनाने की जो दिशाएँ दी हैं, वे ही भारत के सुखी और समृद्ध भविष्य निर्माण में कामयाबी दिला रही हैं। वे राजनीति में अनुशासन, मर्यादा, निष्ठा, परिश्रम और प्रतिबद्धता के हिमायती थे।

उन्होंने अपने आचरण, व्यवहार और कर्तव्यों के निर्वहन में राजनीतिक शुचिता का सदैव ध्यान रखा। पंडित नेहरू के लोकतंत्र का मर्म इन विचारों से स्पष्ट होता है, जो उन्होंने 2 मई 1952 को सामुदायिक विकास योजना कॉन्फ्रेंस के भाषण में व्यक्त किए थे- 'ऊपर से की जाने वाली रहनुमाई के बारे में अक्सर मैं शक करने लग जाता हूँ और कभी-कभी डर भी जाता हूँ।

हमारी यह आदत बन गई है कि हम देश को, अपनी जनता को, हर किसी को नेक सलाह देने लगते हैं। मेरा यह निजी तजुर्बा है कि जो लोग बहुत ज्यादा सलाह देते हैं वे लोकप्रिय नहीं होते। कहने का मतलब यह कि अगर निचले दर्जे से गहरा ताल्लुक रखे बिना ऊपर की तरफ से जरूरत से ज्यादा कार्रवाई करते हैं तो इसमें कोई नतीजा हासिल नहीं होगा।'

पंडितजी ने जिस बुलंद भारत के निर्माण की आधारशिला रखी थी, उसे उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गाँधी और उनकी तीसरी पीढ़ी में राजीव गाँधी जैसी शख्सियतों ने उस पर चलकर आधुनिक भारत के निर्माण के प्रयासों को आगे बढ़ाया है। आज उन्हीं आदर्शों, उन्हीं मूल्यों और उन्हीं सिद्धांतों पर श्रीमती सोनिया गाँधी एवं श्री राहुल गाँधी भी देश को आगे ले जाने के लिए पूरी निष्ठा के साथ प्रयासरत हैं।

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