- कुमार सिद्धार्थ
'भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब संपूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और, संपूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति, 'संपूर्ण क्रांति' आवश्यक है.' - जयप्रकाश नारायण
(15 जून सन् 1975 को पटना के गांधी मैदान में छात्रों की विशाल समूह के समक्ष 'संपूर्ण क्रांति' का उद्घोष)
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवन में इतने अधिक मोड़ आते रहे है कि जिसने जयप्रकाश को किसी एक समय में जाना, सराहा और समझा हो, उसे दूसरे समय के जयप्रकाश एक नए अवतार के रूप में दिखाई पड़ते थे।
आजादी की तमन्ना, दुनिया के किसी भी कोने में किसी की भी आजादी छीनी जाता रही तो उसके विरोध में जूझने की वृत्ति, विचार और आचार की एकता, जीवन के समस्त क्षेत्रों में जड़ता और अन्याय का विरोध, व्यक्तिगत शुद्धि और सामाजिक क्रांति की अभिन्न साधना, दीन दलित और दुःखी लोगों के प्रति अपार करुणा आदि कई बातों की एक अखंड श्रृंखला जय प्रकाश नारायण की जीवन यात्रा में देखी जा सकती है।
विचारों के विकास के अनुरूप ही जे.पी. के जीवन का स्वरूप बदलता रहा और उनके कार्यों का स्वरूप भी बदला। जे.पी. एक प्रयोगवादी व्यक्ति थे। मनुष्य और समाज की स्थिति को सुधारने के लिए सच्चे उपायों की खोज वे निरंतर करते रहे। इसके लिए उन्होंने कई प्रयोग किए और अपने अनुभवों के आधार पर वे आगे बढ़ते रहे।
पश्चिमी विचाराधारा से प्रभावित मार्क्सवादी जे.पी. गुलामी, गरीबी, अज्ञान, असमानता, अन्याय आदि के विरूद्ध जीवन भर सतत् संघर्षशील रहे। जीवनभर की अपनी क्रांति की साधना के अनुभव पर वे जिस नतीजे पर पहुंचे, उसके कारण उन्होंने 'संपूर्ण क्रांति' के शब्द का उच्चारण किया। 'संपूर्ण क्रांति' का विचार जे.पी. को अचानक ही प्रकट हुआ, कोई 'इलहाम' नहीं है बल्कि क्रांति की उनकी साधना और प्रयत्नों के का निचोड़ था।
लोकनायक जयप्रकाश के विचार में लोकतंत्र, नैतिकता, भय-मुक्ति और सब प्रकार के शोषण से मुक्ति का एक समानार्थ शब्द था। उनका मानना था कि ऐसे शोषण एक प्रकार की तानाशाही है। विचार और आचार के जो भंडार वे छोड़ गए, वे खोज करने वालों की भावी पीढ़ियों को उनका भाग्य लिखने में और प्रत्यक्ष आचरण द्वारा संशोधन करने में सहायक होंगे।
जयप्रकाश के विशाल कार्यक्षेत्र, व्यक्तित्व, कृतित्व, आचार-विचार आदि पर देश-विदेश के इतिहासकार आंकलन करते रहे, लेकिन उनके समकालीन विचारकों और नेताओं की नजर में जयप्रकाश के क्या मायने थे, उसकी बानगी देखी जा सकती है।
तत्कालीन ख्यात गांधीवादी विद्वान प्रभुदास गांधी ने जयप्रकाशजी के बारे में लिखते हुए कहा था कि 'सारी दुनिया जानती है कि जयप्रकाश के जीवन का इतिहास पूरे भारत के जीवन के इतिहास-सा बन गया है। स्वराज्य सरकार की अनुचित नीतियों को समाप्त करने तथा राज्यों और केंद्र की सरकारों पर लोगों का अकुंश कायम करने के लिए जयप्रकाश के व्यक्तित्व का विराट स्वरूप प्रकट हो उठा। जब क्रांतिकारी मैदान में उतरते है तो वे इस दृढ़ संकल्प के साथ ही उतरते है कि 'अपने शरीर में रहे खून की आखिरी बूंद तक हमारा यह संघर्ष चलता रहेगा।' ऐसे क्रांतिकारियों को भी पीछे छोड़कर जयप्रकाश ने अपनी आखिरी सांस तक बलिदान का अपना बाना कायम रखा और वे हमें संपूर्ण क्रांति का मंत्र सिखा गए।'
''जयप्रकाश जी क्रांत दृष्टा थे उनकी नजर हमेशा सुदूर क्षितिज पर, वर्तमान की निराशा के पार, भविष्य पर लगी रहती थी। स्थूल दृष्टि से ऐसा लगता था कि जे.पी. एक-दूसरे से भिन्न, असंबद्ध दिखने वाली एक के बाद दूसरी विविध प्रवृत्तियों में लगे रहते थे। कभी कश्मीर का मसला, तो कभी नगालैंड का, कभी तिब्बत का प्रश्न, तो कभी बांग्लादेश का। पर वास्तव में इन विविध प्रवृत्तियों के पीछे जे.पी. के मन की एक भावना काम करती थी- दुःखी और पीड़ित प्राणियों के संकट को सहन न कर सकने की एक संवेदनशील आत्मा की तड़प।' ऐसा मानना था सर्वोदय आंदोलन के प्रमुख रहे, लेखक, चिंतक सिद्धराज ढड्ढा का।
समाजवादी नेता एस.एम. जोशी ने जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति के संबंध में लिखते हुए कहा था 'संपूर्ण क्रांति के उद्देश्य को सामने रखकर सत्तारूढ़ दल का सामना करने वाला कोई शक्तिशाली विकल्प आज हमें कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। राजनीतिक दलों पर से लोगों का विश्वास ही उठ गया है। गरीबों की हालत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। कानून का कोई लाभ उन्हें नहीं मिलता। उनकी दृष्टि से देखें तो आज देश में चारों ओर अराजकता ही छाई हुई है। ऐसी स्थिति में देश के दीन-दुःखी लोगों की सहायता करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। जहां तक संभव हो, रचनात्मक कार्यों के जरिए उनके दुःख दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए। कहीं अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता खड़ी हो ही जाए तो हमें उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। यहीं तो रचनात्मक संघर्ष है।'
प्रसिद्ध सर्वोदय विचारक और लेखक आचार्य राममूर्ति के मतानुसार जे.पी. स्वयं एक आंदोलन थे। जे.पी. की संचालन पद्धति बहुत अधि केंद्रित थी। वह प्रायः राय अलग-अलग लेते थे, जिससे चाहते थे उससे ले लेते थे और बाद में निर्णय खुद करते थे। निर्णय के पीछे जो तर्क और चिंतन होता था, उसे साथियों को प्रायः समझाते नहीं थे। हो सकता है कि मात्र साढ़े चार सौ दिनों के आंदोलन में संघर्ष की विवशताएं ऐसी थी कि बदलती परिस्थितियों में निर्णय तत्काल करना पड़ता था और जे.पी. को ही हर वक्त आगे रहना पड़ता था। आज हर सजग व्यक्ति मानता और कहता है कि देश की व्यवस्था में, बल्कि राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में, बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता है। परिवर्तन परिस्थिति की मांग है।'
तरुण जयप्रकाश राष्ट्रीय-संग्राम के सिपाही के साथ ही साथ स्वतंत्रता के बाद के नए समतापूर्ण समाज के स्वप्न दृष्टा भी थे। वे मानने लगे थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता मात्र एक पड़ाव है। मंजिल है शोषण, गरीबी और वर्ग विभेद से मुक्त समतावादी समाज की स्थापना की। वस्तुतः जे.पी. की सारी विचार-यात्रा, उनका क्रांति दर्शन, स्वतंत्रता और समता के इन दोनों आदर्शों में तालमेल बैठाने, इसका समन्वय करने और इनमें आंतरिक संगति खोजने का ही एक प्रयास था। यह सब करते-करते ही वे कट्टर मार्क्सवाद से चलकर उदार गांधीवाद तक पहुंचे थे।
देश में भूदान-ग्रामदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनाबा भावे ने जे.पी. की तीन विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा कि 'जब से जयप्रकाश जी के साथ मेरा परिचय हुआ है, तब से उनके अनेक गुणों का प्रभाव मुझ पर पड़ा है। मुझे उनके ह्दय की सरलता बहुत प्रिय लगती है। इसी सरलता के कारण उनके बारे में काफी गलतफहमी भी होती रहती है और इसी सरलता की वजह से वे स्वयं कभी कोई भूल-चूक भी कर सकते हैं।
उनकी दो-तीन विशेषताएं है। जवाहरलाल के बाद प्रधानमंत्री के रूप में जयप्रकाश का नाम लिया जाता था' परंतु जयप्रकाश ने कभी सत्ता हाथ में नहीं ली। उन्हें सत्ता की अभिलाषा नहीं थी। दूसरी बात, गृहस्थाश्रमी होकर भी वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। लेकिन वे स्वयं भी इतने विनम्र थे कि बहुत कम लोगों को उनकी इस विशेषता का पता है। गांधीजी, अरविंद और रामकृष्ण की बात तो प्रकट है। परंतु जयप्रकाश जी के ब्रह्मचर्य के विषय में कोई जानता नहीं। उनकी तीसरी विशेषता है- नम्रता, सरलता और स्नेह। (सप्रेस)