पहली मुलाकात में ही मेरी यह धारणा बन चुकी थी कि इस महिला में कोई बात है, कोई दम है! वे मुझे जब बेहद शार्प लगी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भरे हुए थे। पुराने किस्म का फर्नीचर डॉ. खेतान की जीवनशैली को विशिष्टता प्रदान कर रहा था ...
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मुझे शुक्रवार (19 सितंबर 2008) को प्रभाजी पर बेहद गुस्सा आ रहा था। मैं उन्हें सुबह से रात्रि को 10 बजे तक पाँच-छह बार मोबाइल पर फोन कर चुका था। लेकिन उन्होंने कोई रेस्पांस नहीं दिया। देर रात्रि तक भी मैंने प्रतीक्षा की।
चूँकि वे हमारी शासी परिषद (केंद्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल, आगरा) की वरिष्ठ सदस्य थीं इसलिए उनसे सलाह-मशविरा के लिए महीने में तीन-चार बार मोबाइल पर बातचीत हो जाया करती थी। यह सिलसिला 2006 से चल रहा था। इसलिए शासी परिषद की अगली बैठक बुलाने के लिए मैं उनसे संपर्क कर रहा था।
शनिवार की सुबह राजेंद्र यादव जी से फोन पर इधर-उधर की बातें हुईं। उन्होंने बातचीत के अंतिम छोर अपनी आदत के मुताबिक विस्फोटक खबर सुना दी। 'प्रभा खेतान नहीं रहीं।' मुझे यकीन नहीं हुआ। मैंने उनसे खबर के स्रोत के बारे में पूछा। तब उन्होंने बताया कि उनके पास 'जागरण' से फोन आया था।
चूँकि किसी खबरिया चैनल से प्रभाजी की मृत्यु का समाचार नहीं था इसलिए मुझे अब भी यादव जी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। पत्रकारीय प्रवृत्ति के नाते मैंने इसे 'क्रॉस चेक' करना जरूरी समझा।
प्रभाजी के लैंडलाइन पर फोन किया। किसी ने नहीं उठाया। दुबारा किया तो किसी पुरुष ने उठाया और पूछने पर उसने अनभिज्ञता व्यक्त की। केवल इतना ही कहा कि दीदी अस्पताल में हैं। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि डॉ. खेतान अस्वस्थ हैं। फिर मैंने पंकज बिष्ट से अनुरोध किया कि वे कोलकाता में कृपाशंकर चौबे से फोन कर निधन के समाचार की पुष्टि कराएँ। दस मिनट के भीतर पंकज का फोन आया कि उन्होंने बतलाया कि प्रभा खेतान का निधन 19 तारीख की रात्रि 11 बजे को अस्पताल में हो चुका है। इस पुष्टि ने मुझे हिला कर रख दिया। दो सप्ताह पहले ही तो उनसे फोन पर ढेर सारी बातें हुई थीं।
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आज जब वे पंचतत्व में विलीन हो चुकी हैं सब स्त्री मुक्ति के लिए उनके अहर्निश संघर्ष को कैसे भुलाया जा सकता है? जब भी हिंदी में स्त्री विमर्श की बात उठेगी तो मारवाड़ी सरहदों को लाँघकर स्वतंत्र हुई डॉ. प्रभा खेतान अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई देंगी ..
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उन्होंने तब कहा था कि वे सितंबर के तीसरे सप्ताह में दिल्ली आ सकती हैं। मैं उनकी संभावित दिल्ली यात्रा को ध्यान में रखकर ही योजना बनाना चाहता था। इसीलिए उनसे मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश मैं कर रहा था। डॉ.प्रभा खेतान से मेरा पहला परिचय राजेंद्र जी की मार्फत हुआ था। शायद 1993 या 94 में। भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक को कवर करने के सिलसिले में मुझे कोलकाता जाना था। राजेंद्र जी ने कहा कि मैं कोलकाता प्रवास के दौरान प्रभा खेतान से अवश्य मिलूँ। यादव जी ने प्रभा जी को फोन पर मेरा परिचय भी दे दिया था।जब मैं कोलकाता पहुँचा तो मैंने प्रभा जी को फोन किया और बतलाया कि मैं अमुक होटल में ठहरा हुआ हूँ। निर्धारित समय पर उन्होंने अपनी फियेट कार मुझे लाने के लिए भेज दी। बीस-पच्चीस मिनट के पश्चात मैं लिटिल रसैल स्ट्रीट स्थित उनके मकान पर था। वे पहले तल पर रह रही थीं।उनके साथ उनकी कोई सहेली भी बैठी हुई थीं। हम तीनों ने पत्रकारिता, साहित्य, मार्क्सवाद, स्त्री शक्ति जैसे विषयों पर धुआँधार बहस की। पहली मुलाकात में ही मेरी यह धारणा बन चुकी थी कि इस महिला में कोई बात है, कोई दम है! वे मुझे जब बेहद शार्प लगी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भरे हुए थे। पुराने किस्म का फर्नीचर डॉ. खेतान की जीवनशैली को विशिष्टता प्रदान कर रहा था। इस मुलाकात के बाद दिल्ली स्थित यादव जी के 'हंस' कार्यालय में ही प्रभा जी से तीन-चार चलताऊ मुलाकातें हुईं। मैंने उनकी कोई पुस्तक नहीं पढ़ी थी। अलबत्ता यह अवश्य जानता था कि वे नारीवादी लेखिका हैं। फ्रांस की विख्यात नारीवादी लेखिका सीमन द बोउवार पर डॉ. खेतान का विशेष अध्ययन है। उनकी पुस्तक 'द सैकेंड सेक्स' का अनुवाद भी प्रभा जी ने ही किया है। चूँकि कोलकाता मुलाकात से मैं प्रभावित था इसलिए उनके प्रति आदर का भाव मेरे दिल में था। 2003 में मेरे संक्षिप्त अनुरोध पर वे नोएडा स्थित मा.च.रा. पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कैंपस में मीडिया के विद्यार्थियों को संबोधित करने भी आई थीं। उन्होंने करीब 2 घंटे क्लास ली थी। विद्यार्थी, विशेष रूप से छात्राएँ इतनी प्रभावित थीं कि उन्हें छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थीं। क्लास समाप्ति के बाद भी विद्यार्थी डॉ. प्रधान को घेरे रहे और स्त्री-पुरुषों के संबंधों तथा अधिकारों पर ढेर सारे सवाल करते रहे। तब मैंने पहली बार जाना कि डॉ. खेतान में एक शिक्षिका के गुण भी छिपे हुए हैं।डॉ. खेतान को जो थोड़ी बहुत मानदेय राशि दी गई थी उन्होंने उसे वहीं विद्यार्थियों के कल्याण के लिए लौटा दी। एक बार फिर 2004 में डॉ. खेतान के साथ मेरी लंबी मुलाकात हुई। भारतीय भाषा परिषद के निमंत्रण पर मैं कोलकाता गया हुआ था। जैसे ही मैंने उन्हें आने की सूचना दी उन्होंने तत्काल ही अपनी कार भेज दी। रसैल स्ट्रीट पर राजेंद्र जी और मन्नू जी को लेकर चर्चा चल पड़ी। चूँकि प्रभा जी मन्नू जी की शिष्या रही हैं इसलिए उनकी पक्षधरता अपनी गुरु के साथ ही लेकिन वे दोनों के तनावपूर्ण संबंधों को लेकर बेहद दुखी थीं। वे भावनात्मक स्तर पर दोनों से जुड़ी हुई थीं इसलिए वे चाहती थीं कि आयु के इस पड़ाव पर यह वृद्ध साहित्यिक दंपत्ति फिर से एक साथ हो जाएँ और एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी बनें। उन्होंने तब मुझसे यादव जी के साथ हुए उनके अनुभवों को भी शेयर किया था। उनके अनुभवों को मैंने यादव जी पर प्रकाशित पुस्तक 'हमारे युग का खलनायक : राजेंद्र यादव' में दर्ज किया है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रभा जी की राय अप्रत्याशित व असाधारण रूप से बेबाक थी। उन्होंने अनुभवों के दौरान कुछ प्रयोग भी किए थे। उनके प्रयोगों को सुनने के बाद ही मैंने महसूस किया कि वे स्त्री की अस्मिता को लेकर कितनी चिंतित हैं।2004
में 'हंस' में प्रकाशित मेरे दो आलेखों को लेकर भी प्रभा जी ने मुझसे तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उन्होंने मुझसे कहा कि कुछ स्थलों पर स्थिति का वर्णन करने के दौरान मुझसे चूक हुई हैं। संपादक राजेंद्र यादव ने भी संपादकीय असंतुलन व लापरवाही का परिचय दिया है। उनकी यह प्रतिक्रिया मुझे हमेशा याद रहेगी कि पुरुष लेखक स्त्री के संबंध में भाषा प्रयोग के मामले में प्राय: लापरवाह रहते हैं और मर्दवादी मानसिकता से संचालित होते हैं। स्त्री की दृष्टि से भी शब्द के प्रभाव को समझा जाना चाहिए। पुरुष लेखक को भी यह समझना चाहिए कि उसके द्वारा स्त्री के संबंध में प्रयुक्त शब्दों का प्रभाव स्त्री के मन-मस्तिष्क पर पड़ेगा?मैंने डॉ. खेतान को शासी परिषद के सक्रिय सदस्य के रूप में भी अपनी भूमिका निभाते हुए दिखा। वे प्राय: सभी बैठकों में शामिल होकर अपने सुझाव दिया करती थीं। उन्हीं के सुझाव पर केंद्रीय हिंदी समिति का गठन किया गया था। |
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रभा जी की राय अप्रत्याशित व असाधारण रूप से बेबाक थी। उन्होंने अनुभवों के दौरान कुछ प्रयोग भी किए थे। उनके प्रयोगों को सुनने के बाद ही मैंने महसूस किया कि वे स्त्री की अस्मिता को लेकर कितनी चिंतित हैं ....
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समिति के सदस्य के रूप में प्रभा जी ने संस्थान के लगभग सभी केंद्रों का दौरा किया था। पिछले वर्ष न्यूयॉर्क में आयोजित आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी वे कम सक्रिय नहीं थीं। उन्होंने एक गोष्ठी में अपना पर्चा भी पढ़ा था। आज जब वे पंचतत्व में विलीन हो चुकी हैं सब स्त्री मुक्ति के लिए उनके अहर्निश संघर्ष को कैसे भुलाया जा सकता है? जब भी हिंदी में स्त्री विमर्श की बात उठेगी तो मारवाड़ी सरहदों को लाँघकर स्वतंत्र हुई डॉ. प्रभा खेतान अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई देंगी।
20 सितंबर को 10 बजे डॉ. प्रभा खेतान के निजी सहायक मोहन जी का फोन आया है। वे कह रहे हैं - 'जोशी जी, दीदी नहीं रही। उन्हें 17 सितंबर को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इसके बाद उनकी 'एंजियोग्राफी' हुई थी। डॉक्टरों की लाख कोशिशों के बाद भी उनकी साँसें लौट नहीं सकीं। अभी उनका शव अस्पताल में ही है। कल रविवार को लाया जाएगा। क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा।'
मोहन यह कहकर फोन रख देते हैं। अब मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं प्रभा जी पर गुस्सा करूँ? क्या वे कभी फोन नहीं उठाएँगी?
साभार : प्रगतिशील वसुधा