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सुभद्रा कुमारी चौहान की क्रांति-कथाएँ

इसमें उनके जीवन के चित्र भी हैं

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हमें फॉलो करें सुभद्रा कुमारी चौहान
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कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान अपने पति लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता संग्राम में पूरी तरह से समर्पित हो चुकी थीं। छोटे बच्चों को गोद में लिए और उनके हाथ पकड़े सुभद्रा जुलूसों में भूखी-प्यासी शामिल रहतीं। कहीं कुछ मिला तो बच्चों को दे दिया। स्वतंत्रता का जो अलख वह जगा रही थीं, उसमें उनका तन-मन सब कुछ आहूति बन रहा था।

नमक सत्याग्रह के दौरान ठाकुर लक्ष्मण सिंह को जेल जाना पड़ा। अकेली सुभद्रा अपने नन्हे-नन्हे बच्चों और बूढ़ी सास के साथ, बिना किसी संरक्षक के रहने लगीं। आमदनी के नाम पर पास में केवल पाँच सौ रुपए जबकि सुभद्रा खुले हाथों से खर्च करने की आदी थीं।

इसी समय पत्रिकाओं के संपादकों ने सुभद्रा कुमारी से कहानियाँ लिखने को कहा। पारिश्रमिक भी दिया था। सुभद्रा ने कहानी लिखीं। छपीं। प्रशंसा हुई। पर विधा नई थी। सुभद्रा संतुष्ट न थीं। उन्हीं दिनों वरिष्ठ कहानीकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जबलपुर आए। सुभद्रा ने उन्हें अपनी कहानियाँ पढ़ने को दीं और उन पर राय माँगी। बख्शी जी ने लिखा - "यदि कहानियों में सच्चे भावों की सच्ची अभिव्यक्ति हुई है तो उनमें संशोधन की आवश्यकता नहीं होती।

कहानियों में जीवन की सच्ची अनुभूति ही काम करती है। कथा साहित्य में जो भाव वैचित्र्य है, उसका कारण हम लोगों की यही अनुभूति है। इसी प्रकार शैली में भी हम लोगों का व्यक्तित्व प्रकट होता है। इसी से मैंने सुभद्रा जी से प्रार्थना की कि वे अपनी कहानियों में किसी प्रकार का संशोधन न कराएँ।"

सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियों के विषय में उनकी सुपुत्री सुधा चौहान लिखती हैं - "सुभद्रा की कितनी ही कहानियों में उनके अपने जीवन प्रसंग या अनुभूति के मार्मिक टुकड़े, कथा का हल्का-सा आवरण ओढ़े आ गए हैं। वे कहानी कम, उनकी आत्मकथा की घटनाएँ जैसे ज्यादा लगते हैं। उन्हें संस्मरण भी कह सकते हैं।"

सुभद्रा कुमारी की कहानियों में भी राष्ट्रीयता का स्वर प्रमुख था। वह आम आदमी के दिल की आवाज कहती थीं। कहानियों के संवादों में निर्भीकता और देश के लिए बलिदान हो जाने की ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती थी। उनकी एक कहानी "ताँगे वाले" का एक अंश यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है :

"जब से सत्तावन के गदर का इतिहास पढ़ा और यह जाना कि फिरंगी कैसे आए और कैसे फैल गए सारे हिंदुस्तान में, तब से हुजूर, बदले की भावना से रात-दिन जलता रहता हूँ इसलिए सरकारी नौकरी छोड़ दी। माँ-बाप नाराज हो गए तो घर ही छोड़ दिया। तब से यह ताँगा चलाता हूँ पर ताँगे पर भी किसी साले फिरंगी को बैठाकर ताँगा न हाँकूँगा।"

"क्यों? फिरंगी को न बैठाने की कसम क्यों खा ली?" मैंने पूछा - "सारे हिंदुस्तान में गदर के समय इन फिरंगियों ने क्या कम जुल्म किए हैं? गाँव के गाँव जला दिए, औरतों को बेइज्जत किया, निरपराध लोगों को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया..." कहते-कहते तांगेवाला रुका। नदी से लोटा भर पानी लाया। हाथ-मुँह धोकर हम आगे चले। "तुम्हारे विचार तो क्रांतिकारियों जैसे हैं। तुम्हारा नाम क्या है? किसी क्रांतिकारी को जानते हो?"

- "मेरा नाम हुजूर रामदास है। किसी क्रांतिकारी को नहीं जानता। नाम जरूर सुने हैं, उन लोगों के जीवन चरित्र पढ़े हैं पर उन लोगों में भी मुखबिर बनने वालों की कमी नहीं है हुजूर। महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आंदोलन में भी बहुत दिनों तक शरीक रहा हूँ, हुजूर। दो बार जेल भी हो आया पर तबीयत नहीं मानती। मेरे अंदर से तो जैसे कोई पुकार उठता है - "गदर"। सन सत्तावन का सीन एक बार दुहराया जाए। इन फिरंगियों से कसकर बदला लिया जाए, तभी हमारा और हमारे देश का उद्धार होगा।" "हम निहत्थे कैसे बदला ले सकते हैं। रामदास? सन्‌ सत्तावन की बात ही और थी। तब हमारे पास हथियार थे। अब तो... अब तो हमने जबान खोली और हमारे ही भाई-बंधु आ जाते हैं गिरफ्तार करने। हमीं में से हम पर पहरा रखने लगे। अगर हिंदुस्तानियों में एका होता तो क्या मुट्ठी भर विदेशी हम पर शासन कर सकते?"

(लेखक "पराग" के पूर्व संपादक और प्रसिद्ध बाल साहित्यकार हैं)

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