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अमीर खुसरो : धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक

अमीर खुसरो 756वीं जयंती

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हमें फॉलो करें अमीर खुसरो
प्रस्तुति : कृष्णराम देवले
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'गोरी सोइ सेज पर मुख पर डारे केस, चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस'-
- अमीर खुसरो

ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अमीर खुसरो के अध्यात्म गुरु थे, जिनके संग उनके प्रेम तथा श्रद्धा के संबंध थे। उनका अपने गुरु को गोरी कहना यह दर्शाता है कि गुरु से सुंदर कोई नहीं हो सकता। जब ख्वाजा साहब का देहांत हो गया तब खुसरो दिल्ली में नहीं थे। यह दुःखद समाचार सुनकर वे भागे-भागे दिल्ली आए और जो कुछ भी उनके पास था सब कुछ लुटा दिया और अपने गुरु के पास आकर बैठ गए, उदास और शोकमग्न।

अमीर खुसरो एक ऐसी आभा मंडित विभूति थे जिन्होंने 13वीं-14वीं शताब्दी का भारत देखा और उस समय में एक कुशल सैनिक, लोकप्रिय कवि, भाषाविद् और उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी रहे। उनके पिता मलिक सेफुद्दीन तुर्की के लाचीव कबीले के सरदार थे और बादशाह इल्तमश के शासनकाल में भारत आए थे। उनकी शादी राजपूताना (राजस्थान) के बलवन के युद्ध मंत्री इमादुल्मुल्क की बेटी से हुई, जो उत्तरप्रदेश के एटा जिले में गंगा किनारे पटियाली कस्बे में रहते थे और शादी के दो वर्ष बाद 27 दिसंबर 1254 को अमीर खुसरो का जन्म हुआ।

मलिक सेफुद्दीन नवजात पुत्र को एक कपड़े में लपेट कर एक फकीर के यहाँ ले गए। फकीर ने बालक को देखते ही कहा- 'यह बच्चा शायर से भी दो कदम आगे बढ़ जाएगा।' खुसरो तब 6-7 वर्ष के होंगे कि पिता का देहांत हो गया।

बादशाह खिलजी और अपने गुरु ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया से भी खुसरो के घनिष्ठ संबंध थे। एक दिन उनकी माँ ने बेटे से पूछ ही लिया- 'खुसरो तुम्हारी ऐसी क्या खूबी है जो बादशाह और तुम्हारे गुरु तुमसे इतने खुश रहते हैं?'

बेटे ने कहा- 'माँ, मैं शेर जो कहता हूँ।' तब माँ ने खुसरो से कुछ सुनने की इच्छा व्यक्त की। बेटे ने एक-एक करके माँ को फारसी के तीन शेर सुनाए। पर ये शेर माँ को पसंद न आए। इस पर खुसरो ने माँ को हिन्दी में एक शेर सुनाया। इसे सुनकर माँ बहुत खुश हुई और उसी प्रसन्न मुद्रा में बोली- 'बेटे तुम्हें इसी जबान में लिखना चाहिए। ऐसा करने पर ही तुम दुनिया में शोहरत हासिल करोगे।'

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तब से खुसरो ने हिन्दी में ही लिखने का तय किया और उन्होंने शायरी के अलावा विश्व का सर्वप्रथम हिन्दी-पारसी-तुर्की-अरबी का शब्दकोश 'खालिकबारी' की रचना की। फिर अनेक भाषाओं को एक साथ मिलाकर कविताएँ, गीत एवं गजल लिखने की परंपरा चलाई।

अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में यों तो कितने ही बड़े-बड़े महाकवि थे, मगर खुसरो का दर्जा हमेशा सबसे ऊपर था क्योंकि खुसरो शायरी की तमाम विधाओं में प्रवीण थे। अलाउद्दीन खिलजी के 21 वर्ष के राज्य में अमीर खुसरो खूब चमके और यह समय उनके उत्कर्ष का रहा। दरबार में उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गए थे और इसी समय में उन्होंने कई काव्य-ग्रंथ रचे। फिर आया कुतुबुद्दीन मुबारक शाह का शासनकाल, जो केवल चार साल का रहा, मगर अमीर खुसरो ने यहाँ भी चमत्कार दिखलाया।

उन दिनों उन्होंने 'नोहस्पेहर' (नौ आकाश) नाम से एक उत्तम रचना की, जिस पर अति प्रसन्न बादशाह ने अमीर खुसरो को हाथी के वजन के बराबर सोना-चाँदी दिया। फिर आया गयासुद्दीन का राज्यकाल। तब अमीर खुसरो ने 'तुगलक नामा' लिखा, जिसमें तुगलकों की लड़ाइयों में विजय-प्राप्ति का जोश भरा वर्णन किया।

अमीर खुसरो के काव्य में फारसी हो या हिन्दी, तत्कालीन समाज का सजीव चित्रण मिलता है। उनके जीवनकाल में तीन-तीन राजवंशों का उत्थान-पतन उन्होंने अपनी आँखों से देखा। इस दौरान दिल्ली के राज सिंहासन पर 11 सुल्तान बैठे, उनमें से सात के दरबार में अमीर खुसरो खुद रहे। उनकी रचनाओं में कई एक राजनीतिक घटनाओं का रोचक वर्णन मिलता है।

इतिहास की नजर से देखें तो यह वह समय था जब हिन्दुस्तान में मुसलमानों की सल्तनत की बुनियाद पड़ रही थी। दो जुड़े धर्म, दो भिन्न भाषाएँ, दो अलग सभ्यताएँ एवं संस्कृतियाँ आमने-सामने खड़ी थीं जिनका एकीकरण अभीष्ट था। हिन्दू-मुसलमानों की जो एक मिली-जुली संस्कृति आगे चलकर तैयार हुई उसके बहुत से उपकरण अमीर खुसरो ने ही तैयार किए थे।

धार्मिक संकीर्णता उन्हें छू भी नहीं गई थी बल्कि वे धार्मिक सहिष्णुता के उद्भट्ट पोषक थे। उन्होंने लिखा था 'मैं प्रेम का काफिर हूँ- मुझे मुसलमानी की जरूरत नहीं- मेरी तो एक-एक रग तार बन गई है- जनेऊ की जरूरत ही नहीं।'

भारत से उन्हें बहुत प्यार था। इस धरती को वे अपना वतन मानते थे, जो वास्तव में स्वर्ग था। अमीर खुसरो के अनुसार देश प्रेम भी ईमान का हिस्सा है। उन्होंने मध्य एशिया और हिन्दुस्तानी संस्कृति का संगम अपने विचारों और साहित्य में रच डाला है। उन्होंने लिखा है कि बाहर के मुल्कों के विद्वान भारत आकर बनारस में विद्या ग्रहण करते और गणित को वे भारत का ही आविष्कार मानते थे।

यहाँ के शतरंज पर भी बेतरह विमोहित थे वे और यहाँ के संगीत में तो मानो वे पूरी तरह रच-बस गए थे। जहाँ कहीं आध्यात्मिक रंग में रंगे हैं, वहाँ दूसरों को भी उसी रंग में डुबकी लगाने को मजबूर कर डाला। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि निम्न गीत उन्होंने लिखा है :-

'काहे को दीनो विदेस, सुन बाबुल मोरे,
हम तो बाबुल तोरे बागों की कोयल,
कुहुकत घर-घर जाऊँ,
सुन बाबुल मोरे,
हम तो बाबुल तोरे खेतों की चिड़िया
चुग्गा चुगत उड़ि जाऊँ,
सुन बाबुल मोरे।'

अमीर खुसरो ने हिन्दी की खड़ी बोली और देश की राज्य भाषा को मुकाम दिलाया, मुकाम दिलाने वाले वे पहले कवि मनीषी थे।
- (प्रेम पखरोलवी के 'चल खुसरो घर अपने' से)

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