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मीना बाजार का कामी कीड़ा अकबर 'महान'

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रामसिंह शेखावत

भारत के ज्ञात इतिहास में कामुक वृत्ति के दो चरित्र मिलते हैं। एक मांडव का गयासुद्दीन और दूसरा अकबर। इनमें भी अकबर ने गयासुद्दीन को बहुत पीछे छोड़ दिया। गयासुद्दीन कामुक था किंतु अपनी काम-पिपासा के लिए वह अपने मालवा राज्य की हिन्दू प्रजा को ही सताता था। जहां कहीं किसी हिन्दू के घर में सुंदर स्त्री की खबर मिली नहीं कि उसके घुड़सवार लड़की को लेने उस हिन्दू के द्वार पर जा धमकते थे। एक बार मांडव के दुर्ग में पहुंचने के बाद लड़की की मुक्ति असंभव थी। हालांकि गयासुद्दीन ने मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों को बख्श दिया। 
लेकिन, अकबर ने तो मानवता की सारी मर्यादाएं तोड़ दी थीं। क्या शत्रु, क्या मित्र, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या प्रजा, क्या दरबारी, किसी की सुंदर बहन-बेटी इस 'कामी कीड़े' की वासना से नहीं बच पाई थी।
 
सारा देश गुलाम हो चुका था। विजित राज्यों से सुंदर महिलाएं लूट लाने का सिलसिला बंद हो गया था। पूरा भारत अकबर की प्रजा बन चुकी थी। मुस्लिम प्रजा के साथ-साथ हिन्दुओं ने भी परदा प्रथा को अपना लिया था। इस कारण बुरके और घूंघट में छिपी सुंदर स्त्रियों को ढूंढ निकालना आसान नहीं था। दरबारियों के जनानखाने सुंदर हिन्दू, मुसलमान महिलाओं से भरे पड़े थे। दरबारियों की कन्याएं भी जवान हो रही थीं, किंतु परदे की ओट में थीं। धूर्त अकबर ने अपने दरबारियों और प्रजा की सुंदर महिलाओं को खोजने का एक आसान उपाय निकाला। उसने राजधानी में मीना बाजार लगाने की परंपरा डाली। 
 
अकबर का मीना बाजार : आगरे के किले के सामने मैदान में मीना बाजार लगना प्रारंभ हुआ। शुक्रवार को पुरुष वर्ग तो पांच बार की नमाज में व्यस्त रहता था। इस दिन किले में और किले के आसपास पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। सारे मैदान में महिलाएं दुकान सजाकर बैठती थीं और महिलाएं ही ग्राहक बनकर आ सकती थीं।
 
अकबर का आदेश था कि प्रत्येक दरबारी अपनी महिलाओं को दुकान लगाने के लिए भेजे। नगर के प्रत्येक दुकानदार को भी हुक्म था कि उनके परिवार की महिलाएं उनकी वस्तुओं की दुकान लगाएं। इस आदेश में चूक क्षम्य नहीं थीं। किसी सेठ और दरबारी की मीना बाजार में दुकान का न लगाना अकबर का कोपभाजन बनना था।
 
धीरे-धीरे मीना बाजार जमने लगा। निर्भय बेपरदा महिलाएं खरीद-फरोख्त को घूमने लगीं। अकबर की कूटनियां और स्वयं अकबर स्त्री वेश में मीना बाजार में घूमने लगे। प्रति सप्ताह किसी सेठ या दरबारी की सुंदर महिला पर गाज गिरती। वह अकबर की नजरों में चढ़ जाती अकबर की कूटनियां किसी भी प्रकार उसे किले में पहुंचा देतीं।
 
कुछ तो लोकलाज का भय, कुछ पति के प्राणों का मोह, लुटी-पिटी महिलाओं का मुंह बंद कर देता। साथ ही अन्य महिलाओं द्वारा यदि पुरुषों तक बात पहुंचती भी तो मौत के डर से मन-मसोसकर रह जाते। अस्मतें लुटती रही और मीना बाजार चलता रहा।
 
कभी-कभी कोई अत्यंत सुंदर स्त्री अकबर को भा जाती और वह उसके घर वालों के संदेश भिजवा देता कि डोला हरम में भिजवा दें। यदि स्त्री विवाहित हुई तो उसके पति को तलाक के लिए बाध्य करता। इस प्रकार कई दरबारियों की कन्याएं और विवाहिताएं आगरे के किले में लाई गईं।
अकबर की वासना से दरबारी नाराज, हत्या की योजना बनाई... पढ़ें अगले पेज पर...

अकबर का आक्रमण : इस समय अकबर की उम्र 22 वर्ष थी। नित नई स्त्रियों का भोग निरंतर उसकी वासना को बढ़ा रहा था। उच्च वंश के शाह अबुल माली और मिर्जा शर्फुद्दीन हुसैन जैसे लोगों की महिलाएं भी अकबर की वासना की शिकार बनी थीं। इन्हीं दिनों एक शेख की पत्नी अकबर की निगाह में चढ़ गई। अकबर ने शेख पर दबाव डाला कि अपनी पत्नी को तलाक दे दे ताकि मैं उसे अपने हरम में डाल सकूं। न तो शेख अपनी पत्नी को छोड़ना चाहता था, न उसकी पत्नी ही इस पशु के पास जाना चाहती थी।
 
आगरा के और भी 10-12 परिवारों की महिलाओं को अकबर अपने हरम में डालना चाहता था। आखिर आगरा के चुनिंदा मुसलमान दर‍बारियों की एक गुप्त बैठक हुई जिसमें अकबर की हत्या की योजना बनाई गई। शर्फुद्दीन का एक हिन्दू गुलाम था फुलाद, बाड़मेर का रहने वाला, ऊंचा-पूरा, कद्दावर जवान आबूमाली के मित्र शर्फुद्दीन ने उसे अपनी गुलामी से मुक्त किया और बदले में अकबर को मार डालने का वचन लिया। 
 
सदा अंगरक्षकों से घिरे रहने वाले अकबर को तलवार या भाले से मारना संभव नहीं था। बंदूकें उस समय बारूद की एक नाल या दो नाल की हुआ करती थीं, जिनसे एक या दो बार ही फायर किया जा सकता था। तब निर्णय हुआ कि तीर से अकबर को मारा जाए। तीर भी अधिक दूरी से मारना था, इस कारण मजबूत कमान की जरूरत पड़ी ताकि तीर शरीर के भीतर तक पैठ सकें। फुलाद ने तीरंदाजी के अभ्यास में कई धनुष तोड़ डाले, फिर एक लोहे का बना कन्धहारी धनुष उसे दिया गया, लोहे के धनुष से अभ्यास के बाद घातक दल अवसर की ताक में रहने लगा।
 
आगरा में तो काम बना नहीं। पता लगा जनवरी 1564 में अकबर शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जियारत के लिए जाना चाहता है। घातक दल के लोग जनवरी के प्रथम सप्ताह में दिल्ली पहुंच गए और उपयुक्त स्थान की तलाश कर घात लगाकर बैठ गए। औलिया की दरगाह के मार्ग में माहम अनगा द्वारा निर्मित एक दुमंजिला मदरसा भी था। इसी मदरसे की छत पर फुलाद तीरों का तरकश लेकर जा बैठा। माहम अनगा के पु‍त्र आदम खां को किले की दीवार से गिराकर अकबर ने मरवाया था और पुत्र के गम में कुछ दिन बाद अनगा भी मर गई थी। अनगा का परिवार भी अकबर के खून का प्यासा था और हत्या-योजना में शामिल था।
 
11 जनवरी 1564 को अकबर ने औलिया की दरगाह पर जा दर्शन किए। अकबर दरगाह से लौट रहा था। उसके अंगरक्षक बिखरे हुए थे। कुछ तो साथ थे कुछ आगे बढ़ गए थे और कुछ दरगाह में प्रार्थना के लिए रुके थे। अकबर जैसे ही मदरसे के नीचे आया, एक सनसनाता तीर आकर उसका कंधा बिंध गया। अकबर जोर से चीख पड़ा। अंगरक्षकों ने उसे अपनी ढालों की ओट में ले लिया और तीर की दिशा में निगाहें दौड़ाईं। देखा तो मदरसे की छत से ए‍क विशालकाल व्यक्ति तीर बरसा रहा है। सन्नाते तीर अंगरक्षकों की ढालों से टकरा रहे थे। लोग मदरसे की ओर तलवारें सूंत दौड़ पड़े। फुलाद के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए।
 
अंगरक्षक घुड़सवारों ने अकबर की सवारी के मार्ग में आने वाले सभी बाजार बंद करवा दिए। प्रत्येक घर के खिड़की-दरवाजे बंद करवा दिए गए। घरों की छतों पर मुगल निशानेबाज बैठा दिए गए। इस प्रकार पूर्ण सुरक्षा के साथ अकबर दिल्ली के महल में लाया गया। तीर काफी भीतर तक धंस गया था और लगातार खून बह रहा था। कुशल जर्राहों (सर्जन) ने कंधे से तीर निकला। दस दिन तक हकीमों से इलाज करवा अकबर पालकी में बैठ आगरा लौटा। गहरे घाव के कारण वह घोड़े की सवारी के अयोग्य था और हाथी की सवारी में निशानेबाजों का खतरा था। (स्मिथ पृष्ठ 61)
 
मौत के भय ने अकबर को झकझोर दिया था। उसने बलात लोगों की पत्नियां छीनना तो बंद कर दिया, लेकिन मीना बाजार चलता रहा और महिलाओं की आबरू लुटती रही। फर्क इतना था कि औरतें हमेशा के लिए हरम में रोकी नहीं जाती थीं। एकआध दिन या कुछ घंटों के बाद छोड़ दी जाती थीं। 
...और अकबर की छाती पर चढ़ बैठी महाराणा प्रताप की भतीजी... पढ़ें अगले पेज पर...

किरण देवी की कटार : मीना बाजार के प्रवेश द्वार पर दुकान लगाने वाली महिलाओं के नाम वंश दर्ज होते थे। इसी प्रकार बाजार में खरीद के लिए प्रवेश करने वाली महिलाओं के नाम-परिवार दर्ज होते थे। इसी प्रकार बाजार में खरीद के लिए प्रवेश करने वाली महिलाओं के नाम-परिवार लिखे जाते थे।
 
अकबर ने देखा कि बीकानेर के राव कल्याणमल की बूढ़ी पत्नी नाममात्र के लिए दुकान लगाकर बैठती है, किंतु परिवार की सुंदर जवान औरतें आज तक मीना बाजार में नहीं आईं। वैसे राव कल्याणमल ने प्राणों के भय से अपनी कन्या अकबर को ब्याह दी थी किंतु नित नई स्त्रियों को भोगने की लालसा से अकबर ने राव कल्याणमल को संदेश भेजा कि आपके परिवार की महिलाएं एक बार भी मीना बाजार में खरीदी के लिए नहीं आई हैं, यह ठीक नहीं है।
 
लाचार हो राव कल्याणमल ने अपनी पत्नी से परामर्श किया व शुक्रवार को अपने बड़े बेटे रायसिंह की पत्नी को ‍दासियों के साथ मीना बाजार में भेजा। अनिष्ट की आशंका से बड़ी कंवरानी कांप उठी। रोती-सिसकती जिठानी की कातर आंखें आशा की अंतिम किरण की ओर उठीं, वह थी देवरानी किरण कुंवर। रणबांकुरे, सिसौदिया शक्तिसिंह की बेटी। हिन्दू सूर्य नर-नाहर महाराणा प्रताप की भतीजी। हिन्दू गौरव पृथ्वीसिंह राठौर की पत्नी। 
 
कंवरानी सा.! आज कौन बचाएगा मुझे? लगता है आज जीवन का अंतिम दिन आ गया है। रायसिंह की पत्नी ने किरण कुंवर से कहा।
 
'ठहरो भाभी सा. अभी आती हूं।' कहकर किरण कुंवर महल में गई और तीखी कटारी जूड़े में खोंसती बाहर आ गई। 'आप अकेली नहीं मरेंगी भाभी सा.! यह सिसौदियों की बेटी भी आपका साथ देगी।'
 
मीना बाजार के प्रवेश द्वार पर जैसे ही दोनों राठौर वधुओं ने बीकानेर राजपरिवार का नाम लिखाया, द्वार पर खड़ी कूटनियों ने अकबर को सूचना भिजवा दी। पृथ्वीसिंह की पत्नी किरण कुंवर का नाम सुनते ही अकबर खुशी से उछल पड़ा। जिस सिसौदिया घराने का डोला आज तक दिल्ली-आगरा के किसी बादशाह के हरम में नहीं आया, वही सिसौदिया की बेटी मीना बाजार में आ चुकी है।
 
अकबर ने दूर से देखा और किरण कुंवर के रूप को मुग्ध हो देखता ही रह गया। अब किरण कुंवर को मीना बाजार की किसी बंद छोलदारी (तंबू) से किले में लाने की जुगत भिड़ाई गई। एक मुगल दासी ने जुहार अर्ज की और कहा कि बीकानेर वाली बेगम साहिबा, जो इनकी ननद हैं, अपनी भाभियों को याद कर रही हैं।
 
दोनों देवरानी-जिठानी एक-दूसरे की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगीं। तब किरण कुंवर ने कहा- 'भाभी सा.! आप यहीं रुके, मैं अकेली जाती हूं। मेरी ओर से निश्चिंत रहें। मैं जौहर और शस्त्र से खेलने वाले परिवार की बेटी हूं। यह तुर्क मेरे जीवित शरीर को नहीं पा सकेगा' , कहकर किरण कुंवर किले के द्वार की ओर चल दी।
 
किले के द्वार पर तातार औरतें पहरा दे रही थीं। आज कोई पुरुष सैनिक किले में नहीं था। शाही खानदान के पुरुष भी या तो आमोद-प्रमोद के लिए बाहर चले जाते थे या किले के भीतरी कक्षों में रहते थे। किले के द्वार से आगे बढ़ किरण सुनसान मार्ग पर पहुंची। आगे-आगे चलती मुगल दासी व किरण कक्ष में गई ही थी कि पास के द्वार से निकल अकबर ने मार्ग रोक लिया। मुगल दासी शीघ्रता से भाग गई। अकबर शराब पिये था। किरण कुंवर के सामने तीन मार्ग थे। सम्मानपूर्ण मृत्यु या प्रतिरोधरहित रहकर अपनी इज्जत लुटवा लेना या जूड़े में खुंसी कटार लेकर अकबर को समाप्त कर देना।
 
क्षणमात्र में किरण ने निर्णय ले लिया और भूखी शेरनी की तरह अकबर पर टूट पड़ी। अकबर के लिए यह अप्रत्याशित था। वह कुछ सोच सके, इसके पूर्व ही वीरांगना किरण ने उसे भूमि पर दे पटका और छाती पर जा बैठी और लगी अकबर के मुंह पर घूंसों का प्रहार करने। अकबर का नशा काफूर हो गया। घूंसों की बौछार थमते ही अकबर ने देखा क्रोध से फुंफकारती किरण कुंवर ने जूड़े में खुंसी कटार निकाली, एक हाथ से अकबर के बाल पकड़े और कटार वाला हाथ ऊपर उठाया। साक्षात मौत अकबर के सामने नाचने लगी। हजारों महिलाओं की सतीत्व को लूटने वाला नरपिशाच कांग्रेसियों द्वारा कहने जाने वाला तथाकथित महावीर महान अकबर दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा।
 
'ओ देवी! मुझे माफ करो, मेरी जान बख्श दो, मैं तुम्हारी गाय हूं। मुझसे भारी गलती हो गई, अब कभी ऐसे पाप कर्म नहीं करूंगा।' 
 
किरण का हाथ रुक गया। वह विचार करने लगी। अकबर तो मर जाएगा, किंतु प्रतिशोध की ज्वाला में जेल में बंद मेरे पति मारे जाएंगे। मुगल तख्त खाली नहीं रहेगा, शहजादा सलीम बादशाह बन जाएगा। बदले की आग में मुसलमान सैनिक आगरे के हजारों हिन्दुओं को तबाह कर देंगे। हजारों हिन्दू महिलाओं का अपहरण होगा। मैं अकेली तख्त तो नहीं पलट सकती, हां परिस्थिति में सुधार कर सकूंगी। उसने अकबर के गले पर कटार रख दी और कहा मैं तुझे माफ कर सकती हूं।
क्या थी किरण कुंवर की शर्त... पढ़ें अगले पेज पर...

एक शर्त पर कि कुरान की कसम खा कि आज के बाद मीना बाजार नहीं लगेगा। अब किसी भी अबला की इज्जत पर आंच नहीं आएगी। अकबर ने कुरान की कसम खाकर सब स्वीकार‍ किया। किरण कुंवर किले से बाहर निकल आईं और उस दिन के बाद आगरा में फिर मीना बाजार नहीं लगा। (टाड राजस्थान)
 
हरम की बेगमों का वितरण : अपनी अनियंत्रित काम-वासनाओं के स्वभाव के कारण अकबर के प्राण दो बार संकट में पड़ चुके थे। धूर्त अकबर समझ गया कि दो बार तो जैसे-तैसे बच गया। यदि जान बचानी है तो आगे से यह सब बंद करना होगा। अत: मीना बाजार बंद होने के साथ-साथ अकबर के स्त्री-संग्रह की वृत्ति पर भी रोक लग गई। लेकिन अकबर के हरम में असंतोष के ज्वालामुखी आग उगलने को तैयार थे।
 
वे महिलाएं जिनके पिता-पति और भाइयों की हत्या कर अकबर उन्हें उठा लाया था, उनसे अकबर के प्राण संकट में पड़ सकते थे। हरम में आते-जाते, विलास कक्ष में रात बिताते, हरम की महिलाओं को अपनी सेवा के लिए बलात बाध्य करते अकबर को उनके तेवर देखने को मिलते रहते थे। अकबर ने तुरंत निर्णय लिया और एक दिन दरबार में अपने मुस्लिम सामंतों, दरबारियों और नवरत्नों को एकत्र कर हरम की पांच हजार औरतें उनमें वितरित कर दीं।
 
मोंसरात (गोवा का पादरी) कहता है कि अकबर ने मात्र एक पत्नी रखी थी, लेकिन यह सत्य नहीं है। मानसिंह की बुआ के साथ अकबर के हरम में अपने गुरु बैरम खां की पत्नी खानेजमां और उसके भाई बहादुर खां की पत्नी और आदम खां की पत्नी की उसके हरम में मौजूद थीं। बदायूंनी के अनुसार उसने हरम की 5,000 औरतों में से सिर्फ 16 औरतें चुनकर रख लीं, बाकी अपने दरबारियों में बांट दीं। 
 
'आईने अकबरी' के अनुसार अकबर कहता है कि यदि मुझमें पहले बुद्धि होती, तो मैं अपने राज्य की किसी स्त्री को जबरन हरम में नहीं डालता। (स्मिथ पृष्ठ 270)
 
यह कैसा महान? : परिजनों की हत्या कर असहाय अबलाओं को बलात हरम में डालने वाला क्या महान हो सकता है? उनके परिवारों से छीनकर एकत्र की गईं महिलाओं को निर्जीव वस्तु या पशुओं की तरह दरबारियों में वितरित कर देने वाला क्या महान हो सकता है? इज्जत के साथ अपनी गृहस्थी में सुख-शांति से रह रहीं 5000 महिलाओं को इस वासना के कीड़े ने वेश्या बना डाला। फिर भी कहा जाता है अकबर महान।

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