धर्म के बिना मनुष्य का चरित्र शून्य
वर्तमान में समाज में व्यक्ति को भौतिक संसाधनों में रहने के लिए मकान, पहनने के लिए अच्छे वस्त्र और घूमने-फिरने के लिए महँगी कारों के अलावा विभिन्न प्रकार की चाहत मन में रहती है, परंतु इनकी पूर्ति के बाद भी आत्मशांति और मन की लालसा पूर्ण होना संभव नहीं हो पाता। मनुष्य भोगवादी बनता जा रहा है। महत्वाकांक्षा हावी हो चुकी है। जीवन में कितना भी पा लेने के बाद यह दौड़ कभी समाप्त नहीं होती। धर्म के बिना व्यक्ति का चरित्र प्रभाव शून्य होता है। इस संसार में, प्रकृति में जो भी वस्तुएँ हैं, वे सब ईश्वर-प्रदत्त हैं। संपूर्ण जगत ईश्वर का है। मानव मात्र को इसका उपभोग त्याग की भावना के साथ करना चाहिए। दूसरों के धन और वैभव पर गिद्ध दृष्टि नहीं डालना चाहिए। उदर के लिए जितना आवश्यक होता है, मनुष्य उतना ही ग्रहण करता है। आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने से स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है।
यही स्थिति मनुष्य के समग्र जीवन के क्रियाकलापों में अपनाई जाना चाहिए। भौतिक चाह की आपाधापी में निरोगी रह पाना बेहद मुश्किल हो गया है। आज का युवा वर्ग भटकाव की स्थिति में है। हमारे यहाँ धार्मिक असहिष्णुता का वातावरण बना है। टीवी और मोबाइल के साथ आधुनिकता व पाश्चात्य संस्कृति के जाल में उलझता जा रहा है। इसे रोकना बहुत जरूरी है। माँ के द्वारा संस्कारित बच्चे अपने जीवन की उच्चतम अभिलाषाओं पर खरे उतरेंगे, जब माँ उनको अच्छे संस्कार से नवाजेंगी। ऐसे में उनका यह दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को चरित्रवान बनाएँ। पुत्रवती माताएँ वह होती हैं, जिनके पुत्र ज्ञानवान व चरित्रवान हों।देश में बढ़ते भ्रष्टाचार देश की मर्यादा को नष्ट कर रहे हैं। ऐसे लोग क्षणिक लाभ प्राप्त कर अपना भला तो कर लेते हैं, लेकिन समाज और देश के हित की उन्हें जरा भी चिंता नहीं होती। ऐसे लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि अब समाज जागृत और चैतन्य हो गया है। जनता शीर्ष पर बैठाना जानती है तो देश के साथ धोखा व अन्याय करने पर जमीन भी दिखा सकती है।