वह परमात्मा एक धाम है और उसमें प्रवेश का माध्यम है सद्गुरु ही। 'गुरु राखई जो कोप विधातां गुरु रुके नहीं कोई जग त्राता।' यदि तकदीर फूट जाए, तब भी सद्गुरु रक्षा कर सकते हैं और यदि सद्गुरु ही उपलब्ध नहीं है तो भगवान नाम की कोई वस्तु पहचान में नहीं आती।
भगवान हृदय देश में ही है किंतु यदि सद्गुरु नहीं है तो उसकी पहचान नहीं। इसी प्रकार जो गुरु एकमात्र परमात्मा के उपलब्धि की क्रिया नहीं जानते, जो सत्य में प्रवेश वाले नहीं है जो उस क्रिया को हमारे आपके हृदय देश में जगाने में, अनुभवी जागृति देने में सक्षम नहीं है, वह सद्गुरु नहीं है, कुलगुरु है।
जब तक सद्गुरु उपलब्ध नहीं है तब तक उस एक परमात्मा का परिचायक दो ढाई अक्षर का नाम और एक परमतत्व परमात्मा के प्रति श्रद्धा यदि आप में है तो आपका सुमिरन, भजन और इष्ट सही है। यह श्रद्धा आपके भाव का एक परमात्मा के केंद्रीयकरण, एक स्थल पर स्थिरीकरण ही आपका पुण्य और पुरुषार्थ बन जाएगा।
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इसके साथ ही वह आत्मा जागृत होकर जहाँ सद्गुरु हैं उनसे भेंट करा देगी और जहाँ सद्गुरु मिले तो यौगिक क्रिया की जागृति आपके हृदय देश में ही जाएगी। अनुभव, संकेत, इष्ट के आदेश आपको मिलने लगेंगे। जो आत्मा प्रसुप्त है, तटस्थ है, जागृत हो जाएगी।
आज कहा जाता है कि ईश्वर हृदय में वास करता है लेकिन चार-छः महीने ही किसी ऐसे तत्वदर्शी महापुरुष की सेवा, उनके द्वारा बनाई हुई टूटी-फूटी साधना आपसे पार भर लग जाए वे जागृत हो जाएँगे। आपसे बातें करने लगेंगे, आपका मार्गदर्शन करेंगे, वह प्रभु आपको चलाएँगे। उन्हीं के निर्देशन में चलकर साधक उन्हें प्राप्त करता है।
'न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्य' न यह आत्मा प्रवचन से प्राप्त होती है, न विशिष्ट बुद्धि से प्राप्त होती है, न बहुत सुनने-समझने से प्राप्त होती है, बल्कि लाखों भाविकों में से जिस किसी एक का वह वरण कर लेता है जिसके हृदय से जागृत होकरर उँगली पकड़कर चलाने लगता है, वही उनके निर्देशन में चलकर उसे प्राप्त करता है और उँगली तभी पकड़ेगा जबकि एकमात्र परमतत्व परमात्मा में श्रद्धा हो और तत्वदर्शी सद्गुरु उपलब्ध हों।