इंदौर। फिल्मकारों को ऐतिहासिक तथ्यों पर फिल्म बनाते समय ज्यादा जिम्मेदारी से काम करना चाहिए, लेकिन किसी भी फिल्म का बिना देखे विरोध सही नहीं है। क्या संजय लीला भंसाली विरोध करने वाले संगठनों के कुछ लोगों को बुलाकर फिल्म नहीं दिखा सकते?
शहर में आयोजित इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल 2017 में 'पद्मावती के बहाने कुछ चुभते सवाल' विषय पर काफी गर्मागर्म बहस हुई। प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक भावना सोमैया ने कहा कि फिल्म की कास्टिंग में झोल है या कहीं और, यह तय करने वाले हम कौन होते हैं? किसी ने भी फिल्म देखी नहीं है। सब मनगढ़ंत बातें हो रही हैं। जोधा-अकबर फिल्म के समय भी यही हुआ था। हमें संवेदनशील बनना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि फिल्मकार ने कितने पैसे लगाए, मेहनत की है। हम टीवी और अखबारों के माध्यम से उसे रोज मार रहे हैं।
पत्रकार से फिल्मकार बने शैलेन्द्र पांडे ने भंसाली का पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि फिल्मों में जो दिखाया जाता है वही हमें याद रहता है। ऐतिहासिक तथ्यों पर फिल्म बनाते समय हमें ज्यादा जिम्मेदारी दिखानी चाहिए। दरअसल, फिल्म 'पद्मावती' की तो कास्टिंग में ही झोल है। 'बाजीराव मस्तानी' का उल्लेख करते हुए पांडे ने कहा कि उस समय भी विवाद हुआ था। संजय लीला भंसाली का इतिहास ही ऐसा है। उनका अतीत बताता है कि वे गड़बड़ करेंगे ही। ऐसे में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यदि वे इतने ही ईमानदार हैं तो क्यों नहीं राजपूत समाज के कुछ लोगों को फिल्म दिखा देते? मगर वे ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि वे ऐसा चाहते ही नहीं हैं।
पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने कहा कि पद्मावती चित्तौड़ के आसमान से भारत के दामन पर गिरा एक आंसू है। वह राख और धुएं की कहानी है। दरअसल, हिन्दी फिल्में बिना लव सीन के पूरी होती ही नहीं। ऐसे में इस फिल्म में भी ड्रीम सीक्वेंस रही ही होगी, चाहे फिल्म के प्रदर्शन के समय वह दिखाई नहीं दे। उन्होंने कहा कि बाहुबली की सारी कहानी भी ऐतिहासिक है, लेकिन किसी भी ऐतिहासिक पात्र से साम्य नहीं है। इस फिल्म ने साबित कर दिया कि काल्पनिक कहानी के आधार पर भी अच्छी और मनोरंजक फिल्म बनाई जा सकती है।
कार्यक्रम में सूत्रधार की भूमिका निभा रहे वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक ने कहा कि अब इतिहास को न तो बदला जा सकता है और न ही उससे बदला लिया जा सकता है।