बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के एक आदिवासी परिवार में सुगना और करमी के घर हुआ था। 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा शहीद हो गए थे। अतः हर साल 9 जून के दिन उनका शहीद दिवस मनाया जाता है। बिरसा मुंडा का नाम इतिहास के महानायक के रूप में शामिल है। वे भारतीय इतिहास के ऐसे महानायक हैं, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी चिंतन से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के झारखंड में आदिवासियों की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक तथा राजनीतिक युग का सूत्रपात किया था।
वे धूल मिट्टी में खेलते, भेड़-बकरियों को चराते, बांसुरी और हाथ में कद्दू से बने तारवाला तुईला वाद्य यंत्र बजाते, अखाड़े में कुश्ती करते-करते जल, जंगल, जमीन के उपासक बन गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा चाईंबासा मिशन स्कूल में हुई। गरीबी के कारण वे उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। परिवार ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया किंतु शीघ्र ही उनका ईसाई धर्म से मोहभंग हो गया। मिशन के फादर नौट्रोट ने वादा किया था कि यदि इस प्रांत के लोग ईसाई बने रहें तो उनकी छीनी हुई जमीनें वापस करा देंगे। किंतु ऐसा हो न सका, वरन उसने नवीन ईसाइयों को 'धोखेबाज' कहा तो बिरसा ने इसकी तीखी आलोचना की और उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।
ईसाइयों की वादाखिलाफी ने बिरसा के मन में बगावत का बीजारोपण कर दिया। बिरसा पर पूर्व के संथाल विद्रोह, युवान और कोल विद्रोह का व्यापक प्रभाव था। 1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में अकाल और महामारी के भयंकर प्रकोप में बिरसा ने सामाजिक दायित्व के निमित्त पीड़ितों की दिन-रात नि:स्वार्थ सेवा की। लोगों ने उन्हें 'धरती आबा' अर्थात भगवान बना दिया।
बिरसा ने अंग्रेजों के शोषणकारी चरित्र को समझ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया और आदिवासियों द्वारा उन्हें भगवान मानने के विश्वास का सदुपयोग कर उन्हें जनआंदोलन के रूप में संगठित करने के लिए किया। अंग्रेजी हुकूमत ने भी इसे खतरे का संकेत समझ कर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया और उन्हें धीमा जहर दिया जाने लगा, और इसी के चलते 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा शहीद हो गए और रांची में अंतिम सांस लीं। आज भी महान देशभक्तों में उनकी गिनती की जाती है।
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