स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, देश की जिन विभूतियों ने आजादी के लिए संघर्ष किया और नए भारत के निर्माण में अपनी भूमिका निभाई, उन्हें राष्ट्र ने विभिन्न उपाधियों से अलंकृत और सम्मानित किया था।
उनके वे अलंकरण उनके नाम के साथ जुड़ गए हैं और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं। प्रस्तुत है उन विभूतियों के कार्यों और अलंकरणों का परिचय :-
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(देशबंधु) चित्तरंजन दास (1870-1925)
सुप्रसिद्ध नेता, संगीतज्ञ, वकील, कवि तथा पत्रकार। देश को इनका परिचय 'वंदे मातरम्' के संपादक अरविंद घोष पर ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाए गए राजद्रोह के मुकदमे से मिला। सन् 1906 में इन्होंने कांग्रेस में प्रवेश किया।
एनी बेसेंट को सन् 1917 में कलकत्ता कांग्रेस का अध्यक्ष पद दिलाने में इन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। असहयोग आंदोलन के कारण जिन छात्रों की पढ़ाई छूट गई थी उनके लिए 'राष्ट्रीय विद्यालय' की स्थापना की। सन् 1921 में इन्हें अहमदाबाद कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। देशभक्ति की उनकी बहुविध गतिविधियों के सम्मानस्वरूप उन्हें 'देशबंधु' कहा गया।
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(पंजाब केसरी) लाला लाजपत राय (1865-1928)
अपने छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रहने वाले लाला लाजपतराय ने सन् 1905 से सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेकर अपनी पहचान बनाई।
पंजाब में स्वतंत्रता का अलख जगाने वाले लालाजी का जोशीला भाषण सुनने के लिए भारी भीड़ एकत्र होती थी। शेर जैसी हुंकार से आजादी के लिए बलिदान देने के लिए उनका आह्वान सुनकर ब्रिटिश शासन थर्रा उठता था। कांग्रेस में उनकी गिनती गरम दल के तीन नेताओं में से होती थी - 'लाल' (लाजपत राय) 'बाल' (बालगंगाधर तिलक), 'पाल' (विपिन चंद्र पाल)। लालाजी उग्रवादी विचारों के थे। वह अपनी स्वाभिमानी स्वच्छंद प्रवृत्ति तथा निर्भीकता के लिए जाने जाते थे।
उन्होंने सन् 1928 में जिस हुंकार से 'साइमन कमीशन' को लौट जाने को कहा था, उससे ब्रिटिश हुकूमत ने नाराज होकर उन पर लाठियां बरसाईं। उन्हें गंभीर चोटें आईं और इसी आघात से उनका निधन हो गया। वह 'पंजाब केसरी' थे - अपने मन, कर्म और वचन से।
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(देशरत्न) डॉ. राजेंद्र प्रसाद (1884-1963)
राजेंद्र प्रसाद अत्यंत प्रतिभावान व्यक्ति थे। सन् 1917 में चंपारन आंदोलन में इन्होंने सक्रिय रूप से कार्य किया और महात्मा गांधी के संपर्क में आए। गांधीजी का आशीर्वाद पाकर वह उन्हीं को समर्पित हो गए। पूरी तरह उनके सिद्धांतों पर चले और सादगी भरा जीवन बिताया।
सन् 1932 से 1948 ईस्वी तक राजेंद्र प्रसाद पांच बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापित बने। वह संविधान समिति के अध्यक्ष चुने गए। भारत के प्रथम राष्ट्रपति उन्हें ही निर्वाचित किया गया। अपने गुणों, स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका, गांधीजी के आदर्शों का पालन और प्रचार के लिए उन्हें 'देशरत्न' कहकर अलंकृत किया गया।
स्वतंत्र भारत में उन्हें देश के सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। सरोजिनी नायडू ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए कहा था- 'गांधीजी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है, जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।'
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(नेताजी) सुभाष चंद्र बोस (1897-1945 अनुमान)
आज 'नेता' शब्द का अर्थ जितना हलका हो गया है, वह कभी सुभाष चंद्र बोस के लिए जनता द्वारा दिया गया अत्यंत गरिमामय संबोधन था। तब 'नेताजी' के दर्शन करने, भाषण सुनने और उन पर समर्पित होने के लिए हजारों-लाखों लोग साथ-साथ चलते थे। स्वतंत्रता संग्राम और कांग्रेस पार्टी के विकास में उनकी बड़ी अहम भूमिका रही है।
अंग्रेज सरकार ने उनकी राष्ट्रीय गतिविधियों को राष्ट्र विरोधी कहकर उन्हें नजरबंद कर दिया था। वह दृढ़विश्वास और दृढ़प्रतिज्ञ होकर स्वतंत्रता आंदोलन को किसी भी सीमा तक बढ़ाना चाहते थे। 1938 में हरिपुरा कांग्रेस के वह अध्यक्ष चुने गए थे। उनके पीछे जनशक्ति और युवाशक्ति का समर्थन था। गांधीजी से उनका मतभेद हो गया था, क्योंकि नेताजी में जोश था, नेतृत्व की असीम क्षमता थी। उन्होंने 'स्वतंत्र भारत स्वयंसेवक दल' की स्थापना की थी।
ब्रिटिश सरकार के बढ़ते दबाव से चलते वह देश छोड़कर चले गए। विश्व की महाशक्तियों से मिलकर सहयोग मांगा और 'आजाद हिंद फौज' का गठन दिया। 'जय हिंद' और 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' जैसे नारे उन्होंने ही दिए।
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(भारत कोकिला) सरोजिनी नायडू (1879-1949)
सरोजिनी नायडू को 'भारत की बुलबुल' या 'नाइटिंगेल ऑफ इंडिया' भी कहा गया। वह उच्चकोटि की कवयित्री थीं। उनका कविता पाठ यदि सुमधुर होता था तो उनका व्याख्यान उतना ही ओजपूर्ण। उन्होंने राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया। वह गांधीजी के आदर्शों और आंदोलनों में आगे बढ़कर चलती थीं।
सन् 1925 में वह पहली महिला थीं जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं। स्त्रियों के अधिकार के लिए उन्होंने विशेष काम किया। देश-सेवा के लिए वह कई बार जेल गईं।
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(भारतेंदु) हरिश्चंद्र (1850-1885)
भारतेंदु हरिश्चंद्र अनन्य हिंदीसेवी, देशभक्त, राष्ट्रीयता के पुजारी और समाज सुधारक थे। उन्होंने कहा था कि हिंदी से ही देश की चहुंमुखी उन्नति हो सकती है।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न उर को शूल।।
भारतेंदु ने 'भारत दुर्दशा' और 'अंधेर नगरी चौपट राजा' जैसे राष्ट्रीयता मूलक नाटक लिखे थे, जिनका खूब मंचन हुआ और लोगों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत हुई। भारतेंदु हरिश्चंद्र वर्तमान हिंदी गद्य के प्रवर्तक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य को नवीन मार्ग दिखलाया।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में देशसेवा के लिए इन्होंने हिंदी के प्रयोग एवं विकास पर बल दिया। इसी के साथ इन्होंने अपने समय की सामाजिक बुराइयों एवं अंधविश्वासों को दूर करने के लिए अनेक लेख लिखे। देश के लिए उनके त्याग और बहुमुखी कार्यों के सम्मान-स्वरूप इन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि दी गई थी।
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(महामना) पं. मदनमोहन मालवीय (1861-1946)
मालवीयजी हिंदू सभ्यता के सजीव प्रतीक थे। सत्य, दया और न्याय पर आधारित जीवन जीने वाले मदनमोहन मालवीय का व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन, समान रूप से जनता द्वारा पूजित था। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर 35 वर्ष तक कांग्रेस की सेवा की। वह सन् 1909, 1918, 1930 और 1932 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की।
उन्होंने हिंदू संगठन का शक्तिशाली आंदोलन चलाया लेकिन कांग्रेस को राजनीतिक प्रतिक्रियावाद और धार्मिक कट्टरता से मुफ्त रखा। हिंदू समाज और भारत की प्राचीन सभ्यता तथा विविध विधाओं एवं कला की रक्षा के लिए मालवीयजी ने विशेष कार्य किया। वह स्वभाव में बड़े उदार, सरल और शांतिप्रिय व्यक्ति थे। उनके कार्यों एवं व्यवहार के लिए जनमानस ने उन्हें 'महामना' कहा था।
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(लोकमान्य) बाल गंगाधर तिलक (1856-1920)
बाल गंगाधर तिलक ने कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही सन् 1880 में 'न्यू इंगलिश स्कूल' की स्थापना की थी। इसके बाद इन्होंने मराठी में 'केसरी' और अंग्रेजी में 'मराठा' नामक दो प्रसिद्ध पत्र प्रकाशित किए। इन पत्रों में स्वतत्रंता आंदोलन संबंधी बड़े ओजपूर्ण लेख प्रकाशित होते थे। तिलक ने बाल विवाह का विरोध किया। साथ ही हिंदुओं में स्वाभिमान उत्पन्न करने के उद्देश्य से शिवाजी उत्सव शुरू करने तथा 'गणेशोत्सव' को सार्वजनिक रूप देने की सफल कोशिश की।
उनका राजनीतिक जीवन वर्ष 1889 में शुरू हुआ जब उन्हें कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में भाग लेने के लिए पुणे से प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। सन् 1908 में 'केसरी' के 12 मई के अंक में प्रकाशित उनके अग्रलेख 'देश का दुर्दैव' को आधार बनाकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने तिलक को गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया।
मुकदमे की पैरवी उन्होंने स्वयं की थी और कहा था- 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।' उन्हें अदालत ने छह वर्ष काले पानी की सजा सुनाई गई और उन्हें 'मांडले जेल' में रखा गया। 1914 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने एनी बेसेंट के साथ होमरूल लीग की स्थापना की। बाल गंगाधर का जीवन संघर्षों एवं आंदोलनों में बीता। वह जनमानस में इतना सम्मानित थे कि उन्हें 'लोकमान्य' की उपाधि से अलंकृत किया गया था।
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(लौहपुरुष) सरदार वल्लभभाई पटेल (1875-1950)
सन् 1928 में बारडोली के किसान आंदोलन एवं सत्याग्रह के सफल संचालन के लिए वल्लभभाई पटेल भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में आए। बारडोली सत्याग्रह में सफलता और कुशल निर्देशन के लिए गांधीजी ने उन्हें 'सरदार' कहा था और तब से मृत्युपर्यंत यह शब्द उनके नाम के साथ जुड़ा रहा।
सरदार पटेल में सेनापतियों जैसी नेतृत्व क्षमता थी। वह बड़े अनुशासनप्रिय, दृढ़, कठोर व्यवहार और सिद्धांतों पर अटल रहने वाले व्यक्ति थे। वह गांधी जी के परमभक्त और अनुयायी थे। अपनी दृढ़ता और निश्चलता के लिए वह देश और विदेश में 'लौहपुरुष' या 'आयरनमैन' के नाम से जाने जाते थे।
कांग्रेस को दृढ़तापूर्वक अनुशासित करने में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पंडित जवाहरलाल नेहररूजी ने सरदार पटेल के लिए कहा था- 'वे युद्ध और शांति में समान रूप से हमारे नायक थे।'
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(सीमांत गांधी) खान अब्दुल गफ्फार खां (1890-1988)
खान अब्दुल गफ्फार खां 'बादशाह खान' जैसे संक्षिप्त नाम से भी जाने जाते थे। वह गांधीजी के सिद्धांतों को मानते थे और सत्य-अहिंसा के पुजारी थे। उन्होंने पेशावर में अंग्रेजों की ज्यादतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया था जो शांतिपूर्ण था।
इनकी शांतिप्रियता और अन्याय के विरुद्ध अहिंसक लड़ाई के कारण ही इन्हें 'सीमांत गांधी' या 'सरहदी गांधी' कहा गया था। इनकी संस्था के सदस्य 'खुदाई खिदमतगार' कहलाते थे। बादशाह खान हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे और देश विभाजन के खिलाफ थे। इन्हें जेलभी भेजा गया किंतु इन्होंने शांतिपूर्ण आंदोलन की राह नहीं छोड़ी।
गांधीजी के नमक आंदोलन में बादशाह खान भी अपने खुदाई खिदमतगारों के साथ शामिल हुए थे। बादशाह खान कांग्रेस में समर्पित भाव से काम करते रहे किंतु उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष बनना कभी स्वीकार नहीं किया। वह कहते थे- 'हम खुदाई खिदमतगार हैं, फिर कोई पद कैसे ग्रहण कर सकते हैं।'