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आज भी प्रासंगिक है संत कबीर की वाणी

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संत कबीर की स्थिति सगुण साकार ब्रह्म एवं निर्गुण निराकार ब्रह्म के मध्य सेतु निर्माण कर संसार में भटक रहे जीव को भव सागर पार कराने वाले कुशल शिल्पी की तरह थी। इसलिए उन्हें केवल निर्गुण ब्रह्म का साधक मानना भ्रम ही होगा। कबीर के समकालीन सभी सगुण-निर्गुण जिनमें द्वैत-अद्वैत एवं अनेक योग पंथों के आचार्य उनके ज्ञान के तात्विक तर्कों से चकरा गए थे।


 
सामान्य जन मानस की देशज भाषा में ज्ञान भक्ति और मोक्ष मार्ग के उपदेशों के सूत्र रच देने वाले कबीर अपने वर्णधर्म जुलाहे के कर्म से कभी हताश या निराश नहीं हुए इसीलिए स्वधर्म का पालन करते हुए परमधर्म का उपदेश करने वाले इस संत की वाणी के रहस्य आज भी बड़े-बड़े बुद्धिमानों के शोध के प्रकरण बने हुए हैं। सूत कातते चर्खे और तूनी को देखकर कबीर कहते हैं -
 
अष्ट कमल का चर्खा बना है पाiच तत्व की तूनी
नौ दस मास बुनन में लागे, तब बन घर आई चदरिया
झीनी रे झीनी-चदरिया राम रंग भीनी चदरिया।
 
कबीर निर्गुण ब्रह्म की बात करते हुए कहते हैं, 'निर्गुण पंथ निराला साधो' दूसरी ओर मानव देह रूप चादर के ध्रुव, प्रह्लाद सुदामा ने ओढी सुकदेव ने निर्मल किन्हीं कह कर सगुण साकार ब्रह्म की ही बात करते हैं। क्योंकि ध्रुव प्रह्लाद सुदामा और सुकदेव आदि संत श्रीमद्भागवत के चरित्र हैं। यदि कबीर केवल निर्गुण की ही बात करने वाले संत होते तो इन भक्तों को अपनी रचनाओं में कदापि स्थान नहीं देते। वस्तुतः कबीर, रूढ़िवादी, परंपरा के धुर विरोधी और मानव मात्र की उद्धार की सरल रीति बताने वाले संत कवि थे।
 
 
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आजकल एक नई बात सुनने को मिल रही है वह यह कि- कबीर का साहित्य दलित साहित्य है। वस्तुतः कोई भी साहित्य दलित नहीं होता अपितु दलितोद्धारक होता है। यहां यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि कबीर दलितोद्धारक साहित्य के अग्रणी कवि थे। जिन्होंने समाज के पीड़ित प्रत्येक वर्ग को स्वाभिमान से जीते हुए आत्मोद्धार का मार्ग दिखाया।
 
सांप्रदायिक विद्वेष में जल रहे तत्कालीन समाज को कबीर ने सावधान किया तथा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में चल रही वर्जनाओं और रूढ़ियों पर जबर्दस्त प्रहार किया। हिंदू और मुसलमान दोनों की आंखें खोलते हुए कबीर कहते हैं- हिंदू मुए राम कहें मुसलमान खुदाय, कह कबीर हरि दुहि तें कदै न जाय। क्योंकि राम और खुदा केवल वाणी की रटन का विषय नहीं अपितु अंतरात्मा में स्थित परमात्मा की आराधना साधना का केंद्र बिंदु है। 
 
कबीर दास जहां मुसलमानों के लिए कहते हैं- कंकर पत्थर चुन के मस्जिद लई चुनाई, ताचढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय वही हिंदुओं की रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं :-
 
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार
 

 
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वस्तुतः कबीर यथार्थ में जीवन जीने के पक्षधर थे। छल-कपट और पाखंड से जकड़ा समाज मनमुख और धोखेबाज हो जाता है इसीलिए उन्होंने सत गुरु की शरण में जाकर विषय वासनाओं की मुक्ति के साथ उस परमात्मा के सुमिरण की बात कही साध संगत में कबीर कह उठते हैं- 'साधो आई ज्ञान की आंधी भ्रम की टांटी सबै उड़ानी, माया रहे न बाँधी' जब तक अज्ञनता के कारण जीवन भ्रम जाल में जकड़ा रहता है। तभी तक जातिगत ऊंच-नीच समाज को खोखला किए रखता है।
 
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप स्वभाय
सार-सार को गहि रखे थोथा देइ उड़ाय।
 
अतः उस सारतत्व ईश्वर को ही पकड़ना चाहिए न कि संसार की थोथी असार वस्तुओं एवं संबंधों को, इसीलिए कबीर को अपने पुत्र कमाल से कहना पड़ा -
 
बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल,
राम नाम को तजि अरे घर ले आया माल।
 
संत कबीर का जीवन सदैव उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा जो समाज को रूढ़ियों की बेड़ियों से मुक्त करना चाहते हैं। स्वयं का उद्धार कर समाज का उद्धार करने में कबीर वाणी की प्रासंगिकता पहले से आज कहीं अधिक हो गई है।


- पं. गोविंद वल्लभ जोशी 


 

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