शिवानी जी की 'याद' में
पुण्यतिथि विशेष (21 मार्च, 2003)
एक थी शिवानी। आज जब मेरी लेखनी की नोंक पर यह शब्द आया है तो स्मृतियों के गवाक्ष से उनकी ममतामयी मूरत मुस्कुरा उठी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्थान में एक मीडिया कार्यशाला का आयोजन था। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, मृणाल पांडे, शिवानी जी जैसे दिग्गजों की सुनने का चाव हम सभी विद्यार्थियों को था।उस कार्यक्रम में मृणाल जी जितनी सहज और आत्मीय लग रही थीं, शिवानी जी उतनी ही खिंची-खिंची सी। हर बात का दो टूक उत्तर देतीं। बचपन से उनके साहित्य से परिचित मेरे मन में उनकी छवि दरकती जा रही थी। अगर उस दिन शाम को भोपाल की 'होटल पलाश' में उनसे मीठी मुलाकात न होती तो शायद मैं जीवन का एक बेहद सुंदर क्षण खो बैठती। शाम को पत्रकारिता के सभी विद्यार्थियों से उनकी मुलाकात का आयोजन रखा गया था। शिवानी जी से हम क्या साक्षात्कार लेते वे स्वयं ही हमसे पूछने लगीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र का चयन क्यों किया और दिनभर का क्या शेड्यूल होता है आप लोगों का। हम हतप्रभ, कि क्या सचमुच ये वही शिवानी हैं? दिन में राजनीति, मीडिया और साहित्य पर बेबाक वक्तव्य देने वाली और हम विद्यार्थियों से एक सुनिश्चित दूरी बनाकर रखने वाली?किसी तरह मुँह खोला कि आप अपने बारे में बताइए ना? आपके ही मुँह से सुनकर अच्छा लगेगा। फिर तो अपनी पहली रचना 'मैं मुर्गा हूँ' से शुरू उनका शब्द-सफर तब की राजनीति और साहित्य पर आकर थमा। नौ वर्ष शांति निकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के साथ बिताए पलों के विषय में उन्होंने बताया- गुरुदेव मुझे 'गोरा' पुकारते थे क्योंकि 'गौरा' तो बंगला में कोई शब्द ही नहीं होता। हम उनकी गहरी आँखों में झाँक रहे थे। शायद गुरुदेव को इतने करीब से देखने वाली आँखों में उनकी कोई मूरत अब भी झिलमिला रही हो।शिवानी जी की माँ गुजराती भाषा की विदुषी थीं और पिता अँग्रेजी के विद्वान। जाहिर सी बात है बचपन के साहित्यिक संस्कार और लंबे अनुभव ने उन्हें जो गरिमा प्रदान की थी वह चमत्कृत कर देने वाली थी। पूरी बातचीत में वे संतुलित और संयमित थीं लेकिन स्मित हास से प्रभाष जी वातावरण को एक अनूठे रंग से सजा रहे थे। जब हम उनसे विदा ले रहे थे तब उनके कोमल चरण पर हाथ पहुँच गए वे रोकती हुई बोलीं कन्या से हम पैर नहीं छुआएँगे भाई...! ऐसा मत करो। हाँ, आशीर्वाद पर तुम्हारा अधिकार है। और उन्होंने ऑटोग्राफ के साथ लिखा - अपने कर्मक्षेत्र की ऊँचाइयाँ छुओ।
अब बारी प्रभाष जी की थी। उनसे ऑटोग्राफ लिए तो चिरपरिचित अंदाज में सखी मुक्ति के लिए उन्होंने लिखा
ओह मुक्ति, मुक्ति किसे नहीं चाहिए?
और मेरी बुक पर लिखा ' शिवानी जी की 'याद' में स्मृति को ...
साल 2003 में शिवानी जी के चले जाने की खबर मिली और मैं रो पड़ी जैसे कृष्णकली को पढ़कर आज भी आँसू नहीं रुकते। शिवानी जी के ऑटोग्राफ उन्हीं की रचना 'कृष्णकली' में आज भी सहेज कर रखे हैं। और शिवानी जी के साथ मेरा नाम जोड़कर दिए प्रभाष जी के ऑटोग्राफ भी उसी के साथ सुरक्षित है।