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इंदौर की उत्पत्ति एवं विकास की गौरव-गाथा

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अभय छजलानी

मालवा के सुरम्य पठार के शिखर पर बसा इंदौर 22‍ डिग्री 43 उत्तर अक्षांतर और पूर्व में 75.50 देशांतर पर स्थित है। जैसे-जैसे पठार मानपुर के बाद घाटी में नीचे की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विंध्याचल एवं सतपुड़ा की सुंदर पर्वत श्रृंखलाएं बावनगजा के यहां गले मिलती-सी लगती हैं। इंदौर के इर्द-गिर्द छोटी-छोटी पर्वत श्रृंखलाएं वस्तुत: विंध्याचल की ही शाखाएं हैं, जो मांडवगढ़ के यहां विराट रूप धारण कर लेती हैं। जलवायु की दृष्टि से इंदौर शब-ए-मालवा के तहत आता है, जहां का समशीतोष्ण मौसम खुशनुमा रहा है। आज जबकि इंदौर के इर्द-गिर्द कांक्रीट का जंगल खड़ा हो गया है, इसकी जलवायु भी पठार के निचले हिस्से पश्चिमी निमाड़ की तरह गर्म होती जा रही है। इंदौर की उत्पत्ति, जूनी इंदौर से इंदौर के आज के नए रूप में परिवर्तन, किसी शायर की कल्पना को साकार करती है कि 'जमाना हमसे है, हम जमाने से नहीं।'

इंदौर की उत्पत्ति एवं विकास की गौरव-गाथा
 
भारत के पौराणिक आध्यात्मिक नगरों की तरह इंदौर का उद्भव भी रोमांचकारी है। एक दंत-कथा के अनुसार दो ज्योतिर्लिंगों के मध्य में बसा होने की वजह से यह नगर बाधाओं से सुरक्षित रहेगा। इंदौर के एक ओर उज्जैन में महाकालेश्वर का ज्योतिर्लिंग है और दूसरी ओर ओंकारेश्वर में ओंकारजी महादेव विराजमान हैं। आज इंदौर का नाम राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर आलोकित है, परंतु जूनी इंदौर के बसने के पूर्व ऐसा नहीं था। विकास के इन समूचे बिंदुओं को एक धागे में पिरोना जरूरी है जिससे हम इंदौर को समग्रता से देख सकें और नई पीढ़ी इस नगर से पूरी तरह वाकिफ हो सके।
 
यह‍ विश्वास किया जाता है कि इंदौर कस्बे का उत्कर्ष 17वीं शताब्दी में शुरू हुआ। इतिहासकार रघुवीरसिंहजी के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में 17वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों के सनदों में कस्बा इंदौर का उल्लेख मिलता है।
 
18वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक प्रमुख प्रशासनिक मुख्यालय के रूप में इंदौर परगने का उल्लेख मिलता है। तब इंदौर, सरकार उज्जैन, सूबा मालवा का परगना था। उज्जैन में मालवा का प्रशासनिक मुख्यालय था, जो मुगलों की सल्तनत में ही था। ऐेसे उल्लेख लगभग सन् 1720 के दस्तावेजों में मिलते हैं। इसके बाद सन् 1724 के दस्तावेजों के संदर्भों में परिवर्तन मिलता है और तब इंदौर को सूबा इंदौर, सरकार उज्जैन, परगना कम्पेल कहा जाने लगा। उस समय तक होलकर सत्ता का उत्कर्ष नहीं हुआ था।
 
नर्मदा घाटी के मार्ग पर व्यापार-व्यवसाय को उन्नत करने की दृष्टि से संभवत: इस स्थान का महत्व बढ़ता चला गया। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार यह कहा जा सकता है कि मराठों के मालवा आगमन के साथ, तब के इंदौर क्षेत्र का महत्व बढ़ता गया। कहीं-कहीं उल्लेख मिलता है कि यहां से 24 किलोमीटर दूर कम्पेल परगने के भू-स्वामियों एवं जमींदारों का ध्यान भी इंदौर क्षेत्र की ओर आकर्षित हुआ। तब कम्पेल परगने की मान्यता थी।
 
इंदौर के एक व्यवस्थित नगर के रूप में स्थापना की कोई निश्चयात्मक तिथि या वर्ष विवरण उपलब्ध नही है। ऐसी संभावना लगती है कि एक बस्ती धीरे-धीरे आकार लेती रही, जो बाद में कस्बा, परगना और राजधानी बनी। एक पृथक, स्वायत्त सत्ता प्रमुख के रूप में होलकरों का आधिपत्य इंदौर पर वर्षा 1730 में कायम हुआ, जब पेशवाओं ने उन्हें जागीर प्रदान की।
 
जहां तक इस बस्ती के नाम का प्रश्न है, एक कथन यह भी है कि इसका अस्तित्व मालवा के राष्ट्रकूट शासकों के समय भी था। स्व. डॉ. वि.श्री. वाकणकर तथा म.प्र. पुरातत्व विभाग के पूर्व उप-संचालक विद्वान पुरातत्वविद् स्व. श्री एस.के. दीक्षित की यह मान्यता है कि राष्ट्रकूट शासक इन्द्र, जिसका कि मालवा पर शासन रहा था, के नाम पर इस नगर का नाम इन्द्रपुर पड़ा, जो आगे चलकर इंदूर और फिर इंदौर हो गया।
 
अन्य किंवदंतियों के अनुसार 1741 में इन्द्रेश्वर मंदिर की स्थापना हुई। इस मंदिर के नाम पर इस स्थान का नामकरण संस्कार पहले इन्द्रेश्वर और बाद में इन्द्रपुर रखा गया, किंतु ऐतिहासिक तत्व कुछ अन्य हैं, क्योंकि इन्द्रेश्वर मंदिर के निर्माण के 8 वर्ष पूर्व 1732 में ही इंदौर कस्बा होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर को पेशवा द्वारा जागीर में दिया गया था। कालांतर में मराठा साम्राज्य के प्रभाव के कारण इन्द्रपुर, इंदूर कहलाने लगा होगा। फिर जब 19वीं शताब्दी में पाश्चात्य शिक्षा व अंगरेजों का प्रभाव बढ़ा तब 'इंदूअर', 'इंदुअर' कहलाते-कहलाते इंदौर हो गया।
 
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वर्ष 1732 में इंदौर की जागीरी मल्हारराव होलकर को मिलने के बाद उनकी गतिविधयों के केंद्र के रूप में संभवत: इंदौर का महत्व स्थापित होना शुरू हुआ, किंतु सूबायत कम्पेल में होने के कारण तब भी प्रशासनिक गतिविधियां वहीं से संचालित होती थीं। कम्पेल व इंदौर के प्रशासनिक कार्रवाइयों के संबंध करीब दस-ग्यारह वर्ष चलते रहे। इस बारे में बहुत विस्तृत जानकारियां प्रमाणित रूप से उपलब्ध नहीं है। इंदौर के विकास के प्रति सूबेदार मल्हारराव होलकर के चिंतित होने का पहला प्रबल प्रमाण 7 जनवरी 1743 में उनके द्वारा इंदौर के कानूनगो (राजस्व अधिकारी) को लिखा गया पत्र है। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि वे बाहर के व्यापारियों और साहूकारों को इंदौर आने और यहां बसने के लिए प्रभावित और प्रोत्साहित करें, क्योंकि आपकी इस योग्यता की चर्चा होती है।
 
 
1931 में डॉ. धारीवाल द्वारा प्रकाशित तत्कालीन राज्य के अधिकृत गजेटियर ने अनुसार, अहिल्याबाई को इंदौर इतना पसंद आया कि मल्हारराव (प्रथम) के स्वर्गवासी होने के बाद जब पहली बार उन्होंने यहां अस्‍थाई मुकाम किया तब उन्होंने जिला अधिकारियों को आदेश दिया कि वे कार्यालय कम्पेल से इंदौर स्थानांतरित करें और तब उन्होंने खान नदी के पार पुराने शहर के सामने नए शहर की स्थापना की। अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव को यह स्थान इतना पसंद आया कि नदी को रोककर उन्होंने स्नान करने के लिए एक तालाब बनाया, जो हाथीपाला कहलाया। अहिल्याबाई द्वारा इंदौर को राज्य का सैनिक केंद्र बनाने के फलस्वरूप इस स्थान का विकास हुआ। किंतु वे स्वयं तब भी स्थाई तौर पर महेश्वर में ही रहती थीं। उसी को उन्होंने 1766 में सत्ता प्राप्ति के बाद नागरिक राजधानी के रूप में चुना था। यह स्थिति उनके जीवनकाल तक बनी रही। 1766 में मल्हारराव (द्वितीय) के गद्दी पर आने के बाद उन्होंने इंदौर को राज्य की राजधानी बनाया।
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मुख्‍यालय के इस स्थानांतरण को बाद में कम्पेल से इंदौर की राजधानी का स्थानांतर भी कहा जाने लगा। तब से यशवंतराव प्रथम के आने तक इंदौर को प्रशासनिक मुख्‍यालय (राजधानी) बने रहने का सौभाग्य मिला। यशवंतराव प्रथम के कार्यकाल में विभिन्न सैनिक संतुलनों के बनते-बिगड़ते, उन्होंने अपना प्रशासनिक मुख्‍यालय भानपुरा में स्थापित कर लिया। 1817 में महिदपुर में अंगरेजों व होलकरों (तुकोजीराव द्वितीय) के बीच लड़ाई हुई। उस लड़ाई में हुई संधि के प्रावधानों के अनुसार इंदौर को दूसरी बार होलकरों की राजधानी बनाया गया। होलकरों के दीवान तात्या जोग के सद्प्रयत्नों से तब होलकरों की पुराने राजवाड़े में गद्दीनशीनी हुई। इंदौर में ही ब्रिटिश सेंट्रल इंडिया एजेंसी का मुख्यालय बना।
 
इंदौर राज्य की जानकारी देने वाला सबसे पहला गजेटियर वर्ष 1908 में प्रकाशित हुआ। इसका संकलन कैप्टन सी.ई. लुआई ने किया था, जो सेंट्रल इंडिया के गजेटियर सुप्रिन्टेंडेंट थे। मंदसौर की संधि के बाद अर्थात 1817-1818 की गतिविधियों के विवरण में लिखा है- 'राज्य की राजधानी जो अब तक महेश्वर या भानपुरा थी, अंतिम रूप से इंदौर स्थानांतरित कर दी गई।'
 
बाद में जब 1948 में मध्यभारत राज्य का निर्माण हुआ तो इंदौर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी और आज के कमिश्नर कार्यालय मोती बंगले में मंत्रिमंडाल का कार्य किया करता था तथा गांधी हॉल में विधानसभा की बैठक होती थी।
 
जूनी इंदौर खान और सरस्वती नदियों पर बसा है, जो एक युग में शिप्रा की सहायक नदियों के रूप में जानी जाती थीं। ऐतिहासिक दृष्टि से जूनी इंदौर की तुलना इंग्लैंड के वेस्टमिंस्टर से की जाती है। वर्तमान इंदौर के विकास और तत्कालीन उत्थान की गाथा मराठों के या होलकरों के उत्थान की गाथा है। एक ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर यह भी विश्वास किया जाता है महाराज छत्रपति शिवाजी जब दिल्ली से औरंगजेब की कैद से छूटे और दक्षिण की ओर लौट रहे थे, तब वे महाकाल को नमन करने हेतु उज्जैन पधारे थे और लौटते समय चन्द्रभागा के किनारे एक हरे-भरे गांव में ठहरे थे, जो कालांतर में इंदौर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
 
(चित्र कैप्शन : गांधी हॉल में विधानसभा की बैठक)
 
इंदौर के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि 18वीं शताब्दी में मराठों के आगमन के समय तक मालवा कई शासकों के हाथों से गुजरकर नागर ब्राह्मण गिरधर बहादुर के हाथ में पहुंच गया था। मुगल सूबेदार गिरधर बहादुर ने मराठों को मालवा में पैर जमाने से रोका था। इसी संदर्भ में यह तथ्य भी जरूरी है कि सन् 1725 में पेशवा बाजीराव ने निजाम के आपसी झगड़ों से लाभ लेकर होलकर, सिंधिया और पवार को मालवा इलाके से कर वसूल करने की सनद दिला दी थी।
 
इंदौर के अर्थ को सार्थक करने हेतु संक्षेप में होलकर वंश का जिक्र करना जरूरी है, क्योंकि लगभग 200 वर्षों तक यह क्षेत्र होलकरों द्वारा शासित हुआ है। ये तथ्य भी इस संबंध में कम जरूरी नहीं कि 6 जनवरी 1818 की मंदसौर की संधि के पश्चात ही भानपुरा से राजधानी हटकर पुन: इंदौर आई थी। 1818 में ही इंदौर की रेसीडेंसी कोठी का निर्माण हुआ। बाद में 1844 में ही तुकोजीराव होलकर गद्दीनशीन हुए थे। इसके बाद तो 1947 में भारत की आजादी तक और राज्यों के भारतीय गणतंत्र में विलय होने तक, इंदौर में होलकरों का राज्य रहा 
इसलिए संक्षेप में इस वंश की गाथा जरूरी है।
 
होलकरों के वंश सबसे पहले चित्तौड़गढ़ के निकट मेवाड़ में बसे थे। यहां से वे दक्षिण की ओर औरंगाबाद जिले की ओर बढ़े। अंत में पुणे से 64 किलोमीटर दूर 'हल' या 'होल' गांव को उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया। संभवत: इसी वजह से उनका नाम 'हलकर' या 'होलकर' पड़ा। मल्हारराव होलकर,‍ जिन्होंने इंदौर व मालवा में होलकर राज्य की स्‍थापना की थी, के पिता विनयशील किसान थे। उनका नाम खान्दोजी होलकर था। मल्हारराव व उनकी माता खानदेश के तलौदा गांव में रहने लगे। वहां उनके मामा भोजराज भी रहते थे। मल्हारराव अद्भुत शौर्यवान घुड़सवार थे। उनके मामा ने उन्हें अपने घुड़साल व फौजी सामान का जिम्मा सौंप दिया। थोड़े दिनों में मल्हारराव के शौर्य के किस्से पेशवा तक पहुंचे और 1724 में पेशवा ने मल्हारराव को अपनी सेवा में ले लिया।
 
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श्री मल्हारराव के आने से मराठों का दबदबा बढ़ गया। बाजीराव पेशवा अपना साम्राज्य बढ़ाना चाहते थे और उनका सबसे पहला निशाना मालवा था। मालवा में गिरधर बहादुर की बहुत धाक थी। वे 24 नवंबर 1728 को पराजित होकर मारे गए। इसके बाद 1739 में निजाम को भोपाल में बाजीराव ने हरा दिया। इस युद्ध में मल्हारराव होलकर ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। मालवा के अनेक जिलों पर मल्हारराव का आधिपत्य हो गया। कम से कम 82 जिले उनके अधीन हो गए। पेशवा चाहते थे कि धार के पवार की फौजी ताकत न बढ़ने पाए, इसलिए पेशवा ने मल्हारराव का उपयोग किया। मल्हारराव को एक ही पुत्र था खांडेराव होलकर, जो 1754 के डीग में हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे।
 
श्री खांडेराव का विवाह देवी अहिल्याबाई से हुआ था और उन्हें एक पुत्र मालेराव पैदा हुआ, जिनका बाद में बीमारी की वजह से देहावसान हुआ था। इंदौर की भूमि देवी अहिल्याबाई के पुण्यों से सिंचित भूमि है इसलिए इस पूरे अंचल में अहिल्याबाई को देवी मां के रूप में स्वीकारा गया है। पूरे भारत में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है। उन्होंने महेश्वर से अपना (खासगी) राजकाज चलाया था और होलकर राज्य को चलाने के लिए अपनी फौज के कमांडर तुकोजीराव होलकर को मनोनीत किया था। 13 मार्च 1767 से 30 अगस्त 1795 तक उनके देवलोकगमन तक देवी अहिल्याबाई ने राज किया।
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देवी अहिल्याबाई के स्वर्गवासी होने के बाद भी नर्मदा का तटीय नगर महेश्वर खासगी की राजधानी के रूप में कार्य करता रहा। 1818 तक होलकर राज्य की राजधानी महेश्वर रही। इसके 1 वर्ष पूर्व 1817 में पेशवा ने अंगरेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था। पेशवा की सहायता के लिए होलकर लड़ाई में कूदे थे। 20 दिसंबर 1817 को महिदपुर के निकट अंगरेजों और होलकरों में घमासान युद्ध हुआ था। इसमें होलकरों की हार हुई और 6 जनवरी 1818 को मंदसौर संधि पर हस्ताक्षर हुए, जो 17 जनवरी को अनुमोदित हो गई। तभी इंदौर राजधानी बनी।
 
इंदौर के विकास में योगदान हेतु महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) का नाम सम्मान से लिया जाता है। 1844 में वे गद्दी पर बैठे और 13 वर्ष बाद ही 1857 में आजादी की पहली लड़ाई शुरू हो गई। होलकरों ने भी उन दिनों अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था, परंतु अंतत: कर्नल डुरेण्ड ने रेसीडेंसी पर अधिकार कर लिया था। तुकोजीराव के शासनकाल में कृष्णपुरा पुल, कृष्णाबाई की छतरी व नगर में सड़कें बनीं और 1875 में इंदौर के रेल से जुड़ने से व्यापार-व्यवसाय की गतिविधियों में तेजी आई। महाराज शिवाजीराव के कार्यकाल में होलकर कॉलेज, मोती बंगला आदि का निर्माण हुआ। 1903 में तुकोजीराव (तृतीय) के पक्ष में महाराज शिवाजीराव ने गद्दी छोड़ दी, परंतु नगर का विकास जारी रहा। माणिकबाग पैलेस, महारानी सराय, गांधी हॉल, हाईकोर्ट भवन (पुराना), यशवंत निवास, तुकोजीराव हॉस्पिटल (जो अब अस्पताल नहीं है) इसी शासनकाल की देन हैं। 1906 में इंदौर में बिजली प्रदाय शुरू हुआ और इंदौर आधुनिक हो गया। 1909 में फायर ब्रिगेड की स्‍थापना हुई और 1918 में नगर के विधिवत विकास की पेट्रिक गिडिज योजना बनी और इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 1924 में नगर सुधार न्यास की स्थापना हुई। स्नेहलतागंज, मनोरमागंज, पलासिया इसी न्यास की योजनाओं का सुफल है। 1931 में संयोगितागंज इंदौर की सीमा में शरीक कर लिया गया।
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पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव एवं औद्योगिक विकास से इंदौर अछूता नहीं रहा। 19वीं सदी से ही इस नगर का औद्योगिक विकास प्रारंभ हो चुका था। इसी की वजह से कालांतर में इंदौर एक प्रमुख औद्योगिक नगर बन गया। इसका श्रेय संगठित मजदूर संघों को भी है, जिन्होंने इंदौर को राष्ट्र के नक्शे पर स्थापित किया। कपड़ा उद्योग नगर के विकास की बुनियाद रहा। इस उद्योग की स्थापना 1871-72 में तत्कालीन शासक महाराज तुकोजीराव (द्वितीय) ने शासकीय स्तर पर की थी। इससे इस प्रमाण को बल मिलता है कि शासक एवं व्यवसायियों में बेहतर समन्वय था जिसकी वजह से यहां वस्त्र व अन्य उद्योग पनपे। एम.टी. क्लॉथ मार्केट आज तक इसका साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है।
 
होलकर राज्य एक तंत्रीय शासन होते हुए भी यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन होलकर राज्य के शासकों ने राज्य में स्वायत्त शासन के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। 1870 में इंदौर में नगर पालिका की स्थापना हुई। यह तथ्य सचमु‍च चौंकाने वाला है कि स्वराज के पूर्व भी इंदौर में बालिग मताधिकार के आधार पर प्रतिनिधियों का चुनाव होता था। यह जानकारी भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि होलकर राज्य की पहली जनगणना 1881 में हुई थी और नियमानुसार 10 वर्ष बाद 1891 में फिर जनगणना हुई। इससे लगता है कि राज्य में जनगणना नियमित रूप से होती थी। जनगणना के रिकॉर्ड से ही पता चलता है कि राज्य में बाल-विवाह प्रचलित था।
 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इंदौर का बहुमूल्य स्थान रहा है। 1857 के पहले संग्राम के समय से ही इंदौर लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति संवेदनशील रहा है। 1893 में जब पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने पहला गणपति उत्सव मनाया था, उस प्रजातांत्रिक चेतना को इंदौर में भी अभिव्यक्ति मिली थी। इंदौर में तिलक से प्रेरित होकर 1896 में गणपति उत्सव मनाया गया था। आजादी की लड़ाई के लिए संस्थाएं सक्रिय होना शुरू हो गई थीं और 1907 में ज्ञान प्रसारक मंडल नाम की संस्था बनी थी। 1918 में पहली बार जब महात्मा गांधी इंदौर आए थे तो हिन्दी साहित्य समिति भवन की स्थापना का संकल्प लिया गया था। गांधीजी ने इंदौर से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का शंखनाद किया था। दूसरी बार गांधीजी सन् 1935 में इंदौर आए थे।

1920-21 के असहयोग आंदोलन ने इंदौर में भी हलचल पैदा कर दी थी और 1930 की लाहौर कांग्रेस के बाद यहां की जनता ने आजादी का संकल्प दोहराया था। इंदौर निवासियों से गांधीजी नियमित रूप से पत्रों के माध्यम से संपर्क में थे। 1935 से ही प्रजामंडल की गतिविधियां शुरू हो गई थीं। जब सारे देश में 1940 में एकल सत्याग्रह चल रहा था तब इंदौर में 'प्रजामंडल पत्रिका' नामक एक साप्ताहिक इंदौर से प्रकाशित हुआ था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन व गांधीजी के करो या मरो से इंदौर प्रेरित व प्रभावित हुआ था। यहां जगह-जगह जुलूस निकले थे और लोगों ने गिरफ्तारियां दी थीं। आजादी के एक वर्ष बाद 1948 में केंद्र सरकार की स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने महाराजा यशवंतराव अस्पताल की नींव रखी थी।
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सर्वप्रथम 1904 में होलकर दरबार को इंदौर में टेलीफोन एक्सचेंज स्थापित करने की अनुमति मिली थी, लेकिन तब यह सुविधा सरकारी कार्यालयों तथा रेसीडेंसी तक सीमित थी। बाद में 11 जून 1907 को जो अनुमति मिली, उसमें नागरिकों के लिए भी यह सुविधा प्रथम बार उपलब्ध कराई गई।
 
शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में इंदौर का सिंहावलोकन करें तो सकारात्मक विकास से कोई इंकार नहीं कर सकता। कई शिक्षण संस्थाएं अपनी स्थापना की शताब्दियां मना चुकी हैं। 1964 में इंदौर विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उसे देवी अहिल्या वि.वि. के नाम से पुकारा जाता है। वर्तमान में तो शिक्षा में तकनीकी विकास अंतरराष्ट्रीय स्तर का है, पर इन सबके पहले नगर ज्ञान के क्षितिजों के प्रति बहुत संवेदनशील था। प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा दोनों के ही क्षेत्र में इंदौर सेंट्रल इंडिया में जाना जाता था। 'इंदौर मदरसा' के नाम से जाने जाने वाली वाली शिक्षण संस्था 1843 में स्थापित हुई थी जिसका श्रेय महाराजा हरिराव होलकर को जाता है। इस संस्था के खर्च की पूर्ति नगर से गुजरने वाली अफीम के कर से की जाती थी। इसकी तीन शाखाएं थीं- अंगरेजी, हिन्दी और फारसी। बाद में संस्कृत, मराठी व सिद्धांत शास्त्रों के विषय भी इसके पाठ्यक्रम में शुमार किए गए थे। बाद में इंदौर मदरसा संस्कृत महाविद्यालय के नाम से जाना गया।
 
इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज 1888 में स्थापित हुआ और आज लगभग 110 वर्ष पूर्ण कर चुका है। होलकर कॉलेज भी 100 वर्ष से ज्यादा समय पार कर चुका है। डेली कॉलेज 1885 में स्थापित हुआ और आज का मेडिकल कॉलेज 1878 में मेडिकल स्कूल के नाम से स्थापित हुआ था। होलकर कॉलेज 10 जून 1891 को स्थापित हुआ और क्रिश्चियन कॉलेज से 3 वर्ष बाद शुरू हुआ। अन्य अनेक शिक्षण संस्थाएं आजादी के पूर्व से ही विकसित थीं। मल्हार आश्रम 1922 में, राजकुमार आयुर्वेदिक कॉलेज 1936 में, महाराजा शिवाजीराव विद्यालय 1841 में, चित्रकला मंदिर 1927 में, संगीत महाविद्यालय 1923 में, अहिल्याश्रम एवं चंद्रावती महिला विद्यालय 1913 में शुरू हुए। आजादी के बाद शिक्षा का उल्लेखनीय विकास हुआ है। आज तो इंदौर इस क्षेत्र में अग्रणी है और अनेक पब्लिक स्कूल प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं के रूप में पहचाने जाते हैं।
 
प्रशासनिक दृष्टि से इंदौर स्टेट 6 इकाइयों में विभाजित था। 5 जिले थे, जो सूबेदारों द्वारा नियंत्रित होते थे और परगना अलग से था, ये वित्त सचिव के अधीन थे। 5 जिले थे- इंदौर जिला, महिदपुर जिला, नेमावर जिला, निमाड़ जिला व रामपुर-भानपुर जिला। इनके अंतर्गत परगने अलग थे। इंदौर स्टेट में उन दिनों 39 लाख 56 हजार 983 रु. की धनराशि भूमि कर के रूप में वसूली जाती थी। ज्यादातर भूमि उपजाऊ थी और रबी और खरीफ दोनों ही फसलें पैदा होती थीं। सिंचाई के साधनों में कुएं-बावड़ी थे, जो आज के इंदौर में लगभग लुप्त हो चुके हैं। ज्यादातर इलाकों में मालवी भाषा बोली जाती थी और भील प्रधान क्षेत्रों में भीली भाषा का प्रयोग होता था। पुराने सूबेदार की तुलना आज के कलेक्टर या जिलाधीश से की जा सकती है। आज की तरह सूबेदार ही दंडाधिकारी हुआ करता था जिसके पास न्यायालय की शक्तियां होती थीं। परगनों में अमीन रहते थे। वे आज के तहसीलदारों के समकक्ष कहे जा सकते हैं। अमीनों को दंड देने के अधिकार थे। थानेदार हुआ करते थे, परंतु उनका कार्यक्षेत्र वित्त अधिकारी होने तक सीमित था। उन दिनों जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता था, जिसका पद सबसे ऊपर होता था। 
 
व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में उन दिनों होलकर स्टेट काफी उन्नत क्षेत्र माना जाता था। भौगोलिक अनुकूलता, उत्तम जलवायु, उपजाऊ भूमि और आयकर न होने की वजह से उद्योग-व्यवसाय खूब पनपे। तत्कालीन व्यवसाय के युग से ही इंदौर की एक खासियत यह रही कि यहां भिन्न-भिन्न वस्तुओं के लिए अलग-अलग मंडियां हैं। अनाज मंडी अलग है, बर्तन बाजार अलग है, सोना-चांदी का मार्केट भिन्न है, कपड़ा व्यवसाय का ठिकाना अलग है, इस तरह कारोबार व्यवस्थित चलता था। आज के इंदौर में भी यही परंपरा जारी है और हर वस्तु के लिए नियत ठिकाना है।
 
इंदौर स्टेट के युग में बंबई और ब्रिटिश भारत के अन्य केंद्रों पर इंदौर से अनाज व अफीम की बिक्री होती थी। आंकड़ों के अभाव में यह बताना कठिन है कि कितनी मात्रा या मूल्य का सामान बेचा जाता था। अनाज, तिलहन, कपास, अफीम ज्यादातर बाहर भेजे जाते थे और आवक-खरीदी में नमक, शकर, घासलेट, लोहे की वस्तुएं खासतौर से खरीदी जाती थीं। हर जिले में खरीदी-बिक्री के लिए व्यवस्थित अमला था। हुंडियों या नकद (केश) माध्यमों से व्यवसाय होता था। अन्य और कोई माध्यम प्रचलित नहीं था। रेल व रोड के जरिए व्यवसाय होता था। एक ऐसा नक्शा भी इंदौर का मिलता है जिसमें रालामंडल से गांधी हॉल तक रेल लाइन बिछी होने का संकेत है। यह इंदौर का पहला ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वेक्षण पर आधारित नक्शा है, जो 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में तैयार किया गया था।
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होलकर राज्य के अंतिम राजा श्री यशवंतराव द्वितीय हुए जिनका स्वर्गवास 5 दिसंबर 1961 को हुआ। किंतु तब उनके पिता श्री तुकोजीराव होलकर जीवित थे, उनका स्वर्गवास 17 वर्ष बाद 21 मई 1978 को हुआ। उनकी पत्नी श्रीमती शर्मिष्ठादेवी जीवित थीं, जिनका निध 13 अगस्त 1993 को हुआ। श्री यशवंतराव होलकर की पुत्री श्रीमती उषाराजे, पंजाबी परिवार में विवाहित होने के कारण मलहोत्रा कहलाईं (श्री सतीश मलहोत्रा की पत्नी) और पुत्र रिचर्ड जो जीवित हैं और जिनका भारतीय नाम शिवाजी होलकर रखा है।
 
जन-चेतना एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में इंदौर राष्ट्रीय स्तर पर बरसों पूर्व अपनी पहचान बना चुका था। स्वतंत्रता संग्राम के युग से ही इंदौर प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रति संवेदनशील रहा है। जनांदोलनों को मुखर करने के लिए और जनता की आकांक्षाओं को स्वर देने में इंदौर का पत्रकारिता जगत सजग है। इंदौर में 1848-49 में 'मालवा अखबार' नामक साप्ताहिक हिन्दी-उर्दू पत्र प्रकाशित हुआ करता था।

एक दूसरा अखबार 'मल्हारी मार्तण्ड' भी प्रकाशित हुआ था, परंतु अधिक समय नहीं चल पाया। फिर 1930 के युग में जब अंगरेजों का प्रभाव बढ़ा तब यहां से 'प्रिंसली इंडिया' नाम से एक अखबार प्रकाशित हुआ। यह भी ज्यादा नहीं चला। फिर 'सेंट्रल इंडिया' नाम का एक साप्ताहिक निकला, वह भी बंद हो गया। हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर द्वारा प्रकाशित 'वीणा' आज भी नियमित रूप से प्र‍काशित हो रही है। 'नव-निर्माण' का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ, परंतु अधिक वर्षों तक नहीं चल पाया। 1939 में आजादी की आवाज बुलंद करने हेतु प्रजामंडल ने एक पत्रिका का प्रकाशन किया था।
 
नईदुनिया इंदौर का प्रकाशन भारतीय भाषाई समाचार पत्रों में इस क्षेत्र की सर्वाधिक उल्लेखनीय घटना है। नईदुनिया ने 5 जून 1947 से प्रकाशन शुरू किया और पत्रकारिता जगत में सनसनीखेज समाचारों से हटकर विश्वसनीयता के नए मानदंड स्थापित किए। इससे पहले इंदौर समाचार का प्रकाशन 1946 से शुरू हुआ था। बाद में इंदौर में जागरण, नवप्रभात, नवभारत प्रकाशित हुए। अब तो अनेक अखबार और कई सांध्य दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। 5 जून 1997 को नईदुनिया ने अपने जीवन के 50 वर्ष पूर्ण स्वर्ण जयंती मनाई। 
 

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