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हिन्दू-मुस्लिम एकता के 7 प्रतीक

हमें फॉलो करें हिन्दू-मुस्लिम एकता के 7 प्रतीक

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

लगभग 300 वर्षों तक तुर्क और ईरानियों ने मिलकर भारत पर राज किया। इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों ने राज किया और 1947 में जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ तो अंग्रेजों की चाल कामयाब हो गई।
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मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों चमत्कारिक सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। इसके बाद भी हिन्दू और मुस्लिमों की एकता के लिए कई संतों का जन्म हुआ लेकिन सभी के एकता के प्रयास राजनीतिज्ञों ने असफल कर दिए।
 
मध्यकाल की भयानक तपिश और तमस के बीच भारत में ऐसे कुछ संत हुए जिन्होंने शांति की रोशनी फैलाकर घावों पर ठंडे पानी की पट्टी रखी। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को सचाई समझाने का प्रयास किया और एकता को कायम रखने के लिए हरसंभव प्रयास किए। लेकिन उनके जाने के बाद आज सबकुछ फिर वैसा का वैसा ही है। आओ जानते हैं ऐसे 7 संतों के बारे में जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों की एकता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
 
अगले पन्ने पर पहले संत...
 
 

झूलेलाल (लगभग 1007) : संत झूलेलाल ने ही सर्वप्रथम कहा था 'ईश्वर-अल्लाह हिक आहे' अर्थात 'ईश्वर-अल्लाह एक हैं'। उनके नाम पर एक प्रसिद्ध भजन है, जो भारत और पाकिस्तान में गूंजता है... 'दमादम मस्त कलंदर...चारई चराग तो दर बरन हमेशा, पंजवों मां बारण आई आं भला झूलेलालण... माताउन जी जोलियूं भरींदे न्याणियून जा कंदे भाग भला झूलेलालण... लाल मुहिंजी पत रखजंए भला झूलेलालण, सिंधुड़ीजा सेवण जा शखी शाहबाज कलंदर, दमादम मस्त कलंदर... शखी शाहबाज कलंदर... ओ लालs मेरे ओ लालs मेरे...।'
 
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शताब्दियों पूर्व सिन्धु प्रदेश में मिर्ख शाह नाम का मुस्लिम राजा राज करता था। इस राजा के शासनकाल में सांस्कृतिक और जीवन-मूल्यों का कोई महत्व नहीं था। पूरा सिन्ध प्रदेश राजा के अत्याचारों से त्रस्त था। उन्हें कोई ऐसा मार्ग नहीं मिल रहा था जिससे वे इस क्रूर शासक के अत्याचारों से मुक्ति पा सकें। 
 
ऐसे क्रूर दौर में नसरपुर के ठाकुर रतनराय के घर माता देवकी ने चैत्र शुक्ल 2 संवत्‌ 1007 को एक बालक को जन्म दिया एवं बालक का नाम उदयचंद रखा गया। उदेरोलाल ने किशोर अवस्था में ही अपना चमत्कारी पराक्रम दिखाकर जनता को ढांढस बंधाया और यौवन में प्रवेश करते ही जनता से कहा कि बेखौफ अपना काम करे। उदेरोलाल ने बादशाह को संदेश भेजा कि शांति ही परम सत्य है। इसे चुनौती मान बादशाह ने उदेरोलाल पर आक्रमण कर दिया। बादशाह का दर्प चूर-चूर हुआ और पराजय झेलकर उसने उदेरोलाल के चरणों में स्थान मांगा। उदेरोलाल ने सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया। इसका असर यह हुआ कि मिर्ख शाह उदयचंद का परम शिष्य बनकर उनके विचारों के प्रचार में जुट गया।
 
उपासक भगवान झूलेलालजी को उदेरोलाल, घोड़ेवारो, जिन्दपीर, लालसांईं, पल्लेवारो, ज्योतिनवारो, अमरलाल आदि नामों से पूजते हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में आज भी उनकी समाधि है। ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से मुसलमान भी उनके दर पर माथा टेकते हैं। उनके काल में हिन्दू और मुसलमान एक होकर रहते थे और किसी को भी किसी से कोई दिक्कत नहीं थी। सभी अपने-अपने धर्मानुसार जीवन-यापन करने के लिए स्वतंत्र थे। 
 
अगले पन्ने पर दूसरे संत...
 

सिद्ध वीर गोगादेव : सन् 1155 में गोगा जाहरवीर का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरु) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नाहरसिंह वीर का जन्म हुआ। ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक मेहतर के घर रत्नाजी मेहतर का जन्म हुआ। ये सभी गुरु गोरखनाथजी के शिष्य हुए। गोगाजी का नाम भी गुरु गोरखनाथजी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया। यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी कि गुगो जिसे बाद में गोगाजी कहा जाने लगा। गोगाजी ने गुरु गोरखनाथजी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी।
 
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नाथ परंपरा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत मांगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिन्दू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
 
मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिन्दू और मुस्लिम संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।
 
हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्मस्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो सांप्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहां एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियां मांगते हैं।
 
अगले पन्ने पर तीसरे संत...
 

ख्वाजा गरीब नवाज (1141) : ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 में ईरान के खुर्स्न प्रांत के संजर गांव में हुआ। आपके वालिद का नाम सैयद गियासुद्दीन हसन और वालिदा का नाम माह-ए-नूर था। विरासत में उन्हें एक पनचक्की और एक बाग मिला, जो उनकी गुजर-बसर के लिए पर्याप्त था, लेकिन किसी दिव्य पुरुष ने उन पर ऐसी कृपादृष्टि डाली कि उन्हें भौतिकता से विरक्ति हो गई तब उन्होंने बाग और चक्की बेचकर धन निर्धनों में बांट दिया और स्वयं ईश्वर की खोज में लग गए।
 
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मोईनुद्दीन समरकंद, बुखारा आदि का भ्रमण करते हुए मक्का और मदीना जा पहुंचे। वहां उन्हें ऐसा लगा कि कोई दिव्य वाणी उन्हें आदेश दे रही ही है कि 'ऐ मोईनुद्दीन, तुम्हारी आध्यात्मिक सेवा विश्व को जरूरी है, आप हिन्दुस्तान के अजमेर जाइए, वहां सत्य का प्रचार कीजिए।' उन्हें ऐसा लगा कि हजरत मुहम्मद उन्हें अजमेर का रास्ता दिखा रहे हैं। बहुत ही प्रसन्न मोईनुद्दीन हिन्दुस्तान के लिए निकल पड़े।
 
उस दौर में हिन्दुस्तान के हालात बहुत बिगड़े हुए थे। हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता चरम पर थी। जात-पात, धर्मांधता और कट्टरता अपने चरम पर थी। इंसानियत खत्म हो गई थी। वहां से वे बगदाद आए। वहां उन्होंने अपने पीर हजरत ख्वाजा उस्मान हरौनी को अपने ख्‍वाब का वाकिया सुनाया। हजरत उस्मान इससे प्रसन्न हो गए और उन्होंने भी हिन्दुस्तान जाने के लिए रजामंदी दे दी। 
 
पहले आप लाहौर आए, लाहौर से आप दिल्ली के लिए निकल पड़े। ख्वाजा साहब ऐसे वक्त भारत में आए, जब मोहम्मद गौरी की फौज पृथ्वीराज चौहान से पराजित होकर वापस गजनी की ओर भाग रही थी। उन लोगों ने ख्वाजा साहब से कहा कि आप आगे न जाएं। आगे जाने पर आपके लिए खतरा पैदा हो सकता है, चूंकि मोहम्मद गौरी की पराजय हुई है। मगर ख्वाजा साहब नहीं माने। वे कहने लगे, चूंकि तुम लोग तलवार के सहारे दिल्ली गए थे इसलिए वापस आ रहे हो, मगर मैं अल्लाह की ओर से मोहब्बत का संदेश लेकर जा रहा हूं। थोड़ा समय दिल्ली में रुककर वे अजमेर चले गए और वहीं रहने लगे।
 
अजमेर पहुंचकर आपने बाहर सीमा पर ही एक दरख्त के नीचे आराम फरमाया। बस यहीं से उनके चमत्कार शुरू हो गए। वे जब 97 वर्ष के हुए तो उन्होंने खुद को घर के अंदर बंद कर लिया। जो भी मिलने आता, वे मिलने से इंकार कर देते। नमाज अता करते-करते वे एक दिन अल्लाह को प्यारे हो गए। वह वक्त था 1236 ईस्वी का। उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने उन्हें दफना दिया और कब्र बना दी।
 
हजरत गरीब नवाज ने कभी भी अजमेर में इस्लाम का प्रचार-प्रसार नहीं किया। यहां उन्होंने अपने जीवन के अंत तक रहकर हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता कायम रखते हुए गरीब, लाचार, अपाहिजों और दुखियों की सेवा की। हुजूर गरीब नवाज ने यहां गरीबों की मुश्किलों को दूर किया इसीलिए उनको 'ख्वाजा गरीब नवाज' कहा जाने लगा।
 
ख्वाजा साहब का पूरा नाम हजरत ख्वाजा मोईनउद्दीन चिश्ती अजमेरी है। उनके यहां आने से यह शहर अजमेर शरीफ के रूप में पवित्र हो गया। हजरत ख्वाजा अजमेरी अपने 40 साथियों के साथ अजमेर आए थे और वहां जनसेवा के पुण्य कर्म में लग गए।
 
धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले लोगों को गरीब नवाज की दरगाह से सबक लेना चाहिए। ...ख्वाजा के दर पर हिन्दू हों या मुस्लिम या किसी भी अन्य धर्म को मानने वाले, सभी जियारत करने आते हैं। यहां का मुख्य पर्व 'उर्स' कहलाता है।
 
अगले पन्ने पर चौथे संत...
 

बाबा रामदेव (1352-1385) : 'पीरों के पीर रामापीर, बाबाओं के बाबा रामदेव बाबा' को सभी भक्त बाबारी कहते हैं। जहां भारत ने परमाणु विस्फोट किया था, वे वहां के शासक थे। हिन्दू उन्हें रामदेवजी और मुस्लिम उन्हें रामसा पीर कहते हैं। मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों चमत्कारिक सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। उन्हीं में से एक हैं रामापीर।
 
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बाबा रामदेव को द्वारिका‍धीश (श्रीकृष्ण) का अवतार माना जाता है। इन्हें पीरों का पीर 'रामसा पीर' कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं।
 
कुछ विद्वान मानते हैं कि विक्रम संवत 1409 (1352 ईस्वी सन्) को उडूकासमीर (बाड़मेर) में बाबा का जन्म हुआ था और विक्रम संवत 1442 में उन्होंने रुणिचा में जीवित समाधि ले ली। पिता का नाम अजमालजी तंवर, माता का नाम मैणादे, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ, घोड़े का नाम लाली रा असवार था।
 
जन्म कथा : एक बार अनंगपाल तीर्थयात्रा को निकलते समय पृथ्वीराज चौहान को राजकाज सौंप गए। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें राज्य पुनः सौंपने से इंकार कर दिया। अनंगपाल और उनके समर्थक दुखी हो जैसलमेर की शिव तहसील में बस गए। इन्हीं अनंगपाल के वंशजों में अजमल और मेणादे थे। नि:संतान अजमल दंपति श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। एक बार कुछ किसान खेत में बीज बोने जा रहे थे कि उन्हें अजमलजी रास्ते में मिल गए। किसानों ने नि:संतान अजमल को शकुन खराब होने की बात कहकर ताना दिया। दुखी अजमलजी ने भगवान श्रीकृष्ण के दरबार में अपनी व्यथा प्रस्तुत की। भगवान श्रीकृष्ण ने इस पर उन्हें आश्वस्त किया कि वे स्वयं उनके घर अवतार लेंगे। बाबा रामदेव के रूप में जन्मे श्रीकृष्ण पालने में खेलते अवतरित हुए और अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केंद्र बनते गए।
 
दलितों के मसीहा : बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर दलित हिन्दुओं का पक्ष ही नहीं लिया बल्कि उन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ाकर शांति से रहने की शिक्षा भी दी। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे, लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरूरतमंदों की सेवा भी की। इस बीच उन्होंने विदेशी आक्रांताओं से लोहा भी लिया।
 
डाली बाई : बाबा रामदेव जन्म से क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने डाली बाई नामक एक दलित कन्या को अपने घर बहन-बेटी की तरह रखकर पालन-पोषण कर समाज को यह संदेश दिया कि कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। रामदेव बाबा को डाली बाई एक पेड़ के नीचे मिली थी। यह पेड़ मंदिर से 3 किमी दूर हाईवे के पास बताया गया है।
 
अगले पन्ने पर पांचवें संत...
 

कबीर : (जन्म- सन् 1398 काशी, मृत्यु- सन् 1518 मगहर) : संत कबीर का जन्म काशी के एक जुलाहे के घर हुआ था। पिता का नाम नीरु और माता का नाम नीमा था। इनकी 2 संतानें थीं- कमाल, कमाली। मगहर में 120 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि ले ली।
 
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'चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय/ दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय...' अधिकतर लोग कबीर की इस वाणी के पीछे छुपे सत्य को नहीं जानते तो आज हम बताते हैं।
 
प्रचलित कथाओं और किंवदंतियों के अनुसार रूस के पास अरब देश बल्ख-बुखारा के बादशाह रहे सुल्तान इब्राहीम के कैदखाने में यह चक्की लगाई गई थी। इसे सुल्तान के शासनकाल में पकड़े गए (गिरफ्तार किए गए) साधु-संतों से चलवाया जाता था। इस भारी-भरकम चक्की का नाम चलती चक्की था। सुल्तान इब्राहीम साधु-संतों, फकीरों को दरबार में बुलाता था और उनसे अनेक प्रश्नों का समाधान पूछता था। अनेक साधु और संत जब उसकी शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाते थे, तब उन्हें कैदखाने में डालकर इस भारी चक्की चलाने का दंड दिया जाता था। 
 
किंवदंतियों के अनुसार कबीरदास पंजाब गए थे, जहां उनके अनुयायियों ने संतों को बल्ख-बुखारा में दी जा रही इस यातना की जानकारी देते हुए कुछ करने को कहा। कबीर साहब यत्नपूर्वक बल्ख-बुखारा पहुंचे और संतों-फकीरों की यह यातना देख द्रवित हो उठे। 
 
उन्होंने संतों-फकीरों से कहा- आप भगवद् भजन कीजिए। चक्की छोड़िए। यह तो चलती चक्की है। अपने आप चलेगी। उन्होंने उस चक्की को छू दिया। चक्की खुद-ब-खुद चलने लगी और लगातार चलती रही। बाद में कबीर पंथ के 5वें संत लाल साहब कबीरदास के द्वारा छूकर चलाई गई इसी चक्की को भारत ले आए। 
 
कबीर भारतीय मनीषा के प्रथम विद्रोही संत हैं। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम कट्‍टरपंथियों से पंगा ले रखा था। वे सांप्रदायिकता, धर्मांधता के खिलाफ थे। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों की एकता के लिए जो प्रयास किए, वे अतुलनीय हैं। उनके गुरु का नाम रामानंद था। 
 
संत कबीर के काल में समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, मौलवी, मुल्ला तथा पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था। आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी।
 
ओशो कहते हैं- 'बीर में हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियां जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में, प्रयाग में भी नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग-अलग मालूम होता है। कबीर में जल भरा भी अलग-अलग मालूम नहीं होता है। कबीर का संगम प्रयाग के संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहां कुरान और वेद ऐसे खो गए कि रेखा भी नहीं छूटी।'
 
अगले पन्ने पर छठे संत...
 

गुरु नानकदेवजी : गुरु नानकदेवजी ही थे जिन्होंने सबसे पहले कहा था- 'सबका मालिक एक है... एक ओंकार सतिनाम।' नानक साहिब का जन्म सन्‌ 1469 की कार्तिक पूर्णिमा को तलवंडी (पंजाब) में हुआ। युगांरतकारी युगदृष्टा गुरुनानक का मिशन मानवतावादी था इसीलिए उन्होंने संपूर्ण सृष्टि में मजहबों, वर्णों, जातियों, वर्गों आदि से ऊपर उठकर 'एक पिता एकस के हम बारिक' का दिव्य संदेश दिया। वे कहते थे कि इस सृष्टि का रचयिता एक ईश्वर है। उस ईश्वर की निगाह में सब समान हैं।
 
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गुरुजी जपुजी साहिब नामक वाणी में फरमाते हैं- 'नानक उत्तम-नीच न कोई।' गुरुजी समता, समानता, समरसता आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के प्रबल पैरोकार थे। गुरुजी किसी धर्म के संस्थापक नहीं, अपितु मानव धर्म के संस्थापक थे।
 
'नानक शाह फकीर/ हिन्दू का गुरु मुसलमान का पीर'। एक मर्तबा गुरुजी सुल्तानपुर के पास बेई नदी में स्नान करने गए तो काफी समय तक बाहर नहीं आए। लोगों ने समझा नानकजी पानी में डूब गए हैं। तीसरे दिन नानकजी प्रकट हुए। बाहर आते ही उन्होंने पहला उपदेश दिया था- 'न कोई हिन्दू, न कोई मुसलमान'। 
 
अगले पन्ने पर सातवें संत...
 

शिर्डी सांईं बाबा (जन्म 1830, समाधि 1918) : बाबा की एकमात्र प्रामाणिक जीवन कथा 'श्री सांईं सत्‌चरित' है जिसे श्री अन्ना साहेब दाभोलकर ने सन्‌ 1914 में लिपिबद्ध किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सन्‌ 1835 में महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांईं बाबा का जन्म भुसारी परिवार में हुआ था। (सत्य सांईं बाबा ने बाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को पाथरी गांव में बताया है।)
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इसके पश्चात 1854 में वे शिर्डी में ग्रामवासियों को एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिए। अनुमान है कि सन्‌ 1835 से लेकर 1846 तक पूरे 12 वर्ष तक बाबा अपने पहले गुरु रोशनशाह फकीर के घर रहे। 1846 से 1854 तक बाबा बैंकुशा के आश्रम में रहे।
 
सन्‌ 1854 में वे पहली बार नीम के वृक्ष के तले बैठे हुए दिखाई दिए। कुछ समय बाद बाबा शिर्डी छोड़कर किसी अज्ञात जगह पर चले गए और 4 वर्ष बाद 1858 में लौटकर चांद पाटिल के संबंधी की शादी में बारात के साथ फिर शिर्डी आए।
 
इस बार वे खंडोबा के मंदिर के सामने ठहरे थे। इसके बाद के 60 वर्षों 1858 से 1918 तक बाबा शिर्डी में अपनी लीलाओं को करते रहे और अंत तक यहीं रहे। बाबा के भक्तों में सभी जाति-धर्म-पंथ के लोग शामिल हैं। जहां हिन्दू बाबा के चरणों में हार-फूल चढ़ाते, समाधि पर दूब रख अभिषेक करते हैं, वहीं मुस्लिम बाबा की समाधि पर चादर चढ़ा सब्जा चढ़ाते हैं। 

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