देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए अँग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर करने वाली अमर वीरांगना, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई महिलाओं को अधिकारसंपन्न बनाने की पक्षधर थीं। लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी और अपनी सुरक्षा में भी महिला सैनिकों को शामिल किया था।
रानी लक्ष्मीबाई पर एक नाट्य श्रृंखला 'अपनी झाँसी नहीं दूँगी' का कई स्थानों पर मंचन कर चुके रंगमंच निर्देशक राकेश नैयर कहते हैं 'लक्ष्मीबाई के जीवन के कई अहम पहलुओं पर उनकी वीरता हावी हो चुकी है। उनके अप्रतिम शौर्य से चकित अँग्रेज भी उनकी तारीफ करने पर मजबूर हो गए जिन्हें लक्ष्मीबाई ने नाकों चने चबाने पर बाध्य किया था।'
इतिहासकार आलोक कुमार कहते हैं कि अँग्रेजों ने जब लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और डलहौजी की राज्य हड़प नीति के तहत झाँसी पर कब्जा करने का निश्चय किया तो लक्ष्मीबाई ने अँग्रेजों की शर्ते ठुकरा दीं और उन्हें युद्ध के लिए ललकारते हुए ऐलान किया 'मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।'
'बेहतर सेनापति की क्षमता वाली लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही अपना कुशल प्रशासनिक कौशल भी साबित कर दिया था। वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की पक्षधर थीं। उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी और अपनी सुरक्षा में भी महिला सैनिकों को शामिल किया था।' महिला सैनिकों को विशेष प्रशिक्षण दिया गया था। जब अँग्रेजों ने झाँसी पर हमला किया था तब लक्ष्मीबाई की महिला सैनिकों ने तोपखाने की कमान संभाली थी। ये सैनिक घायल पुरूष सैनिकों की देखभाल और उनके लिए भोजन की व्यवस्था भी करती थीं।
जिस दौर में महिलाओं को अपने फैसले खुद लेने का अधिकार नहीं था, उस दौर में उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया। झाँसी का सिंहासन संभाला। अंग्रेजों की शर्तें मानने से निर्भीकतापूर्वक इंकार किया और उनसे जम कर लोहा लिया।' पहले स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख हस्तियों में से एक लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली पर एक स्मारक बनाने की बात चल रही है।