प्राचीन भारत के अनेक जनपदों में से एक था महाजनपद- मगध। मगध पर क्रूर धनानंद का शासन था, जो बिम्बिसार और अजातशत्रु का वंशज था। सबसे शक्तिशाली शासक होने के बावजूद उसे अपने राज्य और देश की कोई चिंता नहीं थी। अति विलासी और हर समय राग-रंग में मस्त रहने वाले इस क्रूर शासक को पता नहीं था कि देश की सीमाएं कितनी असुक्षित होकर यूनानी आक्रमणकारियों द्वारा हथियाई जा रही है।
मगध बौद्ध काल तथा परवर्तीकाल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। पहले इसकी राजधानी थी गिरिव्रज (राजगीर) बाद में इसकी राजधानी बनी पाटलीपुत्र। इस राज्य में अति प्रसिद्ध एक नगर था- वैशाली नगर। यहां की एक नगरवधू विश्व प्रसिद्ध थी जिसे आम्रपाली कहा जाता था। आम्रपाली बौद्ध काल में वैशाली के वृज्जिसंघ की इतिहास प्रसिद्ध राजनृत्यांगना थी।
पहले इस मगध पर वृहद्रथ के वीर पराक्रमी पुत्र और कृष्ण के दुश्मनों में से एक जरासंध का शासन था जिसके संबध यवनों से घनिष्ठ थे। जरासंध के इतिहास के अंतिम शासक निपुंजय की हत्या उनके मंत्री सुनिक ने की और उसका पुत्र प्रद्योत मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
प्रद्योत वंश के 5 शासकों के अंत के 138 वर्ष पश्चात ईसा से 642 वर्ष पूर्व शिशुनाग मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। मगध के राजनीतिक उत्थान की शुरुआत ईसा पूर्व 528 से शुरू हुई, जब बिम्बिसार ने सत्ता संभाली। बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु ने बिम्बिसार का कार्यों को आगे बढ़ाया।
अजातशत्रु ने विज्यों (वृज्जिसंघ) से युद्ध कर पाटलीग्राम में एक दुर्ग बनाया। बाद में अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने गंगा और शोन के तट पर मगध की नई राजधानी पाटलीपुत्र नामक नगर की स्थापना की। पाटलीपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए नंद वंश के प्रथम शासक महापद्म नंद ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और मगध साम्राज्य के अंतिम नंद धनानंद ने उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता संभाली। बस इसी अंतिम धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य ने शपथ ली थी। हलांकि धनानंद का नाम कुछ और था लेकिन वह धनानंद नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हुआ।
तमिल भाषा की एक कविता और कथासरित्सागर अनुसार नंद की '99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं' का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था।
#
मगध के सीमावर्ती नगर में एक साधारण ब्राह्मण आचार्य चणक रहते थे। चणक को हर वक्त देश की चिंता सताती रहती थी। एक और जहां यूनानी आक्रमण हो रहा था तो दूसरी ओर पड़ोसी राज्य मालवा, पारस, सिंधु तथा पर्वतीय प्रदेश के राजा भी मगध का शासन हथियाना चाहते थे।
चणक ने तय किया था कि मैं अपने पुत्र कौटिल्य को ऐसी शिक्षा दूंगा कि राज्य और राजा उसके सामने समर्पण कर देंगे। चणक चाहते थे किसी तरह महामात्य के पद तक पहुंचना। इसके लिए उन्होंने अपने मित्र अमात्य शकटार से मंत्रणा कर धनानंद को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। अमात्य शकटार महल का द्वारपालों का प्रमुख था।
लेकिन गुप्तचर के द्वारा महामात्य राक्षस और कात्यायन को इस षड्यंत्र का पता लग गया। गुप्त संदेश द्वारा चणक और शकटार की मुलाकात का पता चल गया। उसने धनानंद को इस षड्यंत्र की जानकारी दी। दरअसल, शकटार के खुद के भरोसेमंद द्वारपाल देवीदत्त ने यह गुप्त सुचना पहुंचाई थी।
महामात्य ने देवीदत्त से चणक की सारी जानकारी ली और उन्होंने चणक को बंदी बना लिए जाने का आदेश दिया। यह बात सबसे पहले चणक के पुत्र कौटिल्य को पता चली जबकि वे बहुत ही छोटी उम्र के थे। चणक को बंदी बना लिया गया और राज्यभर में खबर फैल गई कि राजद्रोह के अपराध में एक ब्राह्मण की हत्या की जाएगी।
चणक का कटा हुआ सिर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया। पिता के कटे हुए सिर को देखकर कौटिल्य (चाणक्य) की आंखों से आंसू टपक रहे थे। उस वक्त चाणक्य की आयु 14 वर्ष थी। रात के अंधेरे में उसने बांस पर टंगे अपने पिता के सिर को धीरे-धीरे नीचे उतारा और एक कपड़े में लपेटा।
अकेले पुत्र ने पिता का दाह-संस्कार किया। तब कौटिल्य ने गंगा का जल हाथ में लेकर शपथ ली- 'हे गंगे, जब तक हत्यारे धनानंद से अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध नहीं लूंगा तब तक पकाई हुई कोई वस्तु नहीं खाऊंगा। जब तक महामात्य के रक्त से अपने बाल नहीं रंग लूंगा तब तक यह शिखा खुली ही रखूंगा। मेरे पिता का तर्पण तभी पूर्ण होगा, जब तक कि हत्यारे धनानंद का रक्त पिता की राख पर नहीं चढ़ेगा...। हे यमराज! धनानंद का नाम तुम अपने लेखे से काट दो। उसकी मृत्यु का लेख अब मैं ही लिखूंगा।'
प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहे चणक पुत्र कौटिल्य जब एक जंगल में मूर्छित पड़े थे तब एक पंडित ने उनके चेहरे पर पानी छींटा, तब चेतना जाग्रत हुई। ऋषि ने पूछा- बेटा तेरा नाम क्या है? कौटिल्य ने सोचा- कौटिल्य या चणक नाम इस पंडित को पता नहीं चले अन्यथा धनानंद को पता चलता रहेगा कि मैं कौन हूं, यही सोचकर कौटिल्य ने अपना नाम बताया- विष्णुगुप्त।
विष्णुगुप्त ने कहा कि मैं कई दिनों से भूखा हूं, चक्कर आने पर गिर गया था। दयालु ईश्वर, आप मुझ अनाथ पर कृपा करें। पंडित ने कहा- कोई बात नहीं, तुम मेरे साथ चलो। मैं एक गांव का अध्यापक हूं और मैं भी अकेला हूं।
उन विद्वान पंडित का नाम था राधामोहन। राधामोहन ने विष्णुगुप्त को सहारा दिया। राधामोहन के गांव में कुछ दिनों तक रहने के बाद उन्होंने विष्णुगुप्त से कहा, मेरे एक सहपाठी पुण्डरीकाक्ष हैं, जो आजकल तक्षशिला (पाकिस्तान के रावलपिंडी जिले में) में आचार्य के पद पर हैं। मैं तुम्हें उनके नाम एक पत्र लिखता हूं। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी प्रतिभा के आधार पर तुम्हारा चयन हो जाएगा।
इस तरह चाणक्य ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए अपने जीवन का पहला कदम बढ़ाया। समय बीतता गया और अपने ज्ञान, विनम्रता, निष्ठा और लगन के बल पर विष्णुगुप्त ने सभी आचार्यों और विद्यार्थियों का दिल जीत लिया। इस विद्यालय में जहां देश-विदेश के धनाढ्य लोगों के पुत्र पढ़ने आते थे वहीं राजा-महाराजा के पुत्र भी पढ़ते थे।
अंत में विष्णुगुप्त कुलपति के अनुरोध पर इस विश्वविद्यालय के आचार्य पद पर आसीन हुए। जब विष्णुगुप्त आचार्य थे, तब सिकंदर का आक्रमण हुआ था। मातृभूमि की रक्षा के लिए विष्णुगुप्त ने सभी राजाओं से पोरस की रक्षा करने का आह्वान किया। सबसे शक्तिशाली राजा धनानंद ही था। उस वक्त चाणक्य उर्फ विष्णुगुप्त की उम्र लगभग 45 वर्ष की थी और उस वक्त तक्षशिला का राजा आम्भी था। अभ्मी तो पोरस (पुरु) से ईर्ष्या रखता था तो वो क्यों साथ देता, लेकिन..सिकंदर ने एक रात जब झेलम नदी उफान पर थी तब पोरस के राज्य पर आक्रमण कर दिया। पोरस ने सोचा था कि सिकंदर तब आक्रमण करेगा जब झेलम का उफान कम होगा, लेकिन अचानक हुए आक्रमण से पोरस को हार का सामना करना पड़ा।
पोरस को बंदी बना लिया गया तब सिकंदर ने उससे पूछा- 'आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाए?' पोरस ने कहा- 'वही जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।' पोरस का यह जवाब सुनकर सिकंदर उससे बहुत ही प्रभावित हुआ और उसने पोरस के राज्य पर से अपना अधिकार हटा लिया, लेकिन आसपास के राज्यों पर आक्रमण कर उन्हें तहस-नहस कर दिया।
सिकंदर की हार और तक्षशिला पर सिकंदर के प्रवेश के बाद विष्णुगुप्त अपने गृह प्रदेश मगध चले गए। चणक पुत्र कौटिल्य के रूप में पहचान लिए जाने के डर से विष्णुगुप्त ने अपने नगर तक्षशिला के बाहर ही रहना पसंद किया। एक दिन उनके पैर में एक कांटा चुभने पर वे कांटे के संपूर्ण मार्ग पर मट्ठा डाल रहे थे तब एक वृद्ध ने कहा- कांटों पर गुस्सा क्यों करते हो ब्राह्मण? विष्णुगुप्त ने सिर उठाकर देखा तो वे चौंक गए, क्योंकि यह तो उनके पिता का मित्र शकटार, जो अब बेहद ही वृद्ध हो चला था।
दोनों ने एक-दूसरे को पहचानने का प्रयास किया। विष्णुगुप्त शकटार को अपनी कुटिया में ले गए और पहले उन्होंने राज्य के हाल-चाल जाने। शकटार ने कहा- धनानंद तो अब और भी विलासिता और निरंकुशता में रहता है और अब राज्य का वास्तविक शासक तो महामात्य राक्षस ही है। राक्षस ने प्रतिशोध करने वाले सभी लोगों को मार दिया।
अंत में चाणक्य ने शकटार को बताया कि मैं ही कौटिल्य हूं, तब चाणक्य ने शकटार के रथ में बैठकर अपने नगर का भ्रमण किया। राजमहल भी देखा और राजदरबार की व्यवस्था भी देखी। उस समय राजदरबार में नर्तकियां नृत्य कर रही थीं।
इसके बाद राज्य की साप्ताहिक समीक्षा की कार्रवाई शुरू हुई। विष्णुगुप्त से यह सब नृत्य और राजा की चाटुकारिता देखी नहीं गई और रोष में भरकर वे दरबार के मध्य में आ गए। इस अज्ञात ब्राह्मण को देख सभी चौंक गए। सांवला लेकिन तेजयुक्त शरीर, केशहीन सिर पर खुली हुई शिखा, गले में रुद्राक्ष की माला, यज्ञोपवीत आदि देख राजा भी चौंका और संभलकर प्रश्न किया- 'क्या बात है ब्राह्मणदेव! आप कौन हैं? कहां से आए हैं?'
चाणक्य ने उस दरबार में क्रोधवश ही अपना परिचय तक्षशिला के आचार्य के रूप में दिया और राज्य के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने यूनानी आक्रमण की बात भी बताई और शंका जाहिर की कि यूनानी हमारे राज्य पर भी आक्रमण करने वाला है। इस दौरान उन्होंने राजा धनानंद को खूब खरी-खोटी सुनाई।
विष्णुगुप्त की बात सुनकर राजा भड़क गया और उसने कहा- इस मूर्ख ब्राह्मण को कौन लाया है यहां पर? तब शकटार खड़े हुए और उन्होंने कहा- महाराज क्षमा! मैं तक्षशिला के मार्तण्ड ब्राह्मण को आपके यहां लाया था। इन्हें आचार्य विष्णुगुप्त कहते हैं जिनके ज्ञान की चर्चा दूर-दूर तक है और जो रसायन, ज्योतिष, अर्थशास्त्र आदि के प्रकांड विद्वान हैं।
राजा ने चाणक्य को देखकर उपहास किया- प्रकांड पंडित...मार्तण्ड विद्वान...यह कुरूप और शक्तिहीन काला ब्राह्मण? अरे शकटार क्यों आचार्य विष्णुगुप्त को बदनाम और अपमानित करते हो? राजा के उपहास उड़ाने के साथ ही सभी चाटुकारी दरबारी भी जोर-जोर से हंसने लगते हैं।
तब विष्णुगुप्त अपनी शपथ को धनानंद के समक्ष दोहराते हैं। इससे पूर्व कि राजा चाणक्य को बंदी बनाने के आदेश देते, विष्णुगुप्त तेज कदमों से चलकर महल से बाहर निकल आते हैं।
कटार के द्वार पर एक रात्रि एक बेहद वृद्ध भिक्षु आकर रुकता है और द्वारपाल से कहता है कि जाओ शकटार से कहो कि 'कौटिल्य' आया है आपसे मिलने। चाणक्य ने वेश बदल लिया था।
चाणक्य जानते थे कि इस वक्त राजा के सैनिक विष्णुगुप्त को खोज रहे हैं और कौटिल्य नाम से केवल शकटार ही जानते थे। यह अजीब संयोग ही था कि पिता के साथ हुई घटना कौटिल्य दोहरा रहा था। उसके पिता ने भी इसी तरह रात्रि में शकटार से मंत्रणा की थी और बाद में उनका सिर कलम कर दिया गया था।
शकटार को जब यह पता चला तो वे चौंक गए और फिर सहज भाव से कहा- आने दो उसे भीतर। भीतर जब कौटिल्य पहुंचे तो शकटार ने कहा तुम ये क्या कर रहे हो? तुम्हें किसी ने देख लिया तो हम दोनों मारे जाएंगे। चाणक्य ने कहा कि कुछ नहीं होगा तुम निश्चिंत रहो।
तब शकटार और चाणक्य के बीच धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने पर विचार-मंत्रणा हुई। तब चाणक्य ने कहा कि हमें मगध के भावी शासक की खोज करना होगी। बड़े सोच विचार के बाद इस दौरान शकटार ने बताया कि एक युवक है, जो धनानंद के अत्याचारों से त्रस्त है। उसका नाम है- चंद्रगुप्त।
साभार : वेबदुनिया संदर्भ ग्रंथ