देवभूमि उत्तराखंड के प्रवेशद्वार हरिद्वार को विष्णुपुरी भी कहते हैं। कहा जाता है कि समुद्र-मंथन से प्राप्त हुए अमृत-कलश के लिए देव व दानवों के बीच जो बारह दिनों का युद्ध चला उसमें सूर्य, बृहस्पति एवं चंद्रमा की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सूर्य ने कुंभ (कलश) को फूटने से, बृहस्पति ने लुटने से और चंद्रमा ने छलकने से बचाया इसलिए जब भी सूर्य, बृहस्पति एवं चंद्रमा का योग होता है तो आस्थावान हिंदू इसे पावन पर्व के रूप में देखते हैं और कुंभ के आयोजन में जुटते हैं। यह सदियों से चली आ रही परंपरा है।
हरिद्वार में हर की पौड़ी को ब्रह्मकुंड कहा जाता है। कहते हैं कि इसी जगह समुद्र मंथन के बाद अमृत कलश रखा गया था। यूँ तो 52 फुट लंबी धर्म-ध्वजा की स्थापना के बाद ही महाकुंभ का असल शुभारंभ माना जाता है जो 26 जनवरी को स्थापित की जाएगी। परंपरा से दशनामी संन्यासियों को पहले स्नान का अधिकार प्राप्त है। इन संन्यासियों के सात अखाड़े है। कुंभ का वर्तमान स्वरूप जगतगुरु शंकराचार्य की देन है। कुंभ का भव्य जुलूस मुख्य मार्गों से निकाले जाने की परंपरा है। इसमें विविध रूप-रंग के साधु-संन्यासी भाग लेते हैं। इनमें नागा साधुओं की संख्या सर्वाधिक होती है जो अपने करतबों से अपनी शक्ति एवं भक्ति दोनों का प्रदर्शन करते हैं।
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कमोवेश पाँच हजार वर्ष पूर्व से ही नागा संन्यासी कठोर व्रतधारी एवं 'वीर शैव धर्म' के अनुयायी माने जाते रहे हैं। इनके संस्थापक संत लाकुलीश गुजरात के भृगु क्षेत्र में जन्मे थे। कहते हैं कि इनके द्वारा दीक्षित पहले 18 शिष्यों ने ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना भी की। स्वभाव से उग्र इन साधुओं की जीवनचर्या बेहद कठोर तो दूसरी ओर विलक्षण भी होती है। अस्त्र-शस्त्र लेकर चलने वाले ये साधु बेहद संगठित हैं। इनका स्वभाव घुमक्कड़ है। लोग इन्हें सैनिक संन्यासी भी कहते हैं। कहने को तो यह भी कहते हैं कि सनातन धर्म की रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए इन संन्यासियों की फौज शंकराचार्य ने ही तैयार की थी।
इसके लिए उन्होंने जंगल में रहनेवाले आदिवासियों को एकत्रित किया और संन्यासी योद्धाओं की टीम बनाई जो भाला, बरछी, फरसा व तीर-कमान चलाने में सिद्धहस्त थे। इन साधुओं को उनके भौगोलिक प्रवास के आधार पर अरण्य, आश्रम, सरस्वती, पुरी, गिरी, तीर्थ, भारती, वन, पर्वत और सागर के रूप में वर्गीकृत कर 'दशनामी' कहा गया। इन साधुओं ने मातृभूमि की रक्षार्थ सिकंदर महान के खिलाफ भी युद्ध किया। जरूरत पड़ने पर इन्होंने आम जनता और देश को विदेशी आक्रांताओं से बचाया।
अपने उग्र स्वभाव के कारण ये मेलों में स्थान प्राप्ति या स्नान को लेकर भी भिड़ते देखे गए हैं जो कई खूनी संघर्ष में भी बदल गया है। कुंभ व अर्द्धकुंभ नागाओं के लिए विशेष महत्व रखते हैं। इन धार्मिक अवसरों पर नागा संन्यासियों को दीक्षा देकर उन्हें पूर्ण नागा संन्यासी के रूप में अखाड़ों में सौंपा जाता है।