Sawan posters

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia

आज के शुभ मुहूर्त

(देवशयनी एकादशी)
  • तिथि- आषाढ़ शुक्ल एकादशी
  • शुभ समय-9:11 से 12:21, 1:56 से 3:32
  • त्योहार/व्रत/मुहूर्त-देवशयनी एकादशी, चातुर्मास प्रारंभ, पंढरपुर मेला, मोहर्रम ताजिया
  • राहुकाल- सायं 4:30 से 6:00 बजे तक
webdunia

कुंभ संगम तट : गंगा का लोक स्वरूप

Advertiesment
हमें फॉलो करें गंगा नदी
WD
गंगा केवल नदी न होकर आस्था एवं श्रद्धा की शाश्वत संजीवनी बन गई और राजा, रंक, फकीर, अधिकारी, व्यापारी, किसान सब मां गंगा की कृपा पर पूरी तरह से निर्भर हो गए।

हमारे बीच गंगा आज अद्‌भुत जीवनदायिनी शक्ति की तरह विद्यमान है। यही कारण है कि हम अनेक उत्सवों, पर्वों, संस्कारों के अवसरों पर गंगा का पूजन करते हैं और कामना करते हैं कि मां गंगा धन-धान्य से सम्पन्न बनाएं, जीवन मंगलमय करें।

विवाहिता स्त्रियां मां होने की कामना से गंगा का पूजन करती हैं। न जाने कितने जोड़े गंगा में गांठ जोड़कर स्नान करते हैं, पूजन करते हैं। हमारे परिवार का हर मांगलिक कार्य गंगा के पूजन से शुरू होता है और पूजन से ही सम्पन्न होता है।

गंगा जहां ज्ञान का प्रतीक रही हैं वहीं यमुना और सरस्वती भक्ति और कर्म के रूप में मानी जाती रही है। प्रयाग त्रिवेणी को 'वेद का बीज' कहा जाता है तथा गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम स्थल 'ॐ' स्वरूप माना जाता है।

वेदों, पुराणों, उपनिषदों में गंगा का चाहे जो भी स्वरूप रहा हो, किन्तु लोग मानस में गंगा पापों को धोने वाली, पुत्र देने वाली, बिछुड़े को मिलाने वाली तथा डूबते को बचाने वाली देवी के रूप में ही जानी-पहचानी जाती हैं। हमारे मुंडन-छेदन से लेकर अंतिम संस्कार तक गंगा की पावन जल धारा में समाहित हो गए हैं। गंगा हमारे धर्म और आस्था का पर्याय बन गई है।

मान-मनौती, टोने-टोटके, आस्था-विश्वास, शकुन-अपशकुन तथा पूजा-पाठ हमारे लोकजीवन की अखण्ड परम्परा रही है। हमारा गांव हमेशा से इन्हीं मान्यताओं में जीता जागता आया है।

एक युवती गंगा में डूब मरना चाहती है। उसकी कोई संतान नहीं है। संतानहीन युवती समाज में कितनी अपमानित, तिरस्कृत एवं उत्पीड़ित की जाती है यह किसी से छिपा नहीं है। मां गंगा ने उसकी पीड़ा को समझा और पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। युवती यह सुनकर धन्य हो गई।

उसने गंगा को पियरी चढ़ाने तथा सोने का घाट बंधवाने का वादा किया। पूरे लोकगीत में गंगा की दयालुता, कृपालुता तथा नारी पीड़ा का गहरा भाव समाया हुआ है।

'ऊंचे कगार गंगाजी के आले-बांसे छाबा
ओहि तर ठाढ़ि तिरियवा विलखि के रोवई।
गंगा माई दइद लहरिया, डूबि मरि जाइत।
एतना सुनी जब गंगा, लहरिया एक फेकइं
तिरिया आजु के नवयें महिनवां होरिल तोरे होइहइ ।
गंगा जब मोरे होई हैं, होरिलवा पिपरिया लइके अडवइ
अउर सोने से बंधउबई तोर घाट पियरिया लइके अउवई।'

गोरी का खड़ी होकर गंगा स्नान करना तथा मछली द्वारा झुलनी छीनकर भागना सहज एक संयोग नहीं दुर्भाग्य भी कहा जा सकता है। ससुर के पास संदेश भेजना तथा गंगा में जाल डालने का प्रस्ताव जहां एक ओर नारी का गहनों के प्रति होने वाले लगाव को व्यक्त करता है, वहीं दूसरी ओर झुलनी के गायब होने का भय भी मन में हलचल पैदा कर रहा है। नारी मन के इसी द्वंद्व को प्रस्तुत लोकगीत में व्यक्त किया गया है।

'ठाढ़ गोरी गंगा नहाइं
झुलनियां, लइगइ मछरियां।
जाइ कहअ मोरे ससुर के आगे
गंगा में जलिया छो़ड़ावाइं
झुलनियां लइगइ मछरियां।'

हमारे लोकगीतों में गंगा के अनेक स्वरूप देखन-सुनने को मिलते हैं। जिसे लोकगीतकारों ने हर परिस्थितियों में जांचा-परखा है। एक विवाह गीत में पिता अपनी बेटी से कहता है कि कुएं का पानी सूख गया है, कमल मुरझा गए हैं तथा गंगा-यमुना के बीच में रेत पड़ गई है। भयंकर अकाल सामने खड़ा है, तुम्हारा विवाह कैसे करूं ? कुआं-बावड़ी का पानी सूख जाना तो आम बात है, मगर गंगा-यमुना में रेत पड़ना सामान्य बात नहीं है।

'कुअंना के पानी, झुराई गए बेटी
पुरइन गईं हैं कुम्हलाई।
गंगा जमुना बीच रेतु पड़तु हैं
कइसे मैं रचाऊं वियाह।'

गंगा से राम का गहरा लगाव था। इसका वर्णन वाल्मीकि और तुलसी ने अलग-अलग ढंग से किया है, किन्तु लोकगीतों में राम और गंगा का वर्णन सीधे संस्कारों से जुड़ गया है। गर्मी का मौसम, राम, सीता से विवाह करने जा रहे हैं। इस पार में गंगा और उस पार में यमुना प्रवाहित हो रही है, किन्तु दोनों नदियों के बीच में कदम्ब वृक्ष की शीतल छाया है, जहां राम अपनी पालकी तथा लक्ष्मण अपना घोड़ा संवार रहे हैं-

'एहि पार गंगा रे ओहि पार जमुना
बिचवा कदम जुड़ छांह
तेहि तर राम आपनी पालकी संवाराइं
लछिमन संवारइं आपन घोड़ा।'

कहीं हमारा लोक जीवन गंगा को जल से भरी-पूरी लहराती हुई देखना चाहता है, तो कहीं गंगा के सूखने की कामना करता है। एक वियोगिनी सखी से कहती है कि क्यों गंगा सूखेंगी? सेवार दह लेगी तथा क्यों मेरे प्रियतम वापस आएंगे? क्यों मैं अपने दुःख को कह सकूंगी? सखि उसे गंगा के सूखने तथा प्रियतम के आने का समय बड़े सहज ढंग से बता देती है। मिलन में दीवार बनी गंगा का लोकरूप देखने योग्य है-

'काहे के गंगा झुरइहीं, सेवल दह लेइहइं हो
सखियां काहेक अइहीं प्रभु भोर कहब दुःख अपन हो।
जेठहि गंगा झुरइहीं, असाढ़ दह लेइहइं हो
सखियां कार्तिक अइहीं प्रभु तोर कहउ दुःख आपन हो।'

माहात्म्य की दृष्टि से गंगा सब नदियों में बड़ी मानी जाती हैं, किन्तु लम्बाई में गोदावरी नदी बड़ी हैं। तीर्थों में प्रयाग और नगरी में अयोध्या बड़ी है। इस संदर्भ में अनेक लोकगीत प्रचलित हैं-

'गंगा अहइ बड़ी गुदावरी
तीरथ बड़ी परयाग
सबसे बड़ी अयोध्या नगरी
जंह भगवान लिहेन अवतार।'

जहां राम झुलनी की छांह में बैठाए जाते हों और जहां झांझर गेड़आ में गंगा का शीतल पानी हो, उसे रस बेनिया की शीतल हवा में कौन नहीं घूंटेगा? यह है गंगा जल की महिमा

'बिइठा मोरे राम ! झुलनियां के छहियां।
झझरेन गेडुआ गंगा जल पानी
घूंटइ मोरे राम डोलाऊं रस बेनियां ।'

बेटी का गवना हो रहा है। ससुराल जाने की तैयारी हो रही है। बेटी के वियोग में बाबा इतना रोते हैं कि आंसुओं से गंगा में बाढ़ आ जाती है। माता के रोने से आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। भाई के रोने से पैर तक धोती भीग जाती है, किन्तु निष्ठुर भाभी के नेत्रों में आंसू ही नहीं दिखाई देते। पारिवारिक सम्बन्धों को गहराई से खोलता प्रस्तुत गीत उल्लेखनीय है-

'बाबा के रोवले गंगा बढ़ि अइला
अम्मा के रोवले अनोट।
भइया के रोवले चरण धोती भीजे
भऊजी नमनवां न लोर।'

इस प्रकार हम देखते हैं कि गंगा हमारी श्रद्धा एवं विश्वास की प्रतिमूर्ति हैं।

- वेबदुनिया संदर्भ

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi