महाप्रभुजी श्री वल्लभाचार्य का प्राकट्य वैशाख कृष्ण एकादशी गुरुवार संवत् 1535 को चम्पारण्य (रायपुर, छत्तीसगढ़) में हुआ था।
मात्र सात वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत धारण करने के बाद 4 माह में ही वेद, उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन कर ग्यारह वर्ष की आयु में अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण देते हुए दक्षिणांचल में विजय नगर के राजा कृष्णदेव की राज्यसभा में उपस्थित होकर संपूर्ण समुपस्थित विद्वानों को अपने अकाट्य प्रमाणों से पराजित कर उन्होंने निरुत्तर कर दिया था।
उनके अलौकिक तेज एवं विद्वत प्रतिभा से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित कर कनकाभिषेक किया। इसका राज्यसभा में समुपस्थित सभी संप्रदाय के आचार्यों ने अनुमोदन किया।
आचार्य पद प्राप्त करने के बाद आपने तीन बार भारत भ्रमण कर शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्ग संप्रदाय का प्रचार कर शिष्य सृष्टि की अभिवृद्धि की तथा 84 भागवत पारायण की। जिन-जिन स्थानों पर पारायण की थी वे आज भी 84 बैठक के नाम से जानी जाती हैं तथा वहां जाने पर शांति का अनुभव होता है।
वेद, गीता, ब्रह्मसूत्र एवं समाधि भाषा को अपना प्रमाण मानते हुए भागवत धर्म का प्रचार किया। आचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य के दिव्य संदेश किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के लिए न होकर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए हैं।