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पुण्यतिथि : जयशंकर प्रसाद

बीसवीं सदी की हिंदी कविता के शिखर-पुरुष थे प्रसाद

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हमें फॉलो करें पुण्यतिथि जयशंकर प्रसाद
- विजय बहादुर सिंह

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आजादी से पहले के दशकों में हिन्दी कविता, नाटक और उपन्यास-कहानी के क्षेत्र में जिस किसी एक सर्जक को सामूहिक स्वीकृति और प्रतिष्ठा मिली हुई थी, उसका नाम जयशंकर प्रसाद था। प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी तो प्रसाद की महत्ता को समझते और अनुभव करते ही थे, निराला, सुमित्रानंदन पंत, नंददुलारे वाजपेयी भी प्रसाद की अगुवाई में ही हिन्दी स्वच्छंदतावाद के युगांतरकारी निर्माण में अपना योगदान कर रहे थे। आश्चर्य होता है यह देखकर कि काशी के बुद्धिजीवियों की जिस मंडली में नेहरू उपस्थित हैं, उसमें प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और रामचन्द्र शुक्ल भी उसी गौरव के साथ बैठे हैं।

अज्ञेय जैसे तेजस्वी युवा साहित्यिक की यह प्रबल साध थी कि उनकी कविता-पुस्तक भग्नदूत की भूमिका अगर कोई लिखे तो वह निराला या पंत, यहाँ तक कि मैथिलीशरण गुप्त भी नहीं, जयशंकर प्रसाद हों। संस्मरणों से पता लगता है जैनेन्द्र प्रेमचंद को लेकर भी प्रसाद के यहाँ गए कि शायद प्रेमचंद का लिहाज कर प्रसाद 'हाँ' कर दें। इस घटना को याद करते हुए जैनेन्द्र ने लिखा- 'पहले पूछा, कौन है', मैंने कह दिया कि 'मैं आया हूँ। कह रहा हूँ, इसी से जान लीजिए।' थोड़ी देर चुप रहे। बोले, 'तुम कुछ चाहोगे, यह मैंने नहीं सोचा था, पर तुमने भी न सोचा होगा कि तुम कहोगे और 'प्रसाद' न कर पाएगा।' जैनेन्द्र ने अनुरोध को यहाँ तक पहुँचाया- 'लिखना मान लीजिए और कुछ नहीं तो कारण यही कि अज्ञेय आपके लिए अज्ञात है, जेल में है।'
आजादी से पहले के दशकों में हिन्दी कविता, नाटक और उपन्यास-कहानी के क्षेत्र में जिस किसी एक सर्जक को सामूहिक स्वीकृति और प्रतिष्ठा मिली हुई थी, उसका नाम जयशंकर प्रसाद था।
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देर तक यह रस्साकशी चली और आत्मीयता के तमाम दावों के साथ। जैनेन्द्र ने लिखा है- 'प्रसाद ने उठते हुए कहा- 'कहोगे तो तुम जैनेन्द्र की एक बात जो तुमने कही और 'प्रसाद' ने वह भी न रखी।'

'क्यों साहब' मैंने कहा- 'यह कहना भी अब मुझसे छीन लेंगे आप? एक तो आपने बात रखी नहीं, फिर हम कह भी न पाएँ कि नहीं रखी। कहिए प्रेमचंदजी यह अन्याय सहा जाए और अपनी वाक्‌-स्वतंत्रता को छिन जाने दिया जाए।'

जैनेन्द्र आगे लिखते हैं, 'प्रेमचंद ने ठहाका लगाया। उसमें प्रसाद भी शामिल हुए। देखा कि उनके हास्य में कहीं कुछ नहीं है। वह निर्मल और नासमझी के लिए कहीं ठहरने को वहाँ जगह नहीं है।

हम चले आए। प्रेमचंद ने गली में कहा कि तुमने बदला ले ही लिया। मैंने कहा कि 'बदला पहुँचा कहाँ? वह तो ज्यों का त्यों मुझ पर लौट आया। प्रसाद को उसने छुआ कहाँ?' प्रेमचंद ने कहा- 'बात ठीक है। खूब आदमी हैं प्रसाद?'

प्रसाद ऐसे अगर न होते तो प्रेमचंद प्रसाद विरोधी पं. बनारसीदास चतुर्वेदी (संपादक 'विशाल भारत') को यह लिखकर क्यों उन्हें समझाते, 'प्रसादजी बहुत अच्छे आदमी हैं, अनायास उनसे मुहब्बत हो जाती है। अब जबकि मैं उन्हें पास से देख रहा हूँ तो मैं पाता हूँ कि सालभर पहले मैं उनके बारे में जो सोचता था, वह उसके काफी विपरीत है... हमें विचारों की उदारता से काम लेना चाहिए।'

आज तो साहित्यिक वातावरण रचनाकारों के निजी दंभ और उनकी वैचारिक कट्टरता से जहरीला हो गया है। अपने से असहमत लेखक को हम जाने का हक भी नहीं देना चाहते। यह भूल ही जाते हैं कि जिस बहुलता का नारा हम उछालते और जिसका दावा करते रहते हैं, उसमें असहमतियों की सुंदरता, बुनियादी बात है। ये असहमतियाँ प्रेमचंद, प्रसाद में भी थीं, रामचन्द्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी में भी। ये ही वे आधार थीं जिनसे संवाद संभव हुआ करता। सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में इन्हीं असहमतियों और घटित होते संवादों से ऊर्जा और गतिशीलता पैदा होती है।

मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद में भी ये असहमतियाँ खूब थीं। 1936 के अपने एक पत्र में मैथिलीशरणजी ने प्रसाद को जो लिखा है, उससे इसकी एक झलक मिल सकती है- 'मुझे अपने साहित्यिक जीवन की क्षणिकता पर न कोई आह थी न औरों की बहुकालीनता पर डाह। यह मैं तुमसे सच कहता हूँ।

मेरे लिए चार दिन की चाँदनी ही क्या थोड़ी। परंतु तुम्हें बहुत दिन भोगना है- अपने लिए न सही, हमारे लिए। जो हो, अब भी क्या हिन्दी इतिहास का भावी लेखक मेरी उपेक्षा कर सकता है? उसे इतना लिखना ही पड़ेगा- 'मैथिलीशरण उस काल का एक पद्यकार, जिसे हमारे कवि के बंधु होने का ही सौभाग्य नहीं, उससे भेंट पाने का गौरव भी प्राप्त था।'

प्रसाद के काव्य-व्यक्तित्व और उनकी सृजनात्मक प्रतिभा को यह गौरव उनके जीवनकाल में ही मिल चुका था। गुप्तजी की भारत-भारती की अपार लोकप्रियता के बाद 1924-25 में आई प्रसाद की कृति 'आँसू' ने हिन्दी कविता, काव्य-भाषा और कल्पना की सघन-जटिल जुगलबंदी से सारा वातावरण बदल डाला था। यह प्रसाद ही थे जिनकी कविता में जीवन के गहरे संवेग प्रकृति का साहचर्य पाकर लोक-सम्मोहन पैदा करने लगे थे।

आज तो यह कहा ही जा सकता है कि मर्यादावाद के उन दिनों में प्रसाद जैसे सच्चे और खरे कवियों ने अगर लोक सफलताकामी काव्य-बुद्धि को धकियाकर 'आँसू' जैसी मार्मिकता और विदग्धता को प्रकट न किया होता तो शायद ही संभव था कि महादेवी चार-छः बरस बाद अपने गीतों में गहरे प्रेम-संगोपन का चित्रण कर पातीं। प्रसाद ही थे जिन्होंने आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त आदि के बावजूद कविता के एक नए पथ का प्रवर्तन किया।

अज्ञेय ठीक लिखते हैं कि मैथिलीशरण गुप्त वाचिक परंपरा के अंतिम बड़े कवि हैं किंतु छायावाद ने इसे तोड़ा। छायावाद में पहली बार कवि का व्यक्तित्व समस्त सृजन के केंद्र में आ खड़ा हुआ। अज्ञेय के शब्द हैं- 'छायावाद ने... व्यक्तिगत भावना की प्रतिष्ठा की और उसके लिए भाषा पैदा की, उस स्वर को एक स्थान दिलाया।...प्रसाद एक तरफ संक्रमण की स्थिति में हैं, एक तरफ ऐतिहासिक चेतना उनमें बहुत प्रबल है।' वे आगे की स्थितियों को भी एक भविष्यदृष्टा-सर्जक की तरह देख पा रहे हैं और जो परंपरा उन्हें मिली हुई है, उसे वे उपनिषदों के ऋषियों की तरह खंगाल भी रहे हैं।

प्रसाद ही हैं, जो गाँधी का नाम तक नहीं लेते जैसा कि प्रेमचंद, जैनेन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त लेते हैं। रामचन्द्र शुक्ल तो गाँधी से कई स्तरों पर भिड़ते हैं। पर प्रसाद जब 'कामायनी' लिखते हैं तो लगता है कि कविता और साहित्य में वे एक नए 'हिन्द स्वराज' की ही रचना कर रहे हैं। 'कामायनी' में जो बुनियादी बहस है, वह बुद्धिवाद और आनंदवाद की तो है ही, नई भोगवादी सभ्यता और पश्चिमी साम्राज्यवाद की आक्रामक अमानवीयता की भी है। सारी चिंता और इड़ासर्ग इन बहसों से भरा हुआ है। आज इन पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत है। ये बहसें न निराला में हैं, न अज्ञेय और न मुक्तिबोध में।

धर्म के संदर्भ में अज्ञेय जब भारतीयता की परिभाषा की ओर बढ़ते हैं, तब वे काल की अवधारणा को भी रेखांकित करते हैं और धर्म संबंधी भारतीय चिंतन की विशेषताओं को लेकर भी। सभ्यता सिर्फ स्थूल भोग व्यापार नहीं है। वह जीवन के सारे चक्रों और संघर्षों के बीच से पाई गई वह मूल्य चेतना है जिसके पीछे हमारी अंतरदृष्टि काम किया करती है। इसी अंतरदृष्टि से हमारे काव्य-संवेदन, जो वस्तुतः मानव-संवेदन ही होते हैं, बनते हैं। प्रसाद इसी रूप में एक ठेठ भारतीय कवि हैं। पुराने और पारंपरिक अर्थ में भी और विशिष्ट एतिहासिक अर्थ में भी। स्थूल भौतिक संघर्षों को वे कहीं नकारते नहीं। विलासिता को भी वे वर्ज्य नहीं मानते किंतु इसी को संपूर्ण जीवन और उसका महत लक्ष्य मानने को गाँधी की तरह वे भी तैयार नहीं हैं।

भौतिकता तब घिनौनी हो उठती है बल्कि राक्षसी, जब उसमें से आध्यात्मिकता गायब हो जाती है। आध्यात्मिकता हवाई हो जाती है, जब वह भौतिक का नकार शुरू कर देती है। प्रसाद ने एक कवि के रूप में कामायनी के बहाने हमें यह समझाने की कोशिश की कि जीवन का संचालन आत्मा के प्रकाश में बेहतर होगा, न कि उस बुद्धि की चकाचौंध में जिसमें चीजें वैसी दिख नहीं पातीं जैसी कि वे सचमुच निसर्गतः हैं।

उत्तर आधुनिक बाजारवादी साम्राज्यवाद में प्रसाद की कविता को बीच में रखकर भारत की नियति पर विचार करना होगा। मानव निर्मित सभ्यता और सभ्यता के ही व्यूह में फँसा आधुनिक मनुष्य दोनों में से कौन हमारी प्राथमिक चिंता में है, इसे सवाल के रूप में प्रसाद की कविता खड़ा करती है।

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