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धर्मार्थ कर्म ही सबसे श्रेष्ठ कर्म

परमार्थ से होती है ईश्वर प्राप्ति

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हमें फॉलो करें धर्मार्थ कर्म
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आत्मतत्व के बिना मुक्ति संभव नहीं है। भारत राष्ट्र को बचाने के लिए संगठित होकर प्रयास करना होगा। आचरण के द्वारा सांसारिक जीवन को उपदेश देने वाले ही आचार्य होते हैं। हमारे भारत पर जब आक्रांताओं का अत्याचार बढ़ा तब गीता के बचनानुसार भगवान श्री चंद्र ने अपने भक्तों के उद्धार के लिए अवतार लिया।

आज भी लगभग वही परिस्थितियाँ भारत में उत्पन्न हो गई हैं। नीच प्रवृतियों के लोग ही राष्ट्र के लिए संकट होते हैं। संसार के विषयों से जो ऊपर उठ जाता है वही उदासीन है। ब्रह्म की माया और जीव के रूप में द्वैत बन जाता है। भगवान श्रीराम भी उदासीन संत थे। श्री चंद्र शिव स्वरूप थे।

धर्मार्थ के लिए किया गया कर्म ही श्रेष्ठ कर्म है। वासनाएँ ही हमारी मुक्ति में अवरोध उत्पन्न करती हैं। शांति ही हमारी मुक्ति का कारण हो सकती है, चंचलता से नहीं। श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाले संत गुरु का गान, गुरु की इच्छा का भाव ही ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। गुरु गूँगा, गुरु बावला, गुरु देवन के देव, सबसे बड़ा सतगुरु नानक। शास्त्रों के पठन-पाठन से ही गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट होती है।

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महापुरुषों का जीवन चरित्र सजीव होता है जिनसे मानव जीवन नित्य प्रति एक नई प्रेरणा लेता रहता है और स्वार्थमय जीवन को परमार्थ में लगाने लगता है। भगवान श्रीचंद्र का कर्मकाल भक्ति एवं ज्ञान के समन्वय का था जो आज भी लोगों को प्रेरणा दे रहा है।

कार्य को आचार्य श्रीचंद्र ने मात्रा के रूप में दिया। मात्रा ही अक्षर के भाव को बड़ा या छोटा करती है। ज्ञान की पिपासा ही ज्ञान चक्षुओं को खोलने के लिए योग्य गुरु की खोज में जगह-जगह ले जाती है। अग्नि जैसे अपने प्रभाव से वातावरण को पवित्र करती है। उसी प्रकार साधु -संत के पास जाने से मन का वातावरण शुद्ध होता है।

साधु जीवन जितना सरल है उतना ही कठोर भी है क्योंकि त्याग, तपस्या संयम की कसौटी में स्वयं के जीवन को साधु कठोरता से कसते हुए समाज के लिए ऐसा सरल मुक्ति का मार्ग बताते हैं कि आम व्यक्ति को सहजता में ही जीवन का लक्ष्य मिल जाता है। साथ ही संत को अपने सारे कार्य स्वयं करने पड़ेंगे और संसार के लोगों द्वारा ताने भी मिलेंगे। जब ईश्वर को प्राप्त करने की धुन लग जाएगी तो जीवन बहुत सरल हो जाएगा।

चार प्रकार का सामान्य ज्ञान सभी को होता है। पाँचवा ज्ञान गुरु द्वारा सतगुरु की प्राप्ति के लिए होता है। परमार्थ का जीवन ही ईश्वर प्राप्ति का सुगम मार्ग है। 'गुरु अविनाशी खेल रचाया अगम का रास्ता बताया। कबीर धारा अगम की सद्गुरु दयीलखाय' मात्रा के अर्थ को आचरण में लेते ही धारण करना है और मनुष्य अमवागमन की स्थिति से मुक्त हो जाता है। जैसे अंधकार में दीपक का प्रकाश रास्ता दिखाता है। उसी प्रकार महापुरुषों का आचरण एवं वाणी इह लोक और परलोक भी अलौकित करती हैं।

स्वामी गुरुशरणदास जी महाराज के प्रवचनों स

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