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'भीषण यातना में भी भगवान साथ हैं'

स्वामी विवेकानंद का पत्र

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हमें फॉलो करें स्वामी विवेकानंद पत्र
ग्रीनेकर के अपने कार्य के बारे में स्वामी जी ‍लिखते हैं

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अभी उस दिन रात में छावनी के सभी लोग एक चीड़ वृक्ष के नीचे सोने के लिए गए थे, जिसके नीचे मैं हर रोज प्रात:काल हिन्दू रीतिरिवाज से बैठकर इन लोगों को उपदेश देता हूँ। हालाँकि मैं भी उन लोगों के साथ गया था - नक्षत्रखचित नभमंडल के नीचे माँ धरित्री की गोद में सोकर अत्यंत आनंद के साथ रात व्यतीत हुई, खासकर मैं तो उसका पूरा पूर आनंद लेता रहा।

एक वर्ष पशु जैसा जीवनयापन करने के बाद वह रात किस प्रकार आनंद से बीती, इसका मैं तुम्हारे लिए वर्णन नहीं कर सकता - धरती पर सोना, जंगल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करना, ये सब कितने आनंददायक थे। सराय में रहने वाले लोग प्राय: कमोबेश अच्‍छी स्थिति के हैं और जो लोग तम्बू में रहते हैं, वे सभी स्वस्थ, सबल, शुद्ध तथा सरल प्रकृति के हैं। मैं सभी को 'शिवोऽहं, शिवोऽहं' की शिक्षा दे रहा हूँ और वे लोग मेरे साथ इसे दुहराते हैं, सभी सरल तथा पवित्र हैं, साथ ही असीम साहसी भी। अत: इनको शिक्षा प्रदान कर मैं अत्यंत आनंद तथा गौरव का अनुभव कर रहा हूँ।

मैं ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मुझे धन नहीं दिया और ईश्वर का मैं आभारी हूँ कि उन्होंने इन तम्बुओं में रहने वालों को गरीब बनाया। शौकीन बाबू लोग तथा महिलाएँ होटल में ठहरे हुए हैं, किंतु तंबुओं में रहने वालों की नसें मानो लोहे की बनी हुई हैं, मन तिहरे इस्पात का बना है और आत्मा अग्निमय है। कल जब मूसलाधार वर्षा हो रही थी और आँधी सब कुछ उलट-पुलट रही थी, उस समय ये निडर वीर हृदय लोग आत्म की अनंत महिमा में दृढ़विश्वास रखकर आँधी उन्हें उड़ा न ले जाय, इसके लिए तंबुओं की रस्सियों को पकड़कर ऐसे झूल रहे थे कि यदि तुम उस दृश्य को देखतीं, तो निश्चय ही तुम्हारा हृदय और भी विशाल तथा उन्नत हो गया होता। मैं ऐसे लोगों के समान लोगों को देखने के लिए सौ मील तक भी जाने को तैयार हूँ। प्रभु इनका मंगल करें।...

मेरे लिए तुम किंचितमात्र भी चिंतित न होना - प्रभु मेरी देखभाल अवश्य करेंगे और यदि वे ऐसा न करें, तो मैं समझूँगा कि मेरे जाने का समय आ चुका है और मैं आनंदपूर्वक चल दूँगा। अब मैं तुम लोगों के समक्ष कुछ अच्‍छी कल्पनाएँ एवं विचार रखता हूँ। तुम पवित्र स्वभाव एवं उन्नतमना हो। इन लोगों की तरह तुम चैतन्य जड़ की सतह पर न खींचकर जड़ को चैतन्य में परिणत करो, कम से कम प्रतिदिन एक बार उस चैतन्य-राज्य की अनंत सुंदरता, शांति तथा पवित्रता का आभास मात्र प्राप्त करने का प्रयास करती रहो।

किसी विलक्षण वस्तु को पाने की कभी चेष्टा न करो, पाँव की अँगुलियों से भी ऐसी वस्तुओं का स्पर्श न करो। तुम्हारी आत्मा सर्वदा अविच्छिन्न तैलधारावत तुम्हारे हृदय सिंहासन निवासी उस प्रियतम के पादपद्मों में क्रमश: संलग्नता को प्राप्त करे और उसके सिवाय देह आदि जो कुछ भी हैं, उनकी ओर तुम्हारा ध्यान न जाय। जीवन क्षण स्थायी है, एक क्षणिक स्वप्न, यौवन तथा सौंदर्य नश्वर हैं। दिनरात यही जपती रहो - 'तुम्हीं मेरे पिता, माता, पति, प्रिय, प्रभु तथा ईश्वर हो - मैं तुम्हारे सिवाय और कुछ भी नहीं चाहती हूँ, कुछ भी नहीं चाहती हूँ, कुछ भी नहीं चाहती हूँ।

तुम मुझमें हो, मैं तुममें हूँ - तुममें और मुझमें कोई अंतर नहीं।' धन नष्ट हो जाता है, सौंदर्य विलीन हो जाता है, जीवन तेजी से समाप्त हो जाता है और शक्ति लुप्त हो जाती है, किंतु प्रभु चिरकाल विद्यमान रहते हैं, प्रेम निरंतर बना रहता है। यदि इस देहयंत्र को बनाए रखने में किसी प्रकार का गौरव माना जाए, तो दैहिक कष्टों से आत्मा को पृथक रखना उससे कहीं अधिक गौरव की बात है। जड़ के साथ किसी प्रकार का संपर्क न रखना ही इसका एकमात्र प्रमाण है कि तुम जड़ नहीं हो।

ईश्वर का दामन पकड़े रहो, देह में या अन्यत्र क्या हो रहा है, उस ओर ध्यान देने की क्या आवश्यकता? दुख की विभीषिका में यही कहो कि हे मेरे भगवन्! हे मेरे प्रिय! मृत्युकालीन भीषण यातना में भी यही कहो कि हे मेरे भगवन! हे मेरे प्रिय! संसार में जितने प्रकार के दुख या कष्ट हैं, उनके ‍उपस्थित होने पर भी यही कहती रहो कि हे मेरे भगवन्, हे मेरे प्रिय! तुम यहीं पर हो, मैं तुम्हें देख रही हूँ। तुम मेरे साथ हो, मैं तुम्हारा अनुभव कर रही हूँ। मैं तुम्हारी हूँ, मुझे ग्रहण करो।

मैं इस जगत की नहीं हूँ, मैं तो तुम्हारी हूँ, अत: मुझे न त्यागो। इस हीरे की खान को छोड़कर सामान्य काँच के टुकड़े को ढूँढ़ने में प्रवृत्त न हो। यह जीवन एक महान सुयोग है - क्या तुम इसकी अवहेलना कर सांसारिक सुख में फँसना चाहती हो? वे समस्त आनंदों के मूल स्रोत हैं। वह परम श्रेयस ही तुम्हारे जीवन का लक्ष्य बने और तुम परम श्रेयस को प्राप्त हो जाओ।

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