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ये मुस्लिम शासक लेकर आया था अंग्रेजों को भारत में

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अखंड भारत पर अंग्रेजों, पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों ने पहले व्यापार के माध्यम से अपनी पैठ जमाई फिर यहां के कुछ क्षेत्रों को सैन्य बल और नीति के माध्यम से अपने पुरअधीन करने का अभियान चलाया। अंग्रेजों के आने के पहले भारत के अधिकांश भू-भाग पर जाट छत्रियों, राजपूतों, सिखों और दक्षिण के शासकों का राज था। पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान, हिंदूकुश, मुल्तान, पंजाब, पश्तून आदि जगहों पर पूर्णत: इस्लामिक सत्ता कायम हो चुकी थी। दिल्ली, बंगाल, मैसूर जैसी हिन्दु बहुल जगहों पर मुस्लिम शासकों का शासन था, जिनकी लड़ाई मराठा, राजपूत, सिख और दक्षिण के राजाओं से जारी थी। वे चाहते थे कि यहां पर भी हमारा पूर्ण अधिकार हो, लेकिन यह सपना अधूरा रहा।
 
 
अंग्रेजों ने अंग्रेजों ने मुस्लिमों के साथ मिलकर भारत की सत्ता छत्रियों, राजपूतों, सिखों आदि से छीनी थी, लेकिन प्लासी के युद्ध और मैसूर के युद्ध की ज्यादा चर्चा की जारी है और इस युद्ध के माध्यम से यह दर्शाया जाता है कि मुस्लिमों ने अंग्रेजों से टक्कर ली थी। हालांकि इतिहास के अधूरे सच को बताने से विवाद की स्थित उत्पन्न होती है। एक समय था जबकि राजपूतों, मराठाओं और सिखों ने अंग्रेजों से लोहा लिया और अंग्रेजों का साथ उस समय मुस्लिम शासकों ने दिया। फिर एक समय ऐसा आया कि मुस्लिम शासकों को हटाने के लिए अंग्रेजों ने राजपूतों और सिखों को अपने साथ लिया और इस तरह अंग्रेजों ने दोनों की पक्ष को अपने लिए कार्य करने पर मजबूर कर दिया। 
 
दरअसल, अंगरेजों ने हिन्दुओं को भरमाने के लिए यह दुष्प्रचार बड़े पैमाने पर किया कि अगर वे भारत छोडक़र गए तो मुसलमान अतीत की भांति उन पर हुकूमत करना फिर शुरू कर देंगे। उन्होंने मुसलमानों को यह कहकर बहकाया कि हिन्दू अतीत के मुसलमानी शासन का बदला तुमसे चुकाएंगे। अंग्रेजों द्वारा लिखे गए इतिहास को लेकर आज भी भारत के लोग आपस में लड़ते झगड़ते हैं, लेकिन सच कोई जानना नहीं चाहता। लेकिन सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के भारत में लेकर कौन आया?
 
 
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ईस्ट इण्डिया कम्पनी को 1600 ई. में ब्रिटेन का शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया था। उत्तर भारत में 1615-18 ई. में सम्राट जहांगीर ने ईस्ट इण्डिया कंपनी को विशेषाधिकार देकर भारत में व्यापार करने की छूट दे दी। दूसरी ओर यह देखते हुए दक्षिण भारत में 1640 ईस्वी में विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा ने इस कंपनी को चेन्नई के एक भूभाग पर कारखाना लगाने की अनुमति देती। कंपनी ने यहां पर शीघ्र ही सेण्ट जार्ज किले का निर्माण किया और अपनी व्यापार नीति के साथ ही रणनीति की शुरुआत की।
 
 
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1661 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कंपनी को एक और सफलता मिली। चेन्नई के अलावा उसे बम्बई का एक टापू भी मिल गया। हुआ यूं कि ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष में दहेज में बम्बई का टापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराए पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ईस्वी के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली। यह क्षेत्र में बाद में अंग्रेजों के व्यापार और युद्ध का गढ़ बन गया।
 
 
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अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की अनुमति सबसे पहले जहांगीर ने दी थी इसमें जहांगीर की भी रणनीति थी। जहांगीर और अंग्रेजों ने मिलकर 1618 से लेकर 1750 तक भारत के अधिकांश हिंदू रजवाड़ों को छल से अपने कब्जे में ले लिया था। बंगाल उनसे उस समय तक अछूता था और उस समय बंगाल का नवाब था सिराजुद्दौला। बाद में 1757 उसे भी हरा दिया गया। सिराजुद्दौला और अंग्रेजों की लड़ाई को प्लासी के युद्ध के नाम से जाना जाता है।
 
 
प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे 'प्लासी' नामक स्थान में हुआ था। इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर बंगाल के नवाब की सेना। कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था।
 
 
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इस युद्ध की जानकारी लंदन के इंडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध है। वहां भारत की गुलामी के समय के 20 हजार दस्तावेज उपलब्ध हैं। वहां उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुद्दौला के पास 18,000 सिपाही। उस समय ब्रिटिश सेना (1757 में) नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ युद्ध लड़ रही थी। आश्चर्यजनक रूप से कंपनी ने सिराजुद्दौला की सेना को हरा दिया था।
 
 
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ईस्ट इण्डिया कंपनी को भारत में लाने वाले मुगल जहांगर और उसके बाद के सम्राट शाहआलम द्वितीय असहाय सा कंपनी की फौजों का बढ़ते हुए देखता रहा। उसके देखते-देखते कंपनी ने मैसूर के मुस्लिम राज्य को हड़प लिया और हैदराबाद के निजाम को आत्म समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन वह कुछ नहीं कर सका। हालांकि वह इस बात से संतुष्य होता रहा कि कंपनी ने मराठों और राजपूतों को भी उखाड़ फेंकने के लिए अभियान चलाया हुआ है।
 
 
डेविड आक्टरलोनी, जो कंपनी की सेवा में एक मुख्य सेनानायक था, मराठों से दिल्ली की रक्षा की। वारेन हेस्टिंग्स (1813-23) के प्रशासन काल में मराठों द्वारा आत्म समर्पण कर दिए जाने के बाद तो मुगल सम्राट वस्तुत: कंपनी का एक रिटायर्ड और पेंशनयुक्त कर्मचारी बन कर रह गया। 1929 ई. में आसाम, 1843 ई. में सिन्ध, 1849 ई. में पंजाब और 1852 ई. में दक्षिणी बर्मा भी कंपनी के शासन में आ गया। बर्मा (वर्तमान म्यांमार) से पेशावर तक कंपनी का पूर्ण आधिपत्य था। कंपनी ने ब्रिटिश सेना की मदद से धीरे-धीरे अपने पैर फैलाना शुरू कर दिया और लगभग संपूर्ण भारत पर कंपनी का झंडा लहरा दिया। उत्तर और दक्षिण भारत के सभी मुस्लिम शासकों सहित सिख, मराठा, राजपूत और अन्य शासकों के शासन का अंत हुआ।
 
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भारत में ब्रिटेन का दो तरह से राज था- पहला कंपनी का राज और दूसरा 'ताज' का राज। 1857 से शुरू हुआ ताज का राज 1947 में खत्म हो गया। इससे पहले 100 वर्षों तक कंपनी का राज था। इतिहासकार मानते हैं कि 200 वर्षों के ब्रिटिश काल के दौरान संभवत: 1904 में नेपाल को अलग देश की मान्यता दे दी गई। फिर सन् 1906 में भूटान को स्वतंत्र देश घोषित किया गया। तिब्बत को 1914 में भारत से अलग कर दिया गया। इसके बाद 1937 में बर्मा को अगले देश की मान्यता मिली। इसी तरह इंडोनेशिया, मलेशिया भी स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। बाद में 1947 को भारत का एक और विभाजन किया गया। हालांकि इस पर कई इतिहासकारों में मतभेद हैं।

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