आचार्यश्री महाप्रज्ञ : अलौकिक व्यक्तित्व
प्रस्तुति : साध्वी श्री रचनाश्रीजी
जन्म : 14 जून 1920
मृत्यु : 9 मई 2010
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का जन्म राजस्थान के झुँझनू जिले के एक छोटे-से गाँव टमकोर में सन् 1920 में 14 जून को हुआ। आपके पिता तोलारामजी चौरड़िया एवं मातुश्री बालूजी थीं। परिवार के सहज धार्मिक संस्कारों ने आपको मात्र 10 वर्ष की उम्र में विरक्त बना दिया। आप अपनी माता बालूजी के साथ विक्रम संवत् 1987 में अष्टमाचार्य कालूगणी के पास सरदार शहर (राजस्थान) में दीक्षित हो गए। दीक्षा प्राप्ति के बाद आपकी शिक्षा मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) के कुशल नेतृत्व में प्रारंभ हुई।आपके कर्तव्य का मूल्यांकन करते हुए आपको आचार्यश्री तुलसी द्वारा सन् 1944 में अग्रगण्य बनाया गया। आपकी निर्मल प्रज्ञा से संघ, देश, विश्व लाभान्वित हुए। इसलिए आपको 12 नवंबर 1978 को गंगा शहर में 'महाप्रज्ञ' का संबोधन अलंकरण प्रदान किया गया। सब दृष्टि से सक्षम महाप्रज्ञ को आचार्य तुलसी ने 3 फरवरी 1979 को राजलदेसर में युवाचार्य पद पर मनोनीत किया। आचार्यश्री तुलसी एक प्रयोग धर्माचार्य थे। उन्होंने स्वयं के आचार्य पद का विसर्जन कर 18 फरवरी 1994 में सुजानगढ़ में युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर आसीन कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया।देश के प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र ने कहा था - 'अगर मैं महाप्रज्ञ साहित्य को पहले पढ़ लेता तो मेरे साहित्य का रूप कुछ दूसरा होता।' राष्ट्रकवि दिनकर से आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की अनेक बार बातचीत हुई। अनेक विषयों में चर्चा-परिचर्चा हुई। वे राष्ट्रकवि महाप्रज्ञ की वैचारिक और साहित्यिक प्रतिभा के प्रति सदैव प्रणत रहे। उन्होंने महाप्रज्ञ की मनीषा का मूल्यांकन करते हुए कहा था, 'हम विवेकानंद के समय में नहीं थे। हमने उनको नहीं देखा, उनके विषय में पढ़ा मात्र है। आज दूसरे विवेकानंद के रूप में हम मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को देख रहे हैं।' देश के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं प्रतिरक्षा विभाग के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. राजा रामन्ना महाप्रज्ञ से अनेकांत दर्शन का स्पर्श पा आत्मविभोर हो उठे थे।
विश्व के मानचित्र का प्रत्येक व्यक्ति अपना एक सुंदर चित्र देखना चाहता है। अपनी विशेष छवि बनाना चाहता है। अपनी विशेष पहचान बनाना चाहता है। अपनी विशेष पहचान बनाने के लिए व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार अपेक्षित है। व्यक्तित्व के निखार के तीन आधार हैं- आचार, विचार और व्यवहार में श्रेष्ठता। इनकी श्रेष्ठता व्यक्तित्व को शिखर-सी ऊँचाई और समुद्र-सी गहराई देती है। तेरापंथ धर्मसंघ के नवमाधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी के यशस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, मनस्वी पट्टधर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व से अखिल विश्व में खास पहचान बनाई।