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ईश्वर भक्त संत मलूकदास

अजगर करे न चाकरी -संत मलूकदास

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हमें फॉलो करें संत मलूकदास
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कर्मयोगी संत मलूकदास जी महाराज का जन्म उत्तरप्रदेश के कौशांबी जिले केग्राम कड़ा माणिकपुर में वैशाख कृष्ण पंचमी (गुरुवार) को हुआ था। उनमें बाल्यावस्था में ही कविता लिखने का गुण विकसित हो चुका था। उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की, वह स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण के द्वारा प्राप्त की।

महाराजश्री कर्मयोगी संत थे। वह जाति-पाति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध होने के साथ-साथ वे त्रिकालदर्शी भी थे। उन्होंने समूचे देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही उनके शिष्य थे।

आचार्य मलूकदास के पास सत्संग हेतु लोगों का तांता लगा रहता था। संत तुलसीदास तक ने कई दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार किया था। मुगल शासक औरंगजेब भी उनके सत्संग से अत्यंत प्रभावित था। एक किंवदंती के अनुसार भगवान श्रीराम ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे। ऐसा माना जाता है।

शुरू में संत मलूकदास नास्तिक थे। उन्हीं दिनों की बात है, उनके गांव में एक साधु आकर टिक गया। प्रतिदिन सुबह-शाम गांववाले साधु का दर्शन करते और उनसे रामायण सुनते। एक दिन मलूकदास भी पहुंचे। उस समय साधु ग्रामीणों को राम की महिमा बता रहा था, 'राम दुनिया के सबसे बड़े दाता है। वे भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।' साधु की बात मलूकदास के पल्ले नहीं पड़ी। उन्होंने तर्क पेश किया- 'क्षमा करे महात्मन! यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूं, काम न करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे?'

अवश्य देंगे, साधु ने विश्वास दिलाया।

यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब?

तब भी राम भोजन देंगे! साधु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।

बात मलूकदास को लग गई। पहुंच गए जंगल में और एक घने पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठ गए। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। कंटीली झाड़ियां थीं। जंगल दूर-दूर तक फैला हुआ था। धीरे-धीरे खिसकता हुआ सूर्य पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे छुप गया। चारों तरफ अंधेरा फैल गया। मगर न मलूकदास को भोजन मिला, न वे पेड़ से ही उतरे। सारी रात बैठे रहे।

दूसरे दिन दूसरे पहर घोर सन्नाटे में मलूकदास को घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ी। वे सतर्क होकर बैठ गए। थोड़ी देर में चमकदार पोशाकों में कुछ राजकीय अधिकारी उधर आते हुए दिखे। वे सब उसी पेड़ तले घोड़ों से उतर पड़े। लेकिन ठीक उसी समय जब एक अधिकारी थैले से भोजन का डिब्बा निकाल रहा था, शेर की जबर्दस्त दहाड़ सुनाई पड़ी। दहाड़ का सुनना था कि घोड़े बिदककर भाग गए। अधिकारियों ने पहले तो स्तब्ध होकर एक-दूसरे को देखा, फिर भोजन छोड़कर वे भी भाग गए। मलूकदास पेड़ से ये सब देख रहे थे। वे शेर की प्रतीक्षा करने लगे। मगर दहाड़ता हुआ शेर दूसरी तरफ चला गया।

मलूकदास को लगा, राम ने उसकी सुन ली है अन्यथा इस घनघोर जंगल में भोजन कैसे पहुंचता? मगर मलूकदास तो मलूकदास ठहरे। उतरकर भला भोजन क्यों करने लगे!

तीसरे पहर के लगभग डाकुओं का एक दल उधर से गुजरा। पेड़ के नीचे चमकदार चांदी के बर्तनों में विभिन्न व्यंजनों के रूप में पड़े हुए भोजन को देखकर वे ठिठक गए। डाकुओं के सरदार ने कहा,- भगवान की लीला देखो, हम लोग भूखे हैं और इस निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन रखा है। आओ, पहले इससे निपट लें।

डाकू स्वभावतः शकी होते हैं। एक साथी ने सावधान किया, मगर सरदार, इस सुनसान जंगल में भोजन का मिलना मुझे तो रहस्यमय लग रहा है। कहीं इसमें विष न हो। तब तो भोजन लाने वाला आसपास ही कहीं छिपा होगा। पहले उसे तलाशा जाए। सरदार ने आदेश दिया। डाकू इधर-उधर बिखरने लगे। तभी एक डाकू की नजर मलूकदास पर पड़ी। उसने सरदार को बताया। सरदार ने सिर उठाकर मलूकदास को देखा तो उसकी आंखें अंगारों की तरह लाल हो गईं। उसने घुड़ककर कहा,- दुष्ट! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर बैठा है! चल उतर।

सरदार की कड़कती आवाज सुनकर मलूकदास डर गए मगर उतरे नहीं। वहीं से बोले, व्यर्थ दोष क्यों मंढ़ते हो? भोजन में विष नहीं है।

यह झूठा है -सरदार ने एक साथी से कहा, पहले पेड़ पर चढ़कर इसे भोजन कराओ। झूठ-सच का पता अभी चल जाता है।

आनन-फानन में तीन-चार डाकू भोजन का डिब्बा उठाए पेड़ पर चढ़ गए और छुरा दिखाकर मलूकदास को खाने के लिए विवश कर दिया। मलूकदास ने भोजन कर लिया। फिर नीचे उतरकर डाकुओं को पूरा किस्सा सुनाया। डाकुओं ने उन्हें छोड़ दिया। इस घटना के बाद मलूकदास पक्के ईश्वर के भक्त हो गए। गांव पहुंचकर मलूकदास ने सर्वप्रथम
'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥'

इस दोहे की रचना की, वह आज भी प्रसिद्ध है।



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