वैष्णव के मुख्य संप्रदाय की बात करें तो रामानंद द्वारा रामानंद, रामानुजाचार्य द्वारा विशिष्टाद्वैत, माधवाचार्य द्वारा माध्वचारी, भास्कराचार्य द्वारा निम्बार्क, बल्लभाचार्य द्वारा पुष्टिमार्गी या शुद्धाद्वैत संप्रदाय का प्रचलन हुआ। वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं- जैसे बैरागी, दास, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय, विष्णु स्वामी, श्री संप्रदाय, हंस संप्रदाय, ब्रह्म संप्रदाय, रुद्र संप्रदाय आदि है। श्री चतु: सम्प्रदाय वैष्णवों के 52 द्वारा है। आओ संक्षिप्त में जानते हैं रामानुजाचार्य के बारे में। इस बार रामानुजाचार्य की जयंती वैशाख शुक्ल षष्ठी, 18 मई 2021 मंगलवार को है।
संत रामानुजाचार्य का परिचय : संत रामानुजाचार्य का जन्म तमिलनाडु के श्रीपेरम्बदूर नाम स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता केशव भट्ट (कुछ के अनुसार पिता सोमैया और माता कांतिमति) का निधन हो गया था। बचपन में उन्हें कांची के यादव प्रकाश गुरु ने वेदों की शिक्षा दी। 16 वर्ष की उम्र में ही श्रीरामानुजम ने सभी वेदों और शास्त्रों का ज्ञान अर्जित कर लिया और 17 वर्ष की उम्र में उनका विवाह संपन्न हो गया। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।
1.जन्म : 1017 ईस्वी।
2.जन्म स्थान : श्रीपेरम्बदूर, तमिलनाडु।
3.देहांत : 1137 ईस्वी।
4.देहांत स्थान : श्रीरंगम, तमिलनाडु।
5.गुरु : श्रीयमुनाचार्य।
6.दर्शन : विशिष्टाद्वैत।
7.सम्मान : श्रीवैष्णवतत्वशास्त्र के आचार्य।
8.साहित्य कार्य : वेदांतसंग्रह, श्रीभाष्य, गीता भाष्य, वेदांतदीपम, वेदांतसारम, शरणागतिगद्यम, श्रीरंगगद्यम, श्रीवैकुण्डगद्यम, नित्यग्रंथम।
9.गुरु शिष्य परंपरा : अलवार संत परंपरा।
10. शिष्य : रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही श्री रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर, रैदास और सूरदास थे।
विशिष्ट द्वैत वेदांत दर्शन : श्री रामानुजाचार्य ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदांत गढ़ा था। उन्होंने वेदांत के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार संतों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया। रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं:- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति।
वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।
मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में 12 वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ, किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना, ईश्वर की प्रार्थना करना है। आज के समय में भी रामानुजम की उपलब्धियां और उपदेश उपयोगी हैं। श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान और उदार थे। वे चरित्रबल और भक्ति में अद्वितीय थे। उन्हें योग सिद्धियां भी प्राप्त थीं। श्रीरामानुजाचार्य सन् 1137 ई. में ब्रह्मलीन हो गए।
प्रेरक प्रसंग : बाद में रामानुजाचार्य आचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य बने। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुंचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गई। वहां पहुंचने पर श्रीरामानुजाचार्य ने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं।
रामानुजाचार्य समझ गए श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्त्रनाम' और अलवन्दारों के 'दिव्य प्रबंधनम्' की टीका करवाना चाहते हैं। इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और उनके इस अन्तिम इच्छा को पूर्ण किया।
गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था। पहला- ब्रह्मसूत्र, दूसरा- विष्णु सहस्रनाम और तीसरा- दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। रामानुजम ने लगभग नौ पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें नवरत्न कहा जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक 'श्रीभाष्य' है। जो पूर्णरूप से ब्रह्मसूत्र पर आधारित है। इसके अलावा वैकुंठ गद्यम, वेदांत सार, वेदार्थ संग्रह, श्रीरंग गद्यम, गीता भाष्य, निथ्य ग्रंथम, वेदांत दीप, आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं।