- डॉ. जैनेन्द्र जैन
मानवीय जीवन को सही राह पर ले जाने में श्रमण संस्कृति के साधु-संतों का जीवन सदैव समर्पित रहा है। वे हमें आचार-विचार और आहार के प्रति ही मार्गदर्शन नहीं देते वरन लोक मंगलकारी प्रवचनों के माध्यम से हमें सुसंस्कार और अपनी अनुभवों का ज्ञान भी देते हैं, जिसे हम आत्मसात कर अपने जीवन को श्रेष्ठ और सार्थक बना सकते हैं।
संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के सुयोग्य शिष्य श्रावक शिरोमणि ऐलकश्री निशंकसागरजी महाराज भी श्रमण संस्कृति के एक ऐसे ही साधक हैं, जो आज अपने जीवन के 43 वर्ष पूर्ण कर 44वें वर्ष में पदार्पण कर रहे हैं।
पूज्य ऐलकश्री निशंकसागरजी वीर प्रसवनी बुंदेलखंड की माटी के सपूत हैं, जिनका जन्म सागर जिले के ग्राम बंडा बेलई में श्रेष्ठ श्रावक दम्पति श्री राजधरलालजी एवं श्रीमती ज्ञानीदेवी जैन के घर 11 अगस्त 1963 को हुआ।
युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही मात्र 18 वर्ष की अल्पायु में आप आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज से जैन तीर्थ नैनागिर में ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा लेकर श्रमण पथ के हमराही बन गए।
तब से आज तक आप नगर-नगर और डगर-डगर पद त्राण विहीन चरणों से अर्थात नंगे पैर जगह-जगह पदयात्रा करते हुए अपनी पीयूष वर्शणी वाणी में जन-जन संस्कार बाँट रहे हैं और ढोंग का नहीं, ढंग का जीवन जीने की कला सिखा रहे हैं।
आप मात्र एक वस्त्र (लंगोट) धारी होने से ऐलक कहलाते हैं और अपने पास पिच्छी और कमंडल के अलावा अन्य कोई परिग्रह आदि नहीं रखते हैं। बारह महीने आप इसी तरह रहते हैं और रात्रि में जमीन या प्लेन तखत पर केवल एक करवट शयन करते और आसमान को ओढ़ते हैं।
इसी प्रकार आप एक समय व एक बैठक में ही आहार-जल ग्रहण करते हैं और वह भी अपने हाथों की अंजुली बनाकर अर्थात किसी पात्र में खाद्य सामग्री और गिलास में जल रखकर आप आहार-जल ग्रहण नहीं करते, केवल अपने हाथों की हथेलियों को ही पात्र बनाकर उसके माध्यम से ही आहार-जल लेते हैं।
ऐलकश्री के आज 44वें वर्ष में पदार्पण के अवसर पर प्रभु से प्रार्थना है कि अपने मंगलमय आशीर्वाद से सभी को कृतार्थ कर रहे पूज्य ऐलकश्री निशंकसागरजी महाराज का रत्नत्रय सदैव कुशल-मंगल रहे और वे दीर्घकाल तक साधनारत रहते हुए हम सबको सुसंस्कार एवं आशीर्वाद बाँटते रहें।