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अंतिम दिन लाखों श्रद्धालुओं ने लगाई डुबकी

13 मई तक चलेगा अधिमास का स्नान

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हमें फॉलो करें 28 अप्रैल 2010
- महेश पाण्डे
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कुंभनगरी में 28 अप्रैल को 165 वर्षों बाद पड़े अक्षय माह का स्नान कर श्रद्धालुओं ने पुण्य लाभ अर्जित किया। कुंभकाल का अंतिम स्नान होने से लाखों श्रद्धालु इस स्नान में जुटे। सर्वाधिक भीड़ इस स्नान के लिए ब्रह्मकुंड घाट में ही जुटी। वैशाख पूर्णिमा का अधिक मास हर तीसरे साल के बाद आता है। इस कारण तो यह स्नान खास था ही लेकिन अक्षय माह के कारण भी इस स्नान का विशेष महत्व था।

यह माना जाता है कि अक्षय माह का दान-पुण्य सीधे भगवान विष्णु को प्राप्त होता है। आज के स्नान में न तो शाही स्नान के लिए हर की पौडी या ब्रह्मकुंड जाने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध था न ही अन्य प्रतिबंध। बेहद खुशनुमा माहौल में श्रद्धालुओं ने गंगा में जमकर डुबकियाँ लगाईं। प्रशासन ने इस मौके पर लगभग 20 लाख से अधिक श्रद्धालुओं द्वारा डुबकी लगाने का दावा किया है।

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अंतिम पर्व स्नान के सकुशल सम्पन्न होने से प्रशासन ने भी राहत की साँस ली है। हालाँकि कुंभ के दरमियान श्रद्धालुओं की भीड़ एवं तमाम आश्रमों के यहाँ अड्डा जमाने अखाड़ों के साधु-संतों की व्यवस्था में जुटे होने से प्रशासन का ध्यान व्यवस्थाओं के सकुशल संपन्न कराने में था। कुंभनगरी में अब कू़ड़े का बिखराव एक समस्या बनी है, तथापि इस समस्या पर अब प्रशासनिक कवायद का वक्त प्रशासन को मिल सकेगा।

हालाँकि कुंभ का वैशाख पूर्णिमा का स्नान अंतिम पर्व स्नान संपन्न होते ही कुंभकाल को प्रशासनिक तौर पर समाप्त मान लिया जाएगा। कुंभ के लिए 1 जनवरी से 30 अप्रैल तक ही अधिसूचना जारी होने से 1 मई से कुंभनगरी पूर्ववत प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन आ जाएगी। तथापि नक्षत्रों एवं ग्रहों की स्थिति के अनुसर मेष संक्रांति से शुरू हुआ स्नान अभी 13 मई तक लगातार जारी रहेगा।

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इस अधिमास, जिसे पुरुषोत्तम मास कहा गया है, का स्नान 13 मई तक जारी रहने से श्रद्धालुओं का स्नानार्थ आना-जाना तब तक जारी रहेगा, ऐसी उम्मीद की जा रही है। इस अंतिम पर्व स्नान के सम्पन्न होने के साथ ही कुंभनगरी के सभी साधु-संत भी अब हरिद्वार से विदाई को तैयार हैं। 28 अप्रैल के पर्व स्नान में हालाँकि अधिसंख्य संत यहाँ से जा चुके थे। तथापि तेरहों अखाड़ों के जो प्रतिनिधि कुंभनगरी में मौजूद थे, वैशाख पूर्णिमा के इस स्नान का उन्होंने भी स्नान कर पुण्य अर्जित किया।

संतों ने भी आम श्रद्धालुओं के बीच स्नान कर उन्हें निहाल कर दिया। यह स्नान उनकी शाही सवारी के साथ नहीं हुआ, तथापि उन्होंने इष्ट देव का स्मरण कर गंगा की डुबकी लेकर गंगा पूजन का पुण्य लाभ अर्जित कर अपने-अपने स्थानों की राह पकड़ने की तैयारी इस अंतिम स्नान के साथ ही शुरू कर दी है।

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