मनुष्य के मस्तिष्क से ही यंत्रों का आविष्कार हुआ है। कम्प्यूटर को मनुष्य ने ही बनाया है। कम्प्यूटर से मनुष्य और मस्तिष्क नहीं बना है। यंत्र श्रेष्ठ नहीं मनुष्य श्रेष्ठ है। मंत्रों के उच्चारण मात्र से अनेक संकट दूर हो जाते हैं। अतः मंत्र और ज्ञान की आराधना करो।
ज्ञान दीप के समान होता है जो स्वयं को तो प्रकाशित करता ही है दूसरों को भी प्रकाशित करता है। जो आत्मा का बोध कराए, कल्याण के मार्ग पर प्रतिष्ठित कराए, एकता को खंडित होने से बचाए और दुख व अहित का परिहार करे वही समीचीत ज्ञान है।
ज्ञान से ही तत्व का बोध, चित्त का निरोध और आत्मा का शोध होता है। आचार्य ज्ञानसागरजी का स्मरण करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि वे श्रमण संस्कृति के ऐसे महान साधक थे जिन्होंने जीते जी अपने आचार्य पद का त्याग कर अपने शिष्य विद्यासागरजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया और समाधिलीन हो गए। क्योंकि वे जानते थे कि पद की लोलुपता छोड़े बिना समाधि प्राप्त नहीं हो सकती।