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मोक्ष से पहले मन से 'जय गंगे'

- आलोक मेहता

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विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला 'कुंभ' हरिद्वार में धूमधाम से जारी है। लाखों लोग, हजारों साधु-संत, विदेशी पर्यटक 'जय गंगे' कहते हुए गंगा में डुबकी लगा रहे हैं। हिमालय से निकली गंगा 2510 किलोमीटर का रास्ता बनाती बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती है।

गंगोत्री से गंगा सागर तक लोग गंगाजल के स्पर्श तक से धन्य हो जाते हैं। गंगाजल भारत के घरों में ही नहीं, विदेशों में बैठे प्रवासी भारतीयों के लिए भी हर पुनीत अवसरों और मृत्यु की घड़ी में पवित्रतम माना जाता है। फिर भी गंगा की पवित्रता की व्यावहारिक चिंता कितनों को है?

गंगा किनारे 29 शहर, 70 कस्बे और हजारों गाँव बसे हैं और उनके गंदे नालों-नालियों की लगभग 1 अरब 30 करोड़ लीटर जहरीली गंदगी प्रतिदिन पावन गंगा में मिल जाती है। यही नहीं, गंगा किनारे बसी और फली-फूली औद्योगिक बस्तियों का सड़ा-गला 26 करोड़ लीटर खतरनाक कचरा भी समाहित हो जाता है। यही कारण है कि गंगोत्री, ऋषिकेश हरिद्वार से वाराणसी तक पहुँचते-पहुँचते गंगाजल में जहरीले बैक्टीरिया हजारों गुना बढ़ जाते हैं।

एक वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल का निष्कर्ष है कि वहाँ 100 मिली लीटर गंगाजल में 50 हजार बैक्टीरिया मिलते हैं, जो स्नान योग्य सुरक्षित जल के सामान्य स्तर से 10 हजार प्रतिशत खराब है। परिणामस्वरूप जिस गंगाजल से पुण्य और मोक्ष की कामना रहती है, वही जलजनित बीमारियों के साथ जीते जी नरक के सारे कष्ट देने लगता है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का आकलन है कि भारत भूमि में 80 प्रतिशत स्वास्थ्य समस्याएँ और एक तिहाई मौतें जलजनित बीमारियों से होती हैं। गंगा में इन्सानों और पशुओं के शव तथा अवशेष प्रवाहित किए जाने से भी गंभीर प्रदूषण होता है।

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शास्त्रों में गंगाजी को सरिताओं में श्रेष्ठ, मुनियों से सेवित, पुण्यसलिला जाह्नवी कहा जाता है। स्कंदपुराण में लिखा गया- 'सर्व तीर्थमयं सर्वदेवजुष्टं सुपुण्यदम। यत्र भागीरथी पुण्या गंगा चोतर वाहिनी।'

पौराणिक धारणाओं के अनुसार समुद्र मंथन के बाद देवराज इन्द्र के सुपुत्र जयंत ने गंगा तट पर मायापुरी (हरिद्वार), प्रयाग (इलाहाबाद), गोदावरी तट पर नासिक और क्षिप्रा नदी तट पर अवंतिका-उज्जैन में अमृत कुंभ रखा था जिससे गिरी अमृत बूँदों से इन नदियों का जल अमृतमय हो गया, लेकिन आज इसी देवभूमि के लाखों भारतीय प्रतिदिन इस जल को अपवित्र बनाकर अट्टहास करते रहते हैं।

सत्ताधारियों की बनाई योजनाएँ भ्रष्टाचार के नाले में बह रही हैं। उदारवादी अर्थव्यवस्था में उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अरबों रुपए लगा रही हैं। जल और बिजली के अभाव में कोई उद्योग-धंधा नहीं चल सकता। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तो सरकार की मेहरबानी से ऐसे रसायन, दवाइयाँ भी बनाती रहती हैं जो अमेरिका में प्रतिबंधित हैं।

उनकी जहरीली रासायनिक गंदगी उद्योगों के नालों से गंगा-यमुना में मिलती रहती है। गंगा में डुबकी लगाकर मोटे-मोटे तिलक लगाने वाले हिन्दुत्व के ठेकेदार नेताओं अथवा मोटी तिजोरी वाले सेठों ने सत्ता और धन-शक्ति के बल पर गंगा को प्रदूषित होने से रोकने के लिए कोई कठोर कदम नहीं उठाए। कागजी नियम-कानून हैं।

वर्षों से गंगा सफाई योजना के नाम पर नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों और दलालों ने करोड़ों रुपए हजम कर लिए और गंगा के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े करोड़ों लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ किया।

बिहार और उत्तरप्रदेश की निकम्मी और भ्रष्टतम सरकारों ने गंगा एक्शन प्लान को ढीले-ढाले ढंग से चलाया। लगभग 24 हजार करोड़ रुपए भारतीय करदाता (जनता) की जेब से निकालकर खर्च करने के बावजूद पतितपावन गंगा पहले से भी बदतर स्थिति में है। सबसे मजेदार बात यह है कि इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी द्वारा प्रारंभ की गई अच्छी योजना को केंद्र सरकार की नाक के नीचे बैठी दिल्ली सरकार, नगर-निगम और नगर पालिका ने ठीक से क्रियान्वित नहीं किया जिससे गंगा के साथ बहने वाली यमुना भी अपवित्र और प्रदूषित होती गई।

नदियों में जहरीले पदार्थ प्रवाहित करने वाली कंपनियों को आज तक कड़ा दंड नहीं मिला। इसके विपरीत उन्हें मुनाफा दिलाने और सम्मानित करने में राष्ट्रीय नेता गौरवान्वित महसूस करते रहे।

बहरहाल, गंगोत्री-यमुनोत्री और कुंभ मेले से सर्वाधिक लाभ पा सकने वाले उत्तराखंड में अब नए संकल्प लिए जा रहे हैं । उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने गंगा को बचाने का संकल्प लिया है। राजनीति से ऊपर उठकर केंद्र की मनमोहनसिंह सरकार ने उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल को 'मिशन क्लीन गंगा' के लिए इसी महीने लगभग 1394 करोड़ रुपए की धनराशि स्वीकृत कर दी है।

विश्व बैंक भी गंगा को स्वच्छ रखने के अभियान के लिए 1 अरब डॉलर (लगभग 45 अरब रुपए) ऋण के रूप में देने को तैयार हो गया है।

गंगा को धार्मिक भावनाओं से अधिक 'राष्ट्रीय नदी' के रूप में स्वीकार कर संपूर्ण समाज के लिए लाभदायी बनाने पर जोर दिया जा रहा है। सन्‌ 2020 तक गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी पहुँचने वाले मार्ग पर गंगा को प्रदूषणमुक्त, सही अर्थों में जीवनदायी बनाने के लिए लगभग 200 अरब रुपए खर्च होने वाले हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के साथ राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएँ, ढोंग-पाखंड से दूर आस्थावान लोगों के संगठन, केवल चंदों और कागजी रिपोर्ट पर निर्भर नहीं रहने वाले ईमानदार स्वयंसेवी संगठन गंगा को बचाने के लिए सक्रिय हों।

जागरुकता लाए बिना भारत के करोड़ों भोले-भाले लोगों को गंगा-यमुना से लाभान्वित नहीं करवाया जा सकता।

कुंभ मेला अच्छा अवसर है। सैकड़ों संत-महात्मा गंगा में डुबकी और तिलक लगा ज्ञान बाँट रहे हैं। झंडे-डंडे, तंबू लगे हैं। लाखों लोग उमड़ रहे हैं। इस अवसर पर हरिद्वार-ऋषिकेश ही नहीं, संपूर्ण उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश, दिल्ली तथा बिहार तक गंगा को गंदगी से बचाने के उपाय सुझाए जाने चाहिए।

यह अभियान एक सप्ताह और महीनेभर नहीं, पूरे साल मनाया जाना चाहिए। गंगा स्नान के साथ गंगाजल को आचमन योग्य बनाने की जिम्मेदारी संपूर्ण समाज की है। जब आप गंगा का ध्यान रखेंगे तो यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा, कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों के कल्याण की राह भी निकल आएगी। यही नहीं, आधुनिक भारत में असली समुद्र मंथन से पीने योग्य अमृतमय जल के साथ संपन्न महानगरों से जीर्ण-शीर्ण गाँवों तक को जगमगाने वाली बिजली भी मिल सकेगी। (नईदुनिया)

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