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तुलसी जयंती पर विशेष

जन-जन के रचनाकार तुलसी

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jitendra

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आज से चार सौ साल पूर्व सोलहवीं शताब्‍दी में मुगल सम्राट अकबर के जमाने में जन्‍मे कवि और दार्शनिक तुलसीदास की रचनाएँ आज चार सदी बाद भी भारतीय समाज के अंतर्मन और उसके सांस्‍कृतिक-मनोवैज्ञानिक मानस का सर्वाधिक विश्‍वसनीय चित्रण है।

हिंदी में कोई काव्‍य कृति इतनी लोकप्रिय नहीं हुई, जितना कि तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस'। आज भी रामचरितमानस श्‍वास की तरह प्रत्‍येक हिंदू परिवार का अभिन्‍न अंग है। विशुद्ध अवधी में की गई कविताई घर-घर में बोली जाती है, रामचरितमास का पाठ होता है। साहित्‍य तो बहुत कुछ सृजित किया जाता रहा है, लेकिन बहुत कम चीजें इस तरह बरसों-बरस भारतीय मनीषा में स्‍थायित्‍व पाती हैं, जैसाकि तुलसी के साथ दिखता है।

उस दौर का साहित्‍य सिर्फ समाज का चित्रण या आसपास दिख रही चीजों की एक यथार्थ तस्‍वीर दिखाना भर नहीं था। अपनी रचनाओं के माध्‍यम से वे समाज में आदर्शों की प्रस्‍थापना करते हैं, न्‍याय और नैतिकता के मार्ग से विचलित मनुष्‍य का मार्ग प्रशस्‍त करने का काम करते हैं। कबीर, सूर, तुलसी सभी की रचनाओं में यह बात दृष्टिगोचर होती है। रामचरितमानस सिर्फ राम की कथा भर नहीं है, बल्कि राम कथा के बहाने तत्‍कालीन समाज का बहुत यथार्थ और सजीव चित्रण है। समाज की विसंगतियों पर कटाक्ष है और सम्राटों की सत्‍ता पर भी प्रहार करने वाला है। रामचरितमानस के बहाने तुलसीदास अकबर पर भी व्‍यंग्‍य करने से नहीं चूके हैं। वे लिखते हैं -

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सो नृप अवस नरक अधिकारी
लेकिन आम जनता के सहज-सरल जीवन और सम्राटों के वैभव के प्रति उनकी निस्‍पृहता का जिक्र भी उतनी ही सरलता से तुलसी करते हैं, जब वे कहते हैं - 'कोई नृप होई हमहु का हानि।'

आज चार सौ साल बाद भी तुलसी पर निरंतर शोध और अध्‍ययन हो रहे हैं। वह आज भी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के प्रिय हैं। तुलसीदास वास्‍तव में सिर्फ रचनाकार नहीं थे। वे एक संत और दार्शनिक भी थे, जो व्‍यापक समाज की हित चिंता से प्रेरित थे। तुलसीदास अपने आप में अनूठे थे। न तो उनके पहले और न ही उनके बाद उस कद और ऊर्जा वाला कोई दूसरा व्‍यक्ति हुआ। तुलसीदास और उनकी कृतियाँ इस बात का यथार्थ प्रमाण है कि समय की गति में वही बच पाता है, जिसकी जड़ें आम जनमानस में गहरी होती हैं। जो जन-जन का रचनाकार होता है। तुलसी ऐसे ही थे।

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