महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में संत ज्ञानेश्वर का जन्म ई. सन् 1275 में भाद्रपद के कृष्ण अष्टमी को हुआ। उनके पिता विट्ठल पंत एवं माता रुक्मिणी बाई थीं।
बहुत छोटी आयु में ज्ञानेश्वरजी को जाति से बहिष्कृत हो नानाविध संकटों का सामना करना पड़ा। उनके पास रहने को ठीक से झोपड़ी भी नहीं थी। संन्यासी के बच्चे कहकर सारे संसार ने उनका तिरस्कार किया। लोगों ने उन्हें सर्वविध कष्ट दिए, पर उन्होंने अखिल जगत पर अमृत सिंचन किया।
वर्षानुवर्ष ये बाल भागीरथ कठोर तपस्या करते रहे। उनकी साहित्य गंगा से राख होकर पड़े हुए सागर पुत्रों और तत्कालीन समाज बांधवों का उद्धार हुआ। भावार्थ दीपिका की ज्योति जलाई। वह ज्योति ऐसी अद्भुत है कि उनकी आंच किसी को नहीं लगती, प्रकाश सबको मिलता है।
ज्ञानेश्वरजी के प्रचंड साहित्य में कहीं भी, किसी के विरुद्ध परिवाद नहीं है। क्रोध, रोष, ईर्ष्या, मत्सर का कहीं लेशमात्र भी नहीं है। समग्र ज्ञानेश्वरी क्षमाशीलता का विराट प्रवचन है।
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इस विषय में ज्ञानेश्वरजी की छोटी बहन मुक्ताबाई का ही अधिकार बड़ा है। ऐसी किंवदंती है कि एक बार किसी नटखट व्यक्ति ने ज्ञानेश्वरजी का अपमान कर दिया। उन्हें बहुत दुख हुआ और वे कक्ष में द्वार बंद करके बैठ गए।
जब उन्होंने द्वार खोलने से मना किया, तब मुक्ताबाई ने उनसे जो विनती की वह मराठी साहित्य में ताटीचे अभंग (द्वार के अभंग) के नाम से अतिविख्यात है।
मुक्ताबाई उनसे कहती हैं- हे ज्ञानेश्वर! मुझ पर दया करो और द्वार खोलो। जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है, जब अभिमान दूर हो जाता है। जहां दया वास करती है वहीं बड़प्पन आता है। आप तो मानव मात्र में ब्रह्मा देखते हैं, तो फिर क्रोध किससे करेंगे? ऐसी समदृष्टि कीजिए और द्वार खोलिए।
यदि संसार आग बन जाए तो संत मुख से जल की वर्षा होनी चाहिए। ऐसे पवित्र अंतःकरण का योगी समस्त जनों के अपराध सहन करता है। ऐसे महान संत ज्ञानेश्वरजी ने मात्र 21 वर्ष की उम्र में संसार का परित्याग कर समाधि ग्रहण की तथा 1296 ई. में उनकी मृत्यु हुई।
भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में संत ज्ञानेश्वर की गणना की जाती है। ज्ञानेश्वर ने मराठी भाषा में भगवद्गीता के ऊपर एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक दस हजार पद्यों का ग्रंथ लिखा है। 'ज्ञानेश्वरी', 'अमृतानुभव' ये उनकी मुख्य रचनाएं हैं।